Kunwari by Ismat Chughtai

कुंवारी हिंदी कहानी, Kunwari Hindi Kahani, इस्मत चुग़ताई की कहानी कुंवारी, Ismat Chughtai Ki Kahani Kunwari, कुंवारी हिंदी स्टोरी, कुंवारी इस्मत चुग़ताई, Kunwari Story, Kunwari Ismat Chughtai Hindi Story, Kunwari By Ismat Chughtai, कुंवारी कहानी, Kunwari Kahani

कुंवारी हिंदी कहानी, Kunwari Hindi Kahani, इस्मत चुग़ताई की कहानी कुंवारी, Ismat Chughtai Ki Kahani Kunwari, कुंवारी हिंदी स्टोरी, कुंवारी इस्मत चुग़ताई, Kunwari Story, Kunwari Ismat Chughtai Hindi Story, Kunwari By Ismat Chughtai, कुंवारी कहानी, Kunwari Kahani

इस्मत चुग़ताई की कहानी कुंवारी, Ismat Chughtai Ki Kahani Kunwari
Kunwari by Ismat Chughtai- उसकी सांस फूली हुई थी। लिफ़्ट ख़राब होने की वजह से वो इतनी बहुत सी सीढ़ियाँ एक ही साँस में चढ़ आई थी। आते ही वो बेसुध पलंग पर गिर पड़ी और हाथ के इशारे से मुझे ख़ामोश रहने को कहा।

मैं ख़ुद ख़ामोश रहने के मूड में थी। मगर उस की हालत-ए-बद देखकर मुझे परेशान होना पड़ा। उसका रंग बेहद मैला और ज़र्द हो रहा था। खुली-खुली बेनूर आँखों के गिर्द स्याह हलक़े और भी गहरे हो गए थे। मुँह पर मेक-अप न था। खासतौर पर लिपस्टिक ना होने की वजह से वो बीमार और बूढ़ी लग रही थी। मुझे मा’लूम हो गया कि मेरे बताए डाक्टर का ईलाज तसल्ली बख़्श साबित हुआ। उसका पेट अंदर को धँसा हुआ था और सीना सपाट हो गया था। मुझे मा’लूम हुआ कि इस क़त्ल की मैं भी कुछ ज़िम्मेदार हूँ। मगर में डाक्टर का पता ना बताती तो कोई और बता देता। बिन बुलाए मेहमान को एक दिन निकाला तो मिलना ही था।

“एक मश्वरा लेने आई हूँ…” सांस क़ाबू में आते ही उसने कहा।
“जुम्मा जुम्मा आठ दिन बीते नहीं और मुर्दार को फिर मश्वरों की ज़रूरत आन पड़ी,” मैंने चिड़ कर सोचा, मगर निहायत ख़ंदा-पेशानी से कहा, “लो, ज़रूर लो। आजकल बहुत मश्वरे मेरे दिमाग़ में बज-बजा रहे हैं।”
“आपा, में शादी कर लूँ?” उसने बड़ी लजाजत से पूछा। गोया अगर मैंने इजाज़त ना दी तो वो कुँवारी अरमान भरी मर जायेगी।
“मगर तुम्हारा शौहर?”
“मौत आए हरामी पिल्ले को। उसे क्या ख़बर होगी।”

“ये भी ठीक कहती हो। भला तुम्हारे शौहर को तुम्हारी शादी की क्या ख़बर होगी,” मैंने सोचा। “मगर तुम्हारी शादी के चर्चे अख़बारों में होंगे। आख़िर इतनी बड़ी फ़िल्म स्टार हो।”
“फ़िल्म स्टार की दुम में ठेंगा।” अल्लाह गवाह है मुझे नहीं मा’लूम कि ये गाली हुई कि नहीं। मदन एक सांस में तीन गालियाँ बकने की आदी है, मुझे तो उसकी ज़बान से निकला हुआ हर लफ़्ज़ गाली जैसा सुनाई देता है। मगर ये हक़ीक़त है कि सिवाए चंद आम-फहम गालियों के ये किल-कारियाँ मेरे पल्ले नहीं पड़तीं।

“भई एक बात मेरी समझ में बिलकुल नहीं आती,” मैंने बात की लगाम एक दम दूसरी सड़क पर मोड़ दी। “तुम शादीशुदा हो तो तुम्हारा बच्चा हरामी कैसे हुआ?”
“ओह, आपा। अल्लाह का वास्ता, कभी तो समझा करो। कम्बख़्त शादी तो शब्बू दो साल का था तब हुई थी।”
“शब्बू के बाप ही से ना?” मैंने सहम कर पूछा।
“ऊंहूं, तुम्हें याद तो कुछ रहता नहीं। बताया तो था… वो कम्बख़्त…”
“अच्छा… याद आ गया… वो तुम्हें गृहस्ती का शौक़ चर्राया था,” मैंने अपनी कुंद ज़हनी पर शर्मिंदा हो कर कहा।
“भूसा चर्राया था। माँ के ख़सम ने धंदा कराना शुरू कर दिया।” माँ का ख़सम रिश्ते में क्या हुआ?
“उंह, छोड़ो इस ना-मुराद शादी के तज़किरे को। नई शादी का ज़िक्र करो। अल्लाह रखे कब कर रही हो। कौन है वो ख़ुशनसीब।
“सुंदर,” और वो क़ह-क़हा मार कर क़ालीन पर लोट गई।

एक ही सांस में उसने सब कुछ बता डाला। कब इश्क़ हुआ, कैसे हुआ, अब किन मदारिज से गुज़र रहा है। सुंदर उस का किस बुरी तरह दीवाना हो चुका है। किसी फ़िल्म में किसी दूसरे हीरो के साथ लव सीन नहीं करने देता और वो ख़ुद भी उसे किसी दूसरी हीरोइन के साथ रंग-रलियाँ नहीं मनाने देती।
“आपा, ये फ़िल्म वालियाँ बड़ी छिनाल होती हैं। हर एक से लंगर लड़ाने लगती हैं,” उसने ऐसे भोलेपन से कहा जैसे वो ख़ुद बड़ी पारसा है। “आपा, कोई चटपटी सी कहानी लिक्खो। हम दोनों उसमें मुफ़्त काम करेंगे। मज़ा आ जाएगा उसने चटख़ारा लिया।
“सेंसर सब काट देगा।”
“सेंसर की…” उसने मोटी सी गाली सेंसर की क़ैंची पर दाग़ी। “शादी के बाद काम थोड़ी करूँगी। सुंदर कहता है अपनी दुल्हन को काम नहीं कराऊँगा। चम्बोर् में बंगला ले लेंगे ख़्वाबों के झूले में पींगें लेते हुए कहा और एक दफ़ा तो मुझे भी यक़ीन हो गया कि उसकी दुनिया बस जाएगी। चम्बोर् बंगले में वो बेगम बनी बैठी होगी। बच्चे उसे चारों तरफ़ से घेरे होंगे।

“अम्मॉं खाना। अम्मॉं खाना,” वो चिल्लाऐंगे।
“अहे ज़रा सब्र करो… आलू तो गल जाने दो,” वो कफ़गीर से उन्हें मारेगी। तब बच्चों का बाप मुस्कुराएगा, “बेगम क्यों मारती हो। अभी बच्चे हैं।”
“बस एक लौंडा हो जाएगी फिर साले को शादी करनी पड़ेगी।”
“तो क्या अभी शादी नहीं हुई?” ख़्वाबों की बस्ती से लौट कर मैंने पूछा। मेरा दिल बैठ गया। जैसे मेरी अपनी कुँवारी की बारात दरवाज़े से लौट गई।
“नहीं आपा। हरामज़ादा है बड़ा चालाक। ना जाने क्या करता है।” वो देर तक सुंदर को फांसने की तरकीबें पूछती रही। ना जाने क्यों ये बात उस के दिल में बैठ गई थी कि अगर बच्चा हो गया तो सुंदर के पैर में बेड़ियाँ पड़ जाएंगी।

“और फिर भी उसने शादी न की तो?”
“करेगा कैसे नहीं, उस का तो बाप भी करेगा।”
“ख़ैर, बाप का ज़िक्र फ़िज़ूल है, वो मर भी चुका।”
“हराम-ज़ादे की छाती पर चढ़ कर ख़ून ना पी जाऊँगी।”
“शब्बू के बाप की छाती पर चढ़ करके क्यों ना ख़ून पी गईं?”
“जब मेरी उम्र ही किया थी। उल्टी चोर सी बन के बैठ गई। बस तुम कोई ऐसी तरकीब बताओ कि साले की एक ना चले और…” जो तरकीबें वो मुझसे पूछ रही थी उनसे मुझे वहशत हो रही थी।

मदन कई बार सुंदर को लेकर मेरे हाँ आई। सुंदर अपने नाम की तरह हसीन और नौ-उम्र था, मदन से किसी तरह बड़ा ना मा’लूम होता था। नया-नया कॉलेज से आया तो भूके बंगाली की तरह चौ-मुखे इश्क़ लड़ाने शुरू कर दिए। इसी छीन-झपट में मदन उसे उड़ा लाई। अच्छे घराने का क़ह-क़हा बाज़ और बातूनी लड़का पहली ही दफ़ा घर में ऐसा बे-तकल्लुफ़ हो गया जैसे बरसों से आता जाता है।

उसे देखकर ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल ना था कि क्यों मदन उसे दिल से बैठी। उसकी सोहबत में एक लम्हा भी उदास नहीं गुज़रता था। मदन जैसी पिटी-पिटाई, ग़म-नसीब लड़की के लिए ज़रा सी नरमी भी छलका देने को काफ़ी थी। वो सुंदर के हर जुमले पर बे-तहाशा क़ह-क़हे लगाती। वो बात पर नहीं, उस के चेहरे के उतार चढ़ाओ पर, लबों की जुंबिश पर मस्हूर हो कर खिल-खिला पड़ती। मुसर्रत की उछलती कूदती मौजें उसे झकोल डालतीं। सुंदर के लब हिलते और वो क़ह-क़हा मारती, पानी पीती होती तो उच्छू लग जाता, खाना खाती होती तो मुँह का निवाला सामने बैठने वाले के ऊपर छिड़क देती।

वो दोनों ना जाने अपना घर छोड़कर मेरे ही हाँ कुलेलें करने क्यों आते थे, बच्चों जैसी शरारतें करते, कला-बाज़ियां करते, कभी रूठते, कभी मनाते। उन्हें देखकर मुझे बकरी के दो खिलंदड़े बच्चे याद आ जाते जो पराए खेत में फुदकने आ जाते हैं। क्या दन-दनाता हुआ इश्क़ था दोनों का, बे परों के हवा में उड़े जाते थे।

जंगली हिरनियों जैसे चौकड़ियाँ भरते हुए प्यार ने मदन की काया पलट कर दी। वो एक दम बेहद हसीन और जाज़िब-ए-नज़र बन गई। जिल्द के नीचे दिए रौशन हो गए। सोई हुई आँखें जाग उठीं, हज़ारों जादू सरगोशियाँ करने लगे। सपाट सीना खिल उठा । कूल्हे लहराने लगे। सुंदर से कुश्तियाँ लड़-लड़ कर वो फुर्तीली बन गई।

सुंदर की और मदन की जोड़ी बन गई, जिन फिल्मों में वो सुंदर के साथ ना थी, उन्हें डफ़राना शुरुअ कर दिया। सेट से बड़े मार्के के सीन मेक-अप रुम में होने लगे। वो फिल्में जो आधी हो गई थीं, चीथड़ा हो गईं, मदन ने पहली बार किसी नौ-जवान को दिल दिया था। सब कुछ भूल कर वो उसी में डूब गई।

सुंदर उसके बड़े लाड सहता। उसके छिछोर पर हँसता। उसके उजड़े हुए घर में जान डाल देता। नानी को अम्माँ अम्माँ कह कर मस्का लगाता। ख़ाला से बैठ कर गप्पें मारता। भाई को व्हिस्की पिलाता। बच्चों के साथ धमा-चौकड़ी मचाता। उसे मदन के जिस्म से मतलब था। उसकी आमदनी इसी तरह मुँह बोले रिश्तेदारों के तन्नूर में झोंकी जाती थी। शब्बू को वो बहुत प्यार करता… मदन ने इस बदनसीब बच्चे का हाल उसे सुना दिया था। वो उसे बेटा कह कर गोद में बिठाकर घंटों प्यार की बातें किया करता।

“आपा, शब्बू नगोड़े को बेटा कहता है। बस तुम ही समझ लो क्या बात है,” वो झूम कर कहती और मेरे कानों में मदन की बारात के ढोल गूँजने लगते। देखने में सुंदर कैसा ओबाली सा था। मगर बच्चों के मुआमले में उसका रवय्या हैरत-अंगेज़ था। आते ही बच्चे उसे मक्खीयों की तरह घर लेते। उसकी जेबें क्या थीं, उमर-अय्यार की ज़ंबील थीं, रंगीन पेंसिलें, पटाख़ों की डिब्बियाँ, काग़ज़ पर उतारने की तस्वीरें, चॉकलेट, मीठी गोलीयाँ, ना जाने क्या इल्ला बिल्ला निकाल कर बांटने लगता। एक दिन बच्ची ने मेरी सेंट की शीशी तोड़ दी। मैंने उसे मारना चाहा तो मेरे हाथों से उसे झपट कर ले गया।

“आप मारेंगी तो उसे अपने घर ले जाऊँगा वो उसे कंधे पर बिठाकर बोला।”
“इसने मेरी शीशी तोड़ी है। ज़रूर मारूंगी।”
“हाथ तोड़ दिए जाऐंगे मारने वालों के। ये लीजीए अपनी शीशी,” उसने जेब से नई मुँह-बंद वैसी ही शीशी निकाल दी। “मगर इन्हें पूरी शीशी नहीं देंगे। आधी थी तो आधी मिलेगी उसने शीशी खोल कर ख़ूब बच्चों के बिसांदे कपड़ों और मैली हथेलियों पर छिड़की। आधी रह गई तो मेरे सामने डाल दी। जब वो बच्चों को बटोर कर दूसरे कमरे में चला गया तो मदन ने रोकर मेरे शाने पर सर डाल दिया।

“आपा, ऐसे ऊट-पटांग आदमी के साथ कोई प्यार कैसे ना करे?”
और फिर मदन की ज़िंदगी ने एक नया झटका खाया। सुंदर के घर से तार आया कि माँ सख़्त बीमार है, फ़ौरन आ जाओ। मदन साथ जाने के लिए मचल गई। उसने अपने तरकश के सारे तीर इस्तेमाल कर डाले। शाम से ही उस के लिए व्हिस्की की बोतल लेकर पहुंची। उसे धुत कर दिया। बड़े नाज़ुक लम्हों में साथ ले जाने की कसमें दीं। मगर सुंदर टस से मस ना हुआ। वो सारी रात जागती रही। ना सोई, ना सोने दिया। मगर सुबह होते ही परिंदा सारी तितलियाँ झटक कर उड़ गया।

एरोड्रोम से सीधी मेरे ऊपर नाज़िल हुईं। मुझे इस क़िस्म के मरियल आशिक़ों से बड़ी कोफ़्त होती है। मगर उसे यूं तबाह-हाल देखकर मेरा जी पसीज गया। जैसे बरसों की बीमार। एक ही रात में आँखों के गर्द स्याह हल्क़े। मुँह पर फटकार। ये उसे हो क्या गया है, मैं देर तक सोचती रही।

मैं क्यों इस कम्बख़्त के बारे में सोचूं। दुनिया में कितने बड़े-बड़े मसले हैं जिनमें जी उलझा हुआ है। फिर आख़िर में इस का ख़्याल क्यों करती हूँ। मैं ये सब कुछ क्यों लिख रही हूँ। मदन इस लायक़ नहीं। मुझे अपना जी हल्का करने के लिए ही सही, इस बोझ को बाँटना होगा।

कितने दिन से जब मैं क़लम उठाती हूँ, मदन का ख़्याल मुझसे आकर कहता है, “मैं ज़िंदा हूँ। मेरे सीने में दिल धड़क रहा है। मेरी रगों में ख़ून दौड़ रहा है… राय दो… मुझे बताओ, में क्यों हूँ और कब तक रहूंगी…” अच्छा है, मेरा क़लम एक बार मदन को उगल दे। फिर मितलियाँ आनी बंद हो जाएंगी।

“आपा, एक तार लिक्खो,” उसने थोड़ी देर सूखी-सूखी आहें भर कर कहा।
“कैसा तार?”
“कम सून, डाइंग… यानी जल्दी आओ, मर रही हूँ।”
“मगर अभी तो वो पहुंचा भी ना होगा,” मैंने टालना चाहा। फिर जान को आ गई तो लिख दिया। डाइंग ना लिखा।
शाम को हाँपती काँपती आई, बड़ी शरमाती हुई तकिए में मुँह छुपा कर हँसने लगी। मैंने कहा, “ख़ैरीयत?”
“तार लिख दो।”
“सुबह तो लिखा था।”
“सुबह मुझ नसीबों जली को कहाँ मा’लूम था,” वो फिर शरमाई। “उबकाईयाँ आ रही हैं आपा लीमूँ मंगवा दो।”
“ओहो… ये बात है मुबारक हो।” मेरे सर से बोझ सा उतर गया, ये बस फटकी कामयाब रही। “डाक्टर के पास गईं?”
“वहीं से तो आ रही हूँ। डाक्टर हरामी पिल्ला क्या जाने। कहता है दो दिन चढ़ जाने से कुछ नहीं होता… कुछ नहीं होता का बच्चा… आपा कपड़े वग़ैरा तो सिलवा दोगी… हंक, हंक। भई हमसे तो नहीं पलेगा। तुम पाल दोगी वो…” ठुनकने लगी। मैंने हामी भर ली।

“तो फिर तार लिक्खो ना।”
“क्या लिखूँ?”
“लिक्खो… सन बोर्न। कम सून।”
“गधी हो तुम। अभी कहाँ से सन बोर्न?”
“अच्छा तो सन बोर्न होने वाला लिख दो।”
“चलो स्टर्न, उसके आने का इंतेज़ार करो, और क्या मा’लूम। शायद लड़की हो।”
“वाह, लड़की छिनाल काहे को होगी। मेरी तरह सड़ने को। मेरा जी कहता है लड़का ही होगा,” फिर थोड़ी देर सोच कर एक दम बोली…
“मर जाये अल्लाह करे।”
“कौन?” मैंने चौंक कर पूछा।

“सुंदर की माँ, उल्लू की पट्ठी। बीमार वीमार कुछ नहीं। ससुरी ने अपने यार को बुलाने के लिए ढोंग रचाया है,” उसने निहायत पुर-मग़ज़ क़िस्म की फूलदार गालियाँ टिकाईं।
“अहमक़ हो तुम, कैसे मा’लूम?”
“अरे में ख़ूब जानती हूँ इन मय्यत पीटियों को।” जब से मदन की ज़िंदगी में सुंदर आया था उसने गालियाँ बकना बंद कर दी थीं। सुंदर के प्यार ने रिसते ज़ख़्मों पर फाए रखकर ग़लाज़त का मुँह बंद कर दिया था। उसकी आँख ओझल होते ही कच्चे ज़ख़्मों के मुँह खुल गए। पीप बहने लगी। उसके मुँह से फिर वही गालियाँ सुनकर मेरा जी बैठ गया। मारे ग़ुस्से के रिन पटाख़ों की लड़ी बन गई।

“उसका ताल्लुक़ है।”
“किसका?”
“उसकी अम्माँ बहिनियाँ का, सच्ची आपा, बहुत सी औरतें ऐसी होती हैं बचपन ही…”
“लानत हो तुम्हारी ज़बान पर।”
“अल्लाह क़सम आपा… हमारे पड़ोस में एक बीबी रहती थीं। अपने सगे भाई से…”
मैंने उसे रोक दिया। “लिल्लाह तफ़सीलों में ना जाओ। मेरा क़लम पेट का बड़ा हल्का है। कल कलां को मुँह से बात निकाल बैठा तो लोग मुझे उलाहना देंगे।
दूसरे दिन मातम-कुनाँ फिर टूट पड़ीं। कल जैसे डाक्टर का कहना ही ठीक निकला। दिन चढ़ गए थे, सो उतर गए। साथ-साथ मदन की कमान भी उतर गई। ऐसी बिलक-बिलक कर रोईं जैसे जवान बेटा जाता रहा हो। ये औरत है या लतीफ़ा। कल जिस बला के ख़ौफ़ से बौखलाई फिर रही थी आज उस बला की आरज़ू में जान दिए देती हैं। लगीं मुझसे तरकीबें पूछने। भला मेरे पास कोई जादू की छड़ी है जो चूहे को घोड़ा बना दूँ। डाक्टर ने कुछ इशारा तो किया था कि आइन्दा ऐसी मुसीबत से पाला नहीं पड़ेगा। मैं उसे बावजूद कोशिश के न बता सकी कि सुंदर को फ़ासने वाली चाल के पैर मफ़लूज हो चुके हैं।

सुबह ,शाम मदन ने तारों की डाक बिठा दी। काम पर उसने लात मार दी। एक प्रोडयूसर ने कोर्ट में ले जाने की धमकी दी तो वो नाक पर ढेर सा मरहम थोप कर पड़ गई। मैं भी मरहम की मिक़्दार देख कर हिल गई… गई नाक, मैंने सोचा। मगर जब प्रोड्यूसर चला गया तो मज़े से नाक पोंछ कर हँसने लगी।

“मगर मुझे बेवक़ूफ़ क्यों बनाया तुमने…” मैंने चिड़ कर कहा और चली आई।
अख़बारों में इस्क़ात की ख़बरें छपने लगीं। मदन ने ज़रा शरमाकर तसदीक़ कर दी, मैंने पूछा, “ये क्यों?”
“सूअर को पता चलेगा तो बहुत कुढ़ेगा। मैं कह दूँगी, मैं समझी तुम छोड़कर चले गए। बदनामी के डर से गोलीयाँ खालीं। मर्द बच्चा है कुछ तो दिल को ठेस लगेगी।
एक दिन हवास-बाख़्ता रोती हुई आई।
“तुम ने मुझे नहीं जाने दिया। ये देखो,” वो अख़बार जिसमें सुंदर की मंगनी की ख़बर थी, दिखाकर लड़ने लगी।
“चेह ख़ुश, मैंने कब मना किया,” मैं ने जल कर कहा। “जाओ मेरी बला से जहन्नुम में।” और वो शाम के हवाई जहाज़ से जहन्नुम की तरफ़ उड़ गइ।
ग्यारह बजे रात को जब वो सुंदर के घर पहुंचीं तो घर में सिवाए बूढ़े दादा और तोते के कोई ना था। सब के सब सुंदर की कोई फ़िल्म देखने गए थे। सुंदर के दादा फ़िल्म लाईन के वैसे ही ख़िलाफ़ थे। उन्हें मा’लूम था कि इन फ़िल्म वालों के चाल चलन कुछ यूँ ही वर्क़ से होते हैं, फूंक मारी और ग़ायब। आँखें फाड़ कर वो मदन को घूरने लगे। मदन बंबई से गर्म कपड़े भी लेकर नहीं गई थी। भूक अलग लग रही थी।

बारह बजे के बाद सुंदर बहन भाईयों की टोली में हँसता क़ह-क़हे लगाता आया तो मदन रो पड़ी। क्या वो भी कभी यूं ख़ानदान में घुल मिल कर उनकी अपनी बन सकेगी। उसके भी देवर जेठ होंगे, ननदें और देवरानियाँ होंगी।
“बहू, लड़का रो रहा है, भूका है,” सास कहेगी। उसने पक्का इरादा कर लिया। वो अपनी सास से कभी नहीं लड़ेगी। ननदों की ख़ूब ख़ातिर करेगी। दादा का हुक्का भरेगी, और तोते को भीगे चने खिलाएगी। सुंदर को देखकर उसका जी चाहा कि दौड़ कर उसके चौड़े चकले सीने से लिपट जाये और उसे मुट्ठियों से कूट डाले। उसके भूरे घने बालों में उंगलियाँ डाल कर नोच डाले। मगर सास ननदों की शर्म ने उसके पैर थाम लिए।

उसे देखकर सुंदर के हल्क़ में क़ह-क़हा लोहे का गोला बन कर अटक गया। माँ बहनों के सामने अपनी दाश्ता के वुजूद से शर्म के मारे पानी पानी हो गया। मसनूई ख़ुश-मिज़ाजी से बोला, “अरे आप!”
“आप के बच्चे!” मदन ने दाँत पीसे। मगर सुंदर की घबराहट पर तरस खा गई।
“जौहरी से कुछ ज़ेवर बनवाए थे। चांदनी कुन्दन का काम दिल्ली जैसा बंबई में नहीं होता। सोचा दिल्ली की सैर भी हो जाएगी और ज़ेवर भी देख लूँगी सुंदर, मदन की आला ऐक्टिंग का क़ाइल था। आज तो लोहा मान गया।

जब उस को सुंदर की बहनों के कमरे में सुलाया गया तो वो ब-मुशकिल गालियों की ज़ंजीर को निगल सकी जो उस के हल्क़ में उलझने लगी। ख़ैर जब सब सो जाएंगे तो सुंदर उस के पास आएगा… सब सो गए और वो सुंदर के पैरों की चाप के इंतेज़ार में पड़ी रही। उसका जिस्म सुंदर में जज़्ब होने के लिए तरस रहा था। रास्ते भर कैसे कैसे ख़्वाबों के जाल बुनती आई थी। सुंदर सो रहा होगा। वो चुपके से पहलू में रींग जाएगी। उसे महसूस करके सुंदर झूम उट्ठेगा। पहले वो ख़ूब तरसाएगी, ख़ूब रूठेगी। फिर दोनों मान जाऐंगे। सारी कसक, सारी दूरी मिट जाएगी। सारे रास्ते वो इसी हादसे को दिल में दोहरा कर चटख़ारे लेती आई थी। इसी लिए तो वो अपनी झाग सी नाइटी लेती आई थी जो हाथ के लम्स से धोवें की तरह पिघल कर ग़ायब हो जाती थी।

मदन सुंदर के पैरों की चाप सुनने के लिए बेक़रार हमा-तन गोश बन गई। दबे पैरों से वो पलंग से उठा होगा, उसने मंज़र-नामा-तामीर करना शुरू कर दिया। उसकी तरफ़ खिंचा चला आ रहा होगा। एक, दो, तीन, चार, पाँच, उसने अंदाज़े से वो सारे क़दम गिन डाले, जो उस के और सुंदर के दरम्यान हाइल थे। गिनते-गिनते वो थक गई। अगर वो हज़ार मील पर होता तो भी अब तक पहुंच चुका होता। वो रुहांसी हो गई। एहसास के तनाव से कनपटियां भीगे चमड़े की तरह करने लगीं। शायद सुंदर के भाई जाग रहे होंगे और वो उनकी मौत की दुआएं मांगने लगी।

सुंदर की गलगोथा सी भोली-भाली बहनें क्या मीठी नींद सो रही थीं। उनके ख़्वाब कितने सुहाने थे। उनके दिलों में किसी बेवफ़ा के प्यार के ज़ख़्म नहीं पड़े थे। उसे ग़ुस्सा आने लगा। ए काश, कोई उनका जहान भी लूट ले, उनके पेटों में साँप छोड़ दे किये भी घोर अँधियारे में किसी के पैरों के निशान टटोलते फिरें। फिर सुंदर को आटे दाल का भाव मा’लूम हो।

आख़िर किस जुर्म की सज़ा में उसका बचपन इतना वीरान और जवानी ज़ख़्म ज़ख़्म हो कर रह गई थी। उससे ज़्यादा ना ज़ब्त हो सका और वो सुंदर के कमरे की तरफ़ चलने लगी। जहां वो अपने भाईयों के साथ सो रहा था।
वो जैसे ही बाहर निकली। तोता अजनबी सूरत देखकर आँखों के लट्टू घुमाने लगा।
“कौन?” दादा ने हाँक लगाई। वो चोरों की तरह खम्बे के पीछे दुबक गई। दादा उठे और चबूतरे पर खड़े आधे घंटे तक रफ़’अ़ हाजत करते रहे। “मर गया बुड्ढा शायद, कि हिलता ही नहीं।” वो साय साय फिर चली, एक पीढ़ी से पैर उलझा और धड़ाम से गिरी। घर में जगार हो गई और वो फिर अपने पलंग पर जाकर दुबक गई।

सुबह मौक़ा पाते ही उसने सुंदर से कहा, “सीधी तरह बंबई चलो बेटा, वरना ख़ून-ख़राबे हो जाएंगे।”
“तुमने तार तो दिया होता। किसी होटल में इंतेज़ाम करा देता।”
“क्यों। क्या जागीर में टूटा आया जा रहा है…? मरे क्यों जाते हो, खाने के पैसे ले लेना।”
“दामों की बात नहीं मेरी जान मेरे घर वाले बड़े नेरो माइंडेड हैं फ़िल्म वालों को पसंद नहीं करते।”
“तुम भी तो फ़िल्म वाले हो।”
“मेरी और बात है। तुम शाम की गाड़ी से चलो, परसों मेरे बहनोई आ रहे हैं। उनसे मिलकर…”
“तो मैं भी नहीं जाऊँगी…” बड़ी झक-झक के बाद ये तय हुआ। मदन ब-ज़ाहिर बंबई के लिए रवाना हो जाएगी। एक स्टेशन बाद नई दिल्ली उतर कर किसी होटल में ठहर जाये। सुंदर वहीं आ जाएगा। बड़ी धूम धाम से सारा घर मदन को स्टेशन पहुंचाने गया। वो एक दम फ़िल्म स्टार बन गई, छोटे भाईयों ने तो हार भी पहनाए।

नई दिल्ली उतर कर वो होटल में ठहर गई।
दो प्यासे इन्सान एक दूसरे में ग़र्क़ हो गए। मदन के सारे दुख दूर हो गए, वो इंतिज़ार की घड़ियाँ, वो ला-मतनाही फ़ासला सब सुंदर के प्यार ने पाट दिया मगर बावजूद ख़ुशामद के सुंदर रात गुज़ारने पर राज़ी ना हुआ… “मेरी माँ मेरे बग़ैर रात-भर बिना खाए बैठी रहेगी।”

“तुम्हारी अम्माँ की…” वो मोटी सी गाली चबा गई। सुंदर की जान को आ गई उस के कपड़े छुपा दिए उस के जूते गोद में दबाकर बैठ गई। दस मर्तबा दरवाज़े से बारहा ख़ुदा-हाफ़िज़ कहने को बुलाया। मगर जाने वाले को ना रोक सकी। वो उसे सूने अजनबी बिस्तर पर सिसकियाँ भरता छोड़कर चला गया।

दूसरे दिन सुंदर हस्ब-ए-वाअदा आ गया। मदन ने पूरा बक्स बियर की बोतलों का बर्फ़ में लगाके रखा था। आतिश-दान में धीमी धीमी आँच उठ रही थी। मदन की नाइटी पिघल रही थी। सुंदर बिअर पीता रहा। और वो उस की आग़ोश में बिखरती रही। काश कोई वक़्त की लगामें पकड़ के रोक देता। ये लम्हे यूँ ही फ़िज़ा में मुअल्लक़ हो जाते वो इसी तरह सुंदर में तहलील हो जाती, दूरी का सवाल मिट जाता। वो पीते रहे, सोते रहे, फिर जाग उठे और फिर सो गए।

शाम को दोनों नन्हे बच्चों की तरह टब में चुहलें करते रहे। बाहर की दुनिया उनके लिए ख़त्म हो चुकी थी। गीले बदन आतिश-दान के पास दो ज़ानू हो कर उन्होंने अपनी दुनिया पा ली थी।
दिन-भर की बियर का नशा फीका पड़ना से पहले व्हिस्की का रंग चढ़ने लगा। मदन किसी ना किसी बहाने सुंदर को लगाए रखना चाहती थी। अगर उस का बस चलता तो वो उस की ममी बनाकर तकिये पर सुला देती। और फिर उस के मुँह पर मुँह रखकर अबदी नींद सो जाती। बस ना था जो उसे सारी दुनिया से छीन कर अपने दिल के किसी कोने में क़ैद कर दे और ऐसा ज़बरदस्त ताला डाले कि सर पटके, ना खुले।

मगर बियर ना व्हिस्की, सुंदर के जाते क़दम डग-मगा ना सके। मदन पर भूत सवार हो गया। सुंदर ने हस्ब-ए-मामूल उस की ठुकाई शुरू की। इतनी ज़ोर से उसकी पसली में लात मारी कि आँखें निकल पड़ें। घबराकर उसने फिर से उसे बाँहों में समेट लिया। बस यही अदा तो मदन के मन को भा गई थी, उसे यूं बिखेरने और समेटने ही में लुत्फ़ आने लगता था। उस चार चोट की मार ही में लज़्ज़त मिलने लगी थी। मदन तो चाहती ही थी कि वो उसे इतना मारे, इतना मारे कि हड्डियाँ चकनाचूर हो जाएँ। तब वो उसे छोड़ कर ना जा सकेगा।

मगर ख़ानदान वालों की दहश्त मदन के प्यार से ज़्यादा मुहीब साबित हुई और वो चला गया। और मदन सुबह तक आहें भर्ती रही, तड़पती रही।
काश वो लंगड़ा,लूला और अपाहिज होता, उस के सब जानने वाले उसे भूल जाते और वो सिर्फ़ उस का हो कर रह जाता। बंबई में सुंदर को एक मर्तबा बुख़ार आया था। दुनिया को लात मार कर वो उस की पट्टी से लग कर बैठ रही। ना उस के घर ख़बर की। ना मिलने-जुलने वालों को आने दिया। बैठी जिस्म से लग कर सो रही। ख़्वाब में उसने देखा गर्म-गर्म सुनहरी आँच में वो पिघलती रही है। और वो सुंदर के जिस्म पर खोल बन कर मंढ गई है। उसके रिश्तेदार किसी जतन से भी मदन का पलस्तर ना खुरच सकेंगे। डाक्टर ने उसे डराया कि अगर वो घंटे में हज़ार बार उसे टटोलेगी तो वो अच्छा ना हो सकेगा।

ख़ुदा ख़ुदा करके रात बीती और दिन हुआ। सुंदर कह गया था कि शायद वो देर से आए। लम्हे पहाड़ हो गए। दीवानी बिल्ली की तरह वो होटल में चक्कर काटती रही। फिर ताँगा ले कर शहर की ख़ाक छान डाली। दो जोड़े लाई थी जो चीकट हो गए थे। उसकी उजाड़ सूरत पर किसी को फ़िल्म स्टार होने का गुमान भी ना था। एक सिनेमा-हाल पर ठठ लगे हुए थे। वहां मदन की हिट फ़िल्म चल रही थी। उसका जी चाहा ताँगे पर खड़ी हो कर दुपट्टा हवा में लहरा कर वही गीत गाने लगे जिसे लोग सुनने के लिए दस-दस मर्तबा जाते थे। मगर उसने टाल दिया। गाने की आवाज़ तो लता की थी। उसकी अपनी आवाज़ तो रात-भर की जगार से फटा बाँस हो रही थी।

करोड़ों के दिल की मल्लिका, ख़्वाबों की रानी के भरे शहर में सुनसान दिल लिए तन्हा वहशियों की तरह जब चक्कर काटते-काटते पैर शल हो गए तो वो कू-ए-जानाँ की तरफ़ चल दी। मगर वहां जाकर मा’लूम हुआ सारा ख़ानदान अमृतसर गया हुआ है। मंगनी की ख़बर सच्च ही निकली।
सर झाड़-झंकाड़, वो सीधी स्टेशन से मेरे यहां चढ़ दौड़ी। ना जाने कै दिन से न नहाई, ना दाँत मांझे। इतनी बद-सूरत फ़िल्मी हूर मैंने इससे पहले कभी ना देखी थी। मैंने मदन से बहुत कहा, “नहा डालो। कुछ खा लो।”

“अब तो उस सुंदर हराम-ज़ादे की भत्ती ही खाऊँगी। बताओ आपा, क्या करूँ? इस कमीने ने मुझे ख़राब किया और अब ब्याह रचा रहा है।”
“अब बनो मत। तुम पहले ही से ख़राब थीं,” मैंने जल कर कह दिया।
“आपा, तुम भी अब कह रही हो। तुम तो बड़ी रौशन ख़्याल हो।”
जी चाहा इसी के लहजे में कह दूं।
“रौशन ख़्याल की दुम भला इससे ज़्यादा रौशन ख़्याली और क्या कर सकती हूँ कि तुम्हारी इस ना-मुराद ज़िंदगी का इल्ज़ाम तुम्हारी महरूमियों और अमिट तन्हाई के सर थोप दूं? क्या मैं तुम्हारी बीती हुई ज़िंदगी के क़दम पलट कर नई राह पर डाल सकती हूँ? क्या ये ज़बरदस्ती हल्क़ में उतारा हुआ ज़हर जो तुम्हारी रगों में जज़्ब हो गया है। निचोड़ कर निथार सकती हूँ कि तुम अलग और ज़हर अलग? नहीं, ये ज़हर तो अब गिरिफ़्त से बाहर हो चुका है।”

“तुम नहीं जानतीं आपा,” उसने ठंडी सांस भर कर कहा। और मैंने सोचा। बे-शक में नहीं जान सकती। तुम जानती हो कि वो ज़िंदगी इन्सान को क्या बना देती है। जहां ना माँ का प्यार, ना बाप की शफ़्क़त, ना भाईयों के प्यार भरे घूँसे, ना बहनों की मीठी मीठी चुटकियां। तुम थूहड़ का पौदा हो। ना फूल ना फल।

सुंदर से मिलने की हर कोशिश नाकाम साबित हुई। जिन फिल्मों में वो काम कर रहे थे वो एक दूसरे की ग़ैर मौजूदगी में बनने लगीं।
एक दिन ना जाने कैसे सुंदर के फ़्लैट में घुस गई। वो पिछले दरवाज़े से निकल भागा। मारे ग़ुस्से के मदन दीवानी हो गई। उसने फाटक पर उसे गिरेबान से जा पकड़ा।
“ख़ून कर दूंगी हरामज़ादे,” वो गुर्राई। वो भीगी बिल्ली बना उस के साथ कमरे में चला आया।
“क्या चाहती हो,” उसने बजाय मारने पीटने के नर्मी से कहा। काश वो मारता पीटता तो ये ग़ैरत की दीवार टूट जाती, वो उसे मार कर समेट तो लेता। मगर नहीं, वो मारना भी अपनी हतक समझ रहा था।
“मुझे नौकर समझ कर रख लो। तुम्हारी माँ के पैर धोकर पियूँगी। सुंदर, उन्हें पलंग पर बिठाकर राज कराऊँगी। तुम्हारे नौकर कितना पैसा चुराते हैं। मैं तुम्हारी नौकर बन कर रहूंगी।

“मगर…” वो हकसाया। “सच्ची बात तो ये है भई, में शादी के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता।” मगर मदन समझ गई कि ऊंचे घराने का पूत एक बेसवा से बदतर औरत को कैसे ब्याह सकता है वो ख़ुद हज़ार औरतों के साथ रह कर भी कुँवारा है। उस कुँवारी से भी ज़्यादा पाक और मुक़द्दस जिसका कुंवार-पन किसी हादसे का शिकार हो गया।
मर्द सदा कुँवारा ही रहता है। सोने के कटोरे की तरह जिसमें कोई भी पानी पी ले तो गंदा नहीं होता। और मदन कच्चा सकोरा थी जो साये से भी नापाक हो जाता है।

मदन का ख़ून खौल सा गया। सारे ज़ख़्म ताज़ा हो कर छिल गए। पहले तो उसने निहायत फूलदार किस्म की मुग़ल्लिज़ात सुंदर के जनम-जनम को सुनाईं। फिर सारे घर की चीज़ें तोड़ डालीं, तेल की बोतल से आईने के परख़च्चे उड़ा दीए। अलमारी से गिलास और बर्तन निकाल कर छना-छन बजा दिए। नए सूट निकाल कर ब्लेड से धज्जियाँ उड़ा दीं, स्वेटर, मफ़लर मोज़े, बनियाइन दाँतों से खसोट डाले, सारे शीशे टेनिस के रैकेट से फोड़ डाले। नए क़ीमती जूतों की क़तार की चाक़ू से बोटियाँ उड़ा दीं, दीवारों से फ्रे़म उतार कर जूतों से कूटे। फिर सुंदर की मैली क़मीस में मुँह डाल कर रोने लगी।

सुंदर ख़ामोश सब कुछ देखता रहा। जब मदन ने मुँह से मैली क़मीस हटाई तो वो जा चुका था।
मदन ने फिर मेरे घर पर चढ़ाई की। घंटों मुझसे सुंदर को क़त्ल करने की तरकीबें पूछती रही। वो उसे चट से नहीं मारना चाहती थी। रंझा कर मारना चाहती थी कि सारी उम्र सिसके इसी तरह।

“ना-मर्द कर दूँ सूअर के बच्चे को?”
“मुझे ऐसी कोई तरकीब नहीं मा’लूम,” मैंने चिड़ कर कहा।
“उसकी आँखों में तेज़ाब डाल दूं। सारी उम्र को अंधा हो जाएगी।”
मगर ना सुंदर ना-मर्द हुआ ना अंधा, महीनेभर के अंदर वो कोमल सी बहू ब्याह लाया। अछूती, कुँवारी, जिसे फ़रिश्तों ने भी हाथ ना लगाया था, महीनों दुल्हन-दूल्हा की फ़िल्म इंडस्ट्री में दावतें होती रहीं।

अगर सदमे से मदन ख़ुदकुशी कर लेती या घुल-घुल कर मर जाती तो मेरी कहानी का कितने सलीक़े से ख़ात्मा होता और फिर मैं लिखते वक़्त ज़िल्लत महसूस ना करती। मगर वो पेंदे में सीसा लगे हुए खिलौने की तरह लोट-पोट कर खड़ी हो गई। ऐसी ही एक दावत में वो एक पस्त-क़द नए लड़के के साथ वही अपने अज़ली खुरदुरे क़ह-क़हे लगा रही थी। वो लतीफ़े छोड़ रहा था। मदन को अच्छे लग रहे थे और मुँह के निवाले वो पास खड़े होने वालों पर छिड़क रही थी। सुंदर भी इसी मेज़ पर अपनी शर्मीली दूल्हन को ख़स्ता समोसे खिला रहा था। मुझे देखते ही मदन ने मेरे कान में खुस-फुसाई।

“आपा क्या राय है। शादी करलूं?”
“किस से?” मैंने उकता कर पूछा।
“दर्शन से, मरता है हराम-ज़ादा। कहता है ज़हर खा लूंगा तुम्हारे लिए,” वो नई दुल्हन की तरह शरमाई।
“ज़रूर कर लो। नेक काम में देर कैसी?”

इस बात को कितने साल गुज़र गए। मगर उस वक़्त तक जब कि मैं ये आख़िरी सतरें लिख रही हूँ, मदन कुँवारी है, उसके सेहरे की कलियाँ मुँह-बंद हैं। चम्बोर में बंगला लेने का ख़्वाब शर्मिंदा-ए-ताबीर नहीं हुआ। वो ख़ूबसूरत सा बंगला जहां मदन बेगम बैठी हैं। बच्चे चारों तरफ़ से घेरे हुए हैं।
“अम्माँ खाना दो। अम्माँ खाना दो,” और वो उन्हें कफ़गीर से मार रही है। बच्चों का बाप मुस्कुरा रहा है।
“मारती क्यों हो बेगम, बच्चे हैं।”

कुंवारी हिंदी कहानी, Kunwari Hindi Kahani, इस्मत चुग़ताई की कहानी कुंवारी, Ismat Chughtai Ki Kahani Kunwari, कुंवारी हिंदी स्टोरी, कुंवारी इस्मत चुग़ताई, Kunwari Story, Kunwari Ismat Chughtai Hindi Story, Kunwari By Ismat Chughtai, कुंवारी कहानी, Kunwari Kahani

ये भी पढ़े –

बेवकूफ शेर की कहानी, लायन स्टोरी, लायन की कहानी, शेर की कहानी इन हिंदी, Lion Story in Hindi, Sher Ki Kahani, Lion Story for Kids in Hindi, Lion Ki Kahani

घमंडी गुलाब, Ghamandi Gulab, घमंडी गुलाब की कहानी, Ghamandi Gulab Ki Kahani, the Proud Rose Story in Hindi, गुलाब का घमंड, Gulab Ka Ghamand

गड़ा खजाना, Gada Khajana, Gada Dhan Story in Hindi, the Hidden Treasure Story in Hindi, एक बूढ़ा किसान और उसके तीन बेटे, खेत का खजाना

हिंदी कहानी गरीब आदमी और अमीर आदमी, Ameer Aadmi Aur Gareeb Aadmi, Hindi Short Story Poor Man and Rich Man, Rich and Poor Story in Hindi, Rich and Poor

जिंकोविट टैबलेट, Zincovit Tablet Uses in Hindi, ज़िन्कोविट सिरप, Zincovit Syrup Uses in Hindi, जिंकोविट टैबलेट के फायदे

आंख क्यों फड़कती है, आंख का फड़कना कैसे रोके, आंख का फड़कना शुभ होता है या अशुभ, Left Eye Fadakna, Dayi Aankh Phadakna for Female in Hindi

मोटापा कम करने के लिए डाइट चार्ट, वजन घटाने के लिए डाइट चार्ट, बाबा रामदेव वेट लॉस डाइट चार्ट इन हिंदी, वेट लॉस डाइट चार्ट

ज्यादा नींद आने के कारण और उपाय, Jyada Nind Kyon Aati Hai, Jyada Neend Aane Ka Karan, ज्यादा नींद आने की वजह, Jyada Neend Aane Ka Reason

बच्चों के नये नाम की लिस्ट , बेबी नाम लिस्ट, बच्चों के नाम की लिस्ट, हिंदी नाम लिस्ट, बच्चों के प्रभावशाली नाम , हिन्दू बेबी नाम, हिन्दू नाम लिस्ट, नई लेटेस्ट नाम