Behrupiya by Ghulam Abbas

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ग़ुलाम अब्बास की कहानी बहरूपिया, Ghulam Abbas Ki Kahani Behrupiya
Behrupiya by Ghulam Abbas- ये उस ज़माने की बात है जब मेरी उम्र बस कोई तेरह चौदह बरस की थी। हम जिस मुहल्ले में रहते थे वो शहर के एक बारौनक़ बाज़ार के पिछवाड़े वाक़ा था। उस जगह ज़्यादातर दरमियाने तबक़े के लोग या ग़रीब गुरबा- ही आबाद थे। अलबत्ता एक पुरानी हवेली वहां ऐसी थी जिसमें अगले वक़्तों की निशानी कोई साहिबज़ादा साहिब रहा करते थे, उनके ठाठ तो कुछ ऐसे अमीराना न थे मगर अपने नाम के साथ ‘रईस आज़म’ लिखना शायद वो अपना फ़र्ज़-ए-मंसबी समझते थे। अधेड़ उम्र भारी भरकम आदमी थे। घर से बाहर ज़रा कम ही क़दम निकालते, हाँ हर-रोज़ तीसरे पहर हवेली के अहाते में अपने अहबाब के झुरमुट में बैठ कर गप्पें लड़ाना और ज़ोर ज़ोर से क़हक़हे लगाना उनका दिल पसंद मशग़ला था।

उनके नाम की वजह से अक्सर हाजतमंद, यतीम ख़ानों के एजेंट और तरह तरह के चंदा उगाहने वाले उनके दरवाज़े पर सवाली बन कर आया करते। इलावा अज़ीं जादू के प्रोफ़ेसर, रुमाल, नजूमी, नक़्क़ाल, भाट और इसी क़ुमाश के दूसरे लोग भी अपना हुनर दिखाने और इनाम इकराम पाने की तवक़्क़ो में आए दिन उनकी हवेली में हाज़िरी दिया करते।

जिस ज़माने का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ, एक बहरूपिया भी तरह तरह के रूप भर कर उनकी हवेली में आया करता, कभी ख़ाकी कोट पतलून पहने, चमड़े का थैला गले में डाले, छोटे छोटे शीशों और नर्म कमानियों वाली ऐनक आँखों पर लगाए चिट्ठी रसां बना हर एक से बैरंग ख़त के दाम वसूल कर रहा है। कभी जटाधारी साधू है, लँगोट कसा हुआ, जिस्म पर भबूत रमाई हुई, हाथ में लंबा सा चिमटा, सुर्ख़ सुर्ख़ आँखें निकाल निकाल ‘बम महादेव’ का नारा लगा रहा है। कभी भंगन के रूप में है जो सुर्ख़ लहंगा पहने, कमर पर टोकरा, हाथ में झाड़ू लिये झूट-मूट पड़ोसनों से लड़ती, भिड़ती आप ही आप बकती झकती चली आरही है।

मेरे हम सबकों में एक लड़का था मदन। उम्र में तो वो मुझसे एक-आध बरस छोटा ही था मगर क़द मुझसे निकलता हुआ था, ख़ुश शक्ल भोला भाला मगर साथ ही बच्चों की तरह बला का ज़िद्दी। हम दोनों ग़रीब माँ-बाप के बेटे थे। दोनों में गहरी दोस्ती थी। स्कूल के बाद कभी वो मेरे मुहल्ले में खेलने आजाता, कभी मैं उस के हाँ चला जाता।

एक दिन सह पहर को मैं और मदन साहिबज़ादा साहिब की हवेली के बाहर सड़क पर गेंद से खेल रहे थे कि हमें एक अजीब सी वज़ा का बूढ़ा आदमी आता दिखाई दिया। उसने महाजनों के अंदाज़ में धोती बांध रखी थी, माथे पर सिंदूर का टीका था। कानों में सुनहरी बाले, बग़ल में एक लंबी सी सुर्ख़ बही दाब रखी थी। ये शख़्स हवेली के फाटक पर पहुंच कर पल भर को रुका, फिर अंदर दाख़िल हो गया।

मैं फ़ौरन जान गया, ये हज़रत सिवाए बहरुपिये के और कौन हो सकते थे। मगर मदन ज़रा ठिटका। उसने बहरुपिये को पहले कभी नहीं देखा था।
मैंने ज़रा छेड़ने को पूछा:
“मदन जानते हो, अभी अभी इस हवेली में कौन गया है?”
“हाँ, क्यों नहीं।”
“भला बताओ तो?”
“कोई महाजन था।”
“यहां क्यों आया?”
“मैं क्या जानूं। तुम्हारे इस रईस आज़म ने कुछ क़र्ज़ वर्ज़ लिया होगा उस से।”
“अरे नहीं पगले, ये तो बहरूपिया है बहरूपिया!”
“बहरूपिया?” मदन ने कुछ हैरानी ज़ाहिर करते हुए कहा, “बहरूपिया क्या होता है?”
“अरे तुम नहीं जानते। ये लोग तरह तरह के रूप भर कर अमीर उमरा को अपना कमाल दिखाते हैं और उनसे इनाम लेते हैं।”
“तो क्या ये शख़्स हर-रोज़ आता है?”
“नहीं, हफ़्ते में बस दो एक ही बार। रोज़ रोज़ आए तो लोग पहचान जाएं। बहरूपियों का कमाल तो बस इसी में है कि ऐसा स्वाँग रचाएं कि लोग धोका खा जाएं और सच समझने लगें। यही वजह है कि वो लोग किसी शहर में दो तीन महीने से ज़्यादा नहीं टिकते।”

“क्या उनको हर दफ़ा इनाम मिलता है?”
“नहीं तो। ये जब पंद्रह बीस मर्तबा रूप भर चुकते हैं तो आख़िरी बार सलाम करने आते हैं, बस यही वक़्त इनाम लेने का होता है।”
“भला कितना इनाम मिलता होगा उन्हें?”
“कुछ ज़्यादा नहीं, कहीं से एक रुपया कहीं से दो रुपये और कहीं से कुछ भी नहीं। ये रईस आज़म साहिब अगर पाँच रुपये भी दे दें तो बहुत ग़नीमत जानो। बात ये है कि आजकल इस फ़न की कुछ क़दर नहीं रही। अगले वक़्तों के अमीर लोग तो इस क़िस्म के पेशे वालों को इतना इतना इनाम दे दिया करते थे कि उन्हें महीनों रोज़ी की फ़िक्र न रहती थी। मगर आजकल तो ये बेचारे भूकों मर रहे होंगे और…”

मैं कुछ और कहने ही को था कि इतने में वही बहरूपिया महाजन बना हुआ हवेली के फाटक से निकला। मदन जो किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था, उसे देखकर चौंक पड़ा। बहरूपिया हमारी तरफ़ देखकर मुस्कुराया और फिर बाज़ार की तरफ़ चल दिया।
बहरूपिये का पीठ मोड़ना था कि मदन ने अचानक मेरा हाथ ज़ोर से थाम लिया और धीमी आवाज़ में कहने लगा:
“असलम आओ इस बहरूपिये का पीछा करें और देखें कि वो कहाँ रहता है, इसका घर कैसा है। इसका कोई न कोई मेक-अप रुम तो होगा ही, शायद इस तक हमारी रसाई हो जाये, फिर मैं ये भी देखना चाहता हूँ कि वो अपनी असली सूरत में क्या लगता है।”
“मदन दीवाने न बनो।” मैंने कहा, “न जाने उसका ठिकाना किधर है। हम कहाँ मारे मारे फिरेंगे। न जाने अभी उसको और किन किन घरों में जाना है।”
मगर मदन ने एक न सुनी। वो मुझे खींचता हुआ ले चला। मैं पहले कह चुका हूँ कि उसके मिज़ाज में तिफ़लाना ज़िद थी। ऐसे लोगों के सर पर जब कोई धुन सवार हो जाये तो जब तक उसे पूरा न कर लें न ख़ुद चैन से बैठते हैं न दूसरों को चैन लेने देते हैं। नाचार मैं उसकी दोस्ती की ख़ातिर उसके साथ हो लिया।

ये गर्मियों की एक शाम थी, कोई छः का अमल होगा, अंधेरा होने में अभी कम से कम डेढ़ घंटा बाक़ी था। मैं दिल ही दिल में हिसाब लगाने लगा। हमारा इलाक़ा शहर के ऐन वस्त में है। यहां पहुंचते पहुंचते अगर बहरुपिये ने आधे शहर का अहाता भी कर लिया हो तो अभी आधा शहर बाक़ी है जहां उसे अपने फ़न की नुमाइश के लिए जाना ज़रूरी है। चुनांचे अगर ज़्यादा नहीं तो दो घंटे तो ज़रूर ही हमें उसके पीछे पीछे चलना पड़ेगा।

वो तेज़ तेज़-क़दम उठाता हुआ एक से दूसरे बाज़ार में गुज़रता जा रहा था। रास्ते में जब कभी कोई बड़ी हवेली या किसी मकान का दीवानख़ाना नज़र आता तो वो बिला तकल्लुफ़ अंदर दाख़िल हो जाता और हमें दो तीन मिनट बाहर उसका इंतिज़ार करना पड़ता। बा’ज़ बड़ी बड़ी दुकानों में भी उसने हाज़िरी दी मगर वहां वो एक आधे मिनट से ज़्यादा न रुका।

शफ़क़ की कुछ-कुछ सुर्ख़ी अभी आसमान पर बाक़ी थी कि इन हाज़रियों का सिलसिला ख़त्म हो गया क्योंकि बहरूपिया अब शहर के दरवाज़े से बाहर निकल आया था और फ़सील के साथ साथ चलने लगा था।
हमने अब तक बड़ी कामयाबी से अपने को उसकी नज़रों से ओझल रखा था। उसमें बाज़ारों की रेल-पेल से हमें बड़ी मदद मिली थी मगर अब हम एक ग़ैर-आबाद इलाक़े में थे जहां इक्का दुक्का आदमी ही चल फिर रहे थे। चुनांचे हमें क़दम क़दम पर ये धड़का था कि कहीं अचानक वो गर्दन फेर कर हमें देख न ले। बहरहाल हम इंतिहाई एहतियात के साथ और उससे ख़ासी दूर रह कर उसका तआक़ुब करते रहे।

हमें ज़्यादा चलना न पड़ा। जल्द ही हम एक ऐसे इलाक़े में पहुंच गए जहां फ़सील के साथ साथ ख़ानाबदोशों और ग़रीब ग़ुरबा ने फूंस के झोंपड़े डाल रखे थे। उस वक़्त उनमें से कई झोंपड़ों में चिराग़ जल रहे थे। बहरूपिया उन झोंपड़ों के सामने से गुज़रता हुआ आख़िरी झोंपड़े के पास पहुंचा जो ज़रा अलग-थलग था। उसके दरवाज़े पर टाट का पर्दा पड़ा हुआ था। झोंपड़े के बाहर एक नन्ही सी लड़की जिसकी उम्र कोई तीन बरस होगी और एक पाँच बरस का लड़का ज़मीन पर बैठे कंकरियों से खेल रहे थे। जैसे ही उन्होंने बहरुपिये को देखा, वो ख़ुशी से चिल्लाने लगे: “अब्बा जी आगए! अब्बा जी आगए!” और वो उसकी टांगों से लिपट गए। बहरुपिये ने उनके सरों पर शफ़क़त से हाथ फेरा , फिर वो टाट का पर्दा सरका कर बच्चों समेत झोंपड़े में दाख़िल हो गया। मैंने मदन की तरफ़ देखा ।

“कहो अब क्या कहते हो?”
“ज़रा रुके रहो। वो अभी महाजन का लिबास उतार कर अपने असली रूप में बाहर निकलेगा। इतनी गर्मी में इससे झोंपड़े के अंदर कहाँ बैठा जाएगा।”
हमने कोई पंद्रह बीस मिनट इंतिज़ार क्या होगा कि टाट का पर्दा फिर सरका और एक नौजवान आदमी मलमल की धोती कुर्ता पहने पट्टियाँ जमाए, सर पर दू पल्ली टोपी एक ख़ास अंदाज़ से टेढ़ी रखे झोंपड़े से बाहर निकला, बूढ़े महाजन की सफ़ेद मूँछें ग़ायब थीं और उनकी बजाय छोटी छोटी स्याह आँखें उसके चेहरे पर जे़ब दे रही थीं।

“ये वही है।” यक-बारगी मदन चिल्ला उठा। वही क़द, वही डीलडौल।
और जब हम उसके पीछे पीछे चल रहे थे तो उसकी चाल भी वैसी ही थी जैसी महाजन का पीछा करने में हमने मुशाहिदा की थी। मैं और मदन हैरत से एक दूसरे का मुँह तकने लगे। अब के उसने ये कैसा रूप भरा? इस वक़्त वो किन लोगों को अपने बहरूप का कमाल दिखाने जा रहा है?

वो शख़्स कुछ दूर फ़सील के साथ साथ चलता रहा, फिर एक गली में होता हुआ दुबारा शहर के अंदर पहुंच गया। हम बदस्तूर उसके पीछे लगे रहे। वो बाज़ार में चलते चलते एक पनवाड़ी की दुकान पर रुक गया। हम समझे कि शायद पान खाने रुका है मगर न तो उसने जेब से पैसे निकाले और न पनवाड़ी ने उसे पान ही बना के दिया, अलबत्ता उन दोनों में कुछ बातचीत हुई जिसे हम नहीं सुन सके। फिर हमने देखा कि पनवाड़ी दुकान से उतर आया और बहरूपिया उसकी जगह गद्दी पर बैठ गया।

पनवाड़ी के जाने के बाद उस दुकान पर कई गाहक आए जिनको उसने सिगरेट की डिबियां और पान बना बना कर दिए। वो पान बड़ी चाबुकदस्ती से बनाता था जैसे ये भी कोई फ़न हो।
हम कोई आधे घंटे तक बाज़ार के नुक्कड़ पर खड़े ये तमाशा देखते रहे, उसके बाद एक दम हमें सख़्त भूक लगने लगी और हम वहां से अपने अपने घरों को चले आए।
अगले रोज़ इतवार की छुट्टी थी। मैंने सोचा था कि सुबह आठ नौ बजे तक सो कर कल की तकान उतारुंगा मगर अभी नूर का तड़का ही था कि किसी ने मेरा नाम ले-ले कर पुकारना और दरवाज़ा खटखटाना शुरू कर दिया। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। नीचे गली में झांक कर देखा तो मदन था।

मैं पेच-ओ-ताब खाता सीढ़ियों से उतरा।
“असलम जल्दी से तैयार हो जाओ।” उसने मुझे देखते ही कहा।
“क्यों क्या बात है?”
“जल्दी करो, कहीं बहरूपिया सुबह ही सुबह घर से न चल दे।”
और उसने मुझे ऐसी इल्तिजा भरी नज़रों से देखा कि मेरा दिल फ़ौरन पसिज गया।
जब हम कभी दौड़ते, कभी तेज़ तेज़-क़दम उठाते फ़सील की तरफ़ जा रहे थे तो मदन ने मुझे बताया कि रात-भर वो बहरुपिये को ख़्वाब में तरह तरह के रूप में देखता रहा, फिर सुबह को चार बजे के क़रीब आप ही आप उसकी आँख खुल गई और इसके बाद फिर उसे नींद न आई।

अभी सूरज निकलने नहीं पाया था कि हम बहरुपिये के झोंपड़े के पास पहुंच गए। पिछली रात हमने अंधेरे में उस इलाक़े का सही जायज़ा न ले सके थे मगर अब दिन की रोशनी में हमें उन झोंपड़ों के मकीनों की ग़ुर्बत और ख़स्ता-हाली का बख़ूबी अंदाज़ा हो गया। बहरुपिये के झोंपड़े पर टाट का जो पर्दा पड़ा था उसमें कई पैवंद लगे थे।

हम दो तीन बार उसके झोंपड़े के सामने से गुज़रे। हर बार हमें अंदर से बच्चों की आवाज़ें, दो एक निस्वानी आवाज़ों के साथ मिली हुई सुनाई दीं, आख़िर कोई दस मिनट के बाद एक शख़्स बोसीदा सा तहमद बाँधे, बनियान पहने, एक हाथ में गड़वी थामे झोंपड़े से बरामद हुआ। उसकी दाढ़ी मूंछ साफ़ थी। साँवला रंग, उसको देखकर उसकी उम्र का सही अंदाज़ा करना मुश्किल था।

वो शख़्स आगे आगे और हम उसके पीछे पीछे कुछ दूर फ़सील के साथ साथ चले। आगे एक बाड़ा आया जिसमें कुछ गाएँ, भैंसें खूँटों से बंधी हुई थीं, वो शख़्स उस बाड़े के अंदर चला गया और मैं और मदन बाहर ही उसकी नज़रों से ओझल एक तरफ़ खड़े हो गए जहां से हम उसकी हरकात-ओ-सकनात को बख़ूबी देख सकते थे। उसने एक भैंस को पुचकारा, फिर वो ज़मीन पर बैठ कर उसके थनों को सहलाने लगा, उस को देखकर एक बूढ्ढा जो भैंसों के पास एक चारपाई पर बैठा हुक़्क़ा पी रहा था और एक बड़ी सी बाल्टी ले आया। अब उस शख़्स ने भैंस को दूहना शुरू किया। हम अगरचे उससे कुछ दूर खड़े थे मगर दूध की धारों की आवाज़ धीमी धीमी सुन सकते थे।

जब वो एक भैंस को दूह चुका तो दूसरी की तरफ़ गया, फिर तीसरी की तरफ़, उसके बाद गायों की बारी आई। उसने दो तीन गायों को भी दूहा, जिनके दूध के लिए बुड्ढे ने एक और बाल्टी लाकर रख दी थी।
इस काम में कोई एक घंटा सर्फ़ हुआ। बुड्ढे ने उसकी गड़वी को दूध से भर दिया जिसे लेकर वो बाड़े से निकल आया। हम पहले ही वहां से खिसक लिए थे जब वो ज़रा दूर चला गया तो मैंने मदन को छेड़ने के लिए कहा:
“लो, अब तो हक़ीक़त खुल गई तुम पर। चलो अब घर चलें। नाहक़ तुमने मेरी नींद ख़राब की।”
“मगर भयया वह बहरूपिया कहाँ था। वो तो ग्वाला था ग्वाला। आओ थोड़ी देर और इसका पीछा करें।”
मैंने मदन से ज़्यादा हील व हुज्जत करना मुनासिब न समझा। हम कुछ देर इधर उधर टहलते रहे हमने उसका ठिकाना तो देख ही लिया था अब वो हमारी निगाहों से कहाँ छुप सकता था।

जब हमें उसके झोंपड़े के आस-पास घूमते आधा घंटा हो गया तो हमें एक ताँगा फ़सील के साथ वाली सड़क पर तेज़ी से उधर आता हुआ दिखाई दिया। ये ताँगा बहरुपिये के झोंपड़े के क़रीब पहुंच कर रुक गया। उसमें कोई सवारी न थी, जो शख़्स ताँगा चला रहा था उसने ताँगे की घंटी पांव से दबा कर बजाई। उसकी आवाज़ सुनते ही एक आदमी झोंपड़े से निकला, उसने कोचवान का सा ख़ाकी लिबास पहन रखा था। उसको देखकर ताँगे वाला ताँगे से उतर पड़ा और ये शख़्स ताँगे में आ बैठा और रासें थाम घोड़े को बड़ी महारत से हाँकने लगा। जैसे ही ताँगा चला पहले शख़्स ने पुकार कर कहा,

“ताँगा ठीक दो बजे अड्डे पर ले आना।”
दूसरे शख़्स ने गर्दन हिलाई। उसके बाद हमारे देखते ही देखते वो ताँगा नज़रों से ओझल हो गया।
मैं और मदन ये माजरा देखकर ऐसे हैरान रह गए कि कुछ देर तक हमारी ज़बान से एक लफ़्ज़ तक न निकला। आख़िर मदन ने सुकूत को तोड़ा।
“चलो ये तो मालूम हो ही गया कि ये शख़्स दो बजे तक क्या करेगा। इतनी देर तक हमें भी छुट्टी हो गई। अब हमें ढाई तीन बजे तक यहां पहुंच जाना चाहिए।”

मैंने कुछ जवाब न दिया। सच ये है कि उस बहरुपिये के मुआमले से अब ख़ुद मुझे भी बहुत दिलचस्पी पैदा हो गई थी और मैं इसकी असलियत जानने के लिए इतना ही बेताब हो गया था जितना कि मदन।
हम लोग खाने पीने से फ़ारिग़ हो कर तीन बजे से पहले ही फिर बहरुपिये के झोंपड़े के आस-पास घूमने लगे। झोंपड़े के अंदर से बच्चों और औरतों की आवाज़ों के साथ साथ कभी कभी किसी मर्द की आवाज़ भी सुनाई दे जाती थी। इस से हमने अंदाज़ा कर लिया कि बहरूपिया घर वापस पहुंच गया है।

हमें ज़्यादा देर इंतिज़ार न करना पड़ा और अब के बहरूपिया एक और ही धज से बाहर निकला। उसने स्याह चुग़ा पहन रखा था। सिर पर काली पगड़ी जो बड़ी ख़ुश-उस्लूबी से बाँधी गई थी। गले में रंग-बिरंगी तस्बीहें, तुरशी हुई स्याह दाढ़ी, शानों पर ज़ुल्फ़ें बिखरी हुई। उसने बग़ल में लकड़ी की एक स्याह संदूकची दाब रखी थी, मालूम होता था कि आज उसने एक सूफ़ी-दरवेश का स्वाँग भरा है। मगर अभी कल ही तो वो महाजन के रूप में शहर का दौरा कर चुका था और कोई नया रूप भरने के लिए उसे दो-तीन दिन का वक़फ़ा दरकार था, फिर आज किस लिए उसने ये वज़ा बनाई है? इस सवाल का हमारे पास कोई जवाब न था। चुनांचे हम चुपके चुपके उसके पीछे पीछे चलते रहे, वो शख़्स जल्द जल्द क़दम उठाता हुआ शहर में दाख़िल हो गया। वो कई बाज़ारों में से गुज़रा मगर ख़िलाफ़ मामूल वो किसी हवेली या दुकान पर नहीं रुका। मालूम होता था आज उसे अपने फ़न का मुज़ाहरा करने और दाद पाने का कुछ ख़याल नहीं है।

थोड़ी देर में हम जामा मस्जिद के पास पहुंच गए जो शहर के बीचों बीच वाक़ा थी और जिसके आस-पास हर रोज़ तीसरे पहर बाज़ार लगा करता था और इतवार को तो वहां बहुत ही चहल पहल रहा करती थी, मेला सा लग जाता था। फेरी वाले हाँक लगा लगा के तरह तरह की चीज़ें बेचते थे, बच्चों के सिले सिलाये कपड़े, चुनरियां, टोपियां, कंघियाँ, चटले इज़ारबंद, इत्र फुलेल, अगरबत्ती, खटमल मारने का पोडर, मिठाईयां, चाट, इलावा अज़ीं तावीज़ गंडे वाले, जड़ी बूटी वाले और ऐसे ही और पेशे वाले अपनी अनोखी वज़ा और अपनी मख़सूस सदा से उस बाज़ार की रौनक़ बढ़ाते थे।

हमारा बहरूपिया भी ख़ामोशी से उन लोगों में आकर शामिल हो गया। उसने अपनी स्याह संदूकची खोल कर दोनों हाथों में थाम ली। उस संदूकची में बहुत सी छोटी छोटी शीशियां क़रीने से रखी थीं। उसने कुछ शीशियां संदूकची के ढकने पर भी जमा दीं, फिर बड़े गंभीर लहजे में सदा लगानी शुरू की :

“आपकी आँखों में धुंद हो, लाली हो, ख़ारिश हो, कुकरे हों, बीनाई कमज़ोर हो, पानी ढलकता हो, रात को नज़र न आता हो तो मेरा बनाया हुआ ख़ास सुर्मा ‘नैन-सुख’ इस्तिमाल कीजिए।
इसका नुस्ख़ा मुझे मक्का शरीफ़ में एक दरवेश बुज़ुर्ग से दस्तयाब हुआ था। ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ के ख़याल से क़ीमत बहुत ही कम रखी गई है। यानी सिर्फ़ चार आने फ़ी शीशी।

ये सुर्मा इस्म-ब-मुसम्मा है। इसके लगाते ही आँखों में ठंडक पड़ जाती है। आइए एक सलाई लगवा कर आज़माइश कर लीजिए। इसके कुछ दाम नहीं ।
सुर्मा-ए-मुफ़्त नज़र हों मेरी क़ीमत ये है
कि रहे चश्म-ए-ख़रीदार पे एहसाँ मेरा
मैं और मदन हैरत-ज़दा हो कर बहरुपिये को देखने लगे। हमें अपनी आँखों पर यक़ीन न आता था मगर उसने सच-मुच सुर्मा फ़रोशी शुरू कर दी थी। दो तीन आदमी उसके पास आ खड़े हुए और उससे बारी बारी आँखों में सुर्मे की सुलाई लगवाने लगे।
हम जल्द ही वहां से रुख़्सत हो गए। हमने बहरुपिये को उसके असल रूप में देखने का ख़याल छोड़ दिया।

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