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इस्मत चुग़ताई की कहानी सास, Ismat Chughtai Ki Kahani Saas
सूरज कुछ ऐसे ज़ावीये पर पहुंच गया कि मालूम होता था कि छः सात सूरज हैं जो ताक-ताक कर बुढ़िया के घर में ही गर्मी और रोशनी पहुंचाने पर तुले हुए हैं। तीन दफ़ा खटोली धूप के रुख से घसीटी ,और ए लो वो फिर पैरों पर धूप और जो ज़रा ऊँघने की कोशिश की तो धमा-धम और ठट्टों की आवाज़ छत पर से आई।
“ख़ुदा ग़ारत करे प्यारों पीटी को…” सास ने बे हया बहू को कोसा,जो महल्ले के छोकरों के संग छत पर आँख-मिचोली और कब्बडी अड़ा रही है।
दुनिया में ऐसी बहुएं हों तो कोई काहे को जिए… ए लो दोपहर हुई और लाडो चढ़ गईं कोठे पर, ज़रा-ज़रा से छोकरे और छोकरियों का दिल आन पहुंचा फिर क्या मजाल है जो कोई आँख झपका सके।
“बहू… क़…” बुढ़िया ने बलग़म भरे हल्क़ को खड़-खड़ा कर कहा… “अरी ओ… बहू!”
“जी आई…” बहू ने बहुत सी आवाज़ों के जवाब में कहा और फिर वही धमा-धम जैसे खोपड़ी पर भूत नाच रहे हों…”
“अरे तू आ चुक… ख़ुदा समझे तुझे…” और धम-धम छन-छन करती बहू सीढ़ियों पर से उतरी और उसके पीछे कुत्तों की टोली। नंगे ,आधे नंगे, चेचक मुँह दाग़। नाकें सुड़-सुड़ाते कोई पौन दर्जन बच्चे खी-खी… खों-खों, खी-खी। सब के सब खंबों की आड़ में शरमा शरमा कर हँसने लगे।
“इलाही… या तो इन हरामी पिल्लों को मौत दे दे या मेरी मिट्टी अज़ीज़ कर ले, ना जाने ये उठाई-गीर कहाँ से मरने को आ-जाते हैं… छोड़ दिए हैं जन-जन के हमारी छाती पर मूंग दलने को…” और ना जाने क्या-क्या… पर बच्चे मुस्कुरा-मुस्करा कर एक दूसरे को घूँसे दिखाते रहे।
“मैं कहती हूँ तुम्हारे घरों में क्या आग लग गई है… जो…”
“वाह… तुम तो मर गई थीं…” बहू ने बशरिया के कोहनी का टहोका देकर कहा।
बुढ़िया जुमले को अपनी तरफ़ मुख़ातिब समझ कर तिलमिला उठी।
“झाड़ू फेरूं तेरी सूरत पर मरें तेरे होसे सोते, तेरे…”
“माँ… हम तुम्हें कब कह रहे थे…” बहू ने लाड से ठनक कर कहा।
मगर बुढ़िया कोसे गई और बच्चों को तो ऐसा आड़े हाथों लिया कि बेचारों को मुँह चिढ़ाते भागते ही बनी और बहू फसकुड़ा मार कर बैठ गई।
“दुनिया जहाँ में किसी की बहू बेटियाँ यूं लौंडों के साथ कड-कडे लगाती होंगी। दिन है तो लोंढियारा, रात है तो…” सास तो ज़िंदगी से तंग थी।
“गुन-गुन… गुन-गुन…” बहू मिन-मिनाई। और तोते के पिंजरे में पंखे में से तिनके निकाल-निकाल कर डालने लगी “टें, टें…” तोता चिंघाड़ा।
“ख़ाक पड़े अब ये तोते को क्यों खाए लेती है,” सास गुर्राई।
“तो ये बोलता क्यों नहीं…” बहू ने जवाब दिया।
“तेरी बला से नहीं बोलता… तेरे बाप का खाता है…” सास ने पहलू बदल कर कहा।
“हम तो उसे बुलाएँगे।” बहू ने इठला कर तोते के पंजे में तिनका कौंच कर कहा।
“आएं … आएं… मैं कहती हूँ तेरा पता ही पिघल गया है। अब हटती है वहां से कि लगाऊँ…” बढ़िया ने धमकी आमेज़ पहलू बदल कर कहा और जब बहू ने और सिंगाया तो कठाली की शक्ल की जूती उठाकर ऐसी ताक कर मारी कि वो घड़ौंची के नीचे सोए हुए कुत्ते के लगी। जो बिल-बिला कर भागा। और बहू खिल-खला कर हँसने लगी। बुढ़िया ने दूसरी जूती संभाली और बहू खम्बे की आड़ में।
“आने दे असग़र के बच्चे को…”
“बच्चा…” बहू को बच्चे के नाम पर बजाये शरमाने के हंसी दबाना पड़ी।
“थू है तेरे जन्म पर… ए और क्या… बच्चा भी आज को हो जाता जो कोई भागवान आई, जिस दिन से क़दम धरा घर का घरवा हो गया।” बहू और मुस्कुराई और तोते का पिंजरा झकोल डाला।
“मैं कहती हूँ ये तोते की जान को क्यों आ गई है।”
“तो ये बोलता क्यों नहीं… हम तो उसे बुलाएँगे।”
बुढ़िया जल कर कोयला हो गई… “यही ढंग रहे तो अल्लाह जानता है कि दूसरी ना लाऊँ तो नाम नहीं…”
धूप ढल कर घड़ौंची और वहां से कंडेली पर पहुंची।
सास बड़-बड़ाती रही… “मुए नफ़क़ते बेटी को क्या जहेज़ दिया था। ए वाह क़ुर्बान जाईए… खोली कड़े और मुलम्मा की बालियां और…”
“तो हम क्या करें…” बहू फूहड़ पने से बड़-बड़ाई और खटोली पर पसर कर लेट गई।
“और वो एलूमूनियम के…” जमाई लेकर बुढ़िया ने पिटारी पर सर रखकर ज़रा टांगें फैलाकर कहा। और फिर सोने से पहले वो समधनों के घुटनों पर से घुसे हुए गुल-बदन के पाजामों, फीके ज़र्दे और घुने हुए पाइयों वाले जहेज़ के पलंग का ज़िक्र करती रही मगर बे-हया बहू आधी खटोली और आधी ज़मीन पर लटक कर सो भी गई।
बुढ़िया की बड़-बड़ाहट में भी ख़र्राटों में ना जाने कब बदल गई।
असग़र ने छतरी को खम्बे से लगाकर खड़ा किया और कत्थई बिछौने वाली नीली वास्केट को उतार कर कुरते से पसीने के आबशार पोंछते हुए लॉन में क़दम रखा। पहले बड़ी एहतियात से एक शरीर बच्चे की तरह रूठ कर सोई हुई बुढ़िया पर नज़र डाली और फिर बहू पर, आमों और ख़रबूज़ों की पोटली को ज़मीन पर रखकर कुछ सर खुजाया और झुक कर बहू की बाँह भींच दी।
“ओं…” बहू त्योरियाँ चढ़ाकर एंठी और उसका हाथ झटक कर मुड़कर सो गई।
असग़र ने पोटली उठाई। जेब में नई चूड़ियों की पुड़िया टटोलता हुआ कोठरी में चला गया। बहू ने होशियार बिल्ली की तरह सर उचका कर बुढ़िया को देखा और दुपट्टा ओढ़ती झपाक से कोठरी में लुड़क गई। पसीने के शर्राटे चल निकले, मक्खियाँ आमों के छिलकों और कूड़े से नीयत भर के मुँह का मज़ा बदलने बुढ़िया के ऊपर रेंगने लगीं, दो-चार ने बाझों में बनी हुई पीक को चखना शुरू किया, दो-चार आँखों के कोने में तुंदही से घुसने लगीं…
कोठरी में से एक गड़-गड़ाती हुई भारी आवाज़ और दूसरी चन-चनाहट ऊँ… ऊँ… सुनाई देती रही, साथ-साथ ख़रबूज़ों के छिलकों और आमों के चचोड़ने की चपड़-चपड़ आवाज़ सुकून को तोड़ती रही।
मक्खियों की चुहलों से दुखी हो कर आख़िर बुढ़िया फड़-फड़ा ही उठी, ये मक्खी ज़ात जी के साथ लगी थी। पैदा होते ही घुट्टी की चिप-चिपाहट सूंघ कर जो मक्खियाँ मुँह पर बैठना शुरू हुईं तो क्या सोते क्या जागते बस आँख नाक और होंटों की तरह ये भी जिस्म का एक उज़्व बन कर साथ ही रहती थीं और मक्खी तो ना जाने साल-हा-साल से उसकी दुश्मन हो गई थी। जब लखनऊ में थी जब काटा, फिर जब उन्नाव गई तो बरसात में फिर काटा… ओलो संदीला में भी पीछा ना छोड़ा, अगर बुढ़िया को मा’लूम होता कि उसे उसके जिस्म के कौन से मख़सूस हिस्से से उन्स है। तो वो ज़रूर वो हिस्सा काट कर मक्खियों को दे देती मगर वो तो हर हिस्से पर टहलती थीं, वो कभी कभी ग़ौर से अपनी ख़ास कनखी मक्खी को देखती। वही चितले पर, टेढ़ी टांगें और मोटा सा सर। वो बड़े ताक कर पंखे का झपाका मारती… मक्खी तनन नन कर के रह गई…
आह माबूद… उसे कितना अरमान था कि वो कभी तो इस मक्खी को मार सके, लंगड़ा ही कर दे ,उसका बाज़ू मरोड़ कर मुर्ग़ी की तरह मरोड़ कर गड्डी बांध कर डाल दे और मज़े से पानदान के ढक्कन पर रखकर तड़पता देखे मगर ख़ुदा तो शायद इस मक्खी से भी शैतान की तरह क़ौल हारे बैठा था। कि बस सताए जाये उसकी एक हक़ीर बंदी को ना जाने उसमें क्या मज़ा आता था मगर उसे यक़ीन था कि इस दोज़ख़ी मक्खी का गिरेबान… इस मक्खी की फ़रयाद ज़रूर क़ह्हार-ओ-जब्बार के हुज़ूर में लेकर जाएगी और ज़रूर फ़रिश्ते उन्हें ख़ून, पीप पिलाकर कांटों पर सुलाएंगे। मगर फिर… ये क्या मुंडकटी मक्खियाँ भी जन्नत में जाएँगी और सारी जन्नती फ़िज़ा मुकद्दर हो जाएगी… बुढ़िया ने पंखे के तपोर बनाकर छपा-छप अपने मुँह हाथों और सूखे पैरों को पीट डाला।
“बहू… ए बहू… मर गई क्या…” वो जल कर चिल्लाई।
और बहू तड़प कर कोठड़ी से निकली… दुपट्टा नदारद… गिरेबान चाक हाथ में आम की गुठली। जैसे किसी से कुश्ती लड़ रही हो। फिर फ़ौरन लौट गई और दुपट्टा कंधों पर डाले आँचल से हाथ पोंछती निकली।
“अरे बहू… मैं कहती हूँ… अरे बूँद हल्क़ में पानी…”
असग़र भी शलवार के पाइंचे झाड़ता कुरते की पोटली से गर्दन रगड़ता आया।
“लो अम्माँ… क्या ख़ुश्बू-दार अमियाँ हैं…” उसने बुढ़िया की गोद में पोटली डाल कर कहा। और खटोली पर आलती-पालती मार कर बैठ गया।
बुढ़िया आमों और ख़रबूज़ों को सूंघ-सूंघ कर मक्खियों की नाइंसाफ़ी को भूल गई जो अब आमों की बोंडियों का मुआइना करने के लिए उस की बाछों से उतर आई थीं…
“ए बहू… छुरी…”
बहू ने गिलास देते हुए आमों का रस होंटों पर से चाटा। असग़र ने पैर बढ़ाकर बहू की पिंडली में बुकच्चा भर लिया… पानी छलका… और बुढ़िया ग़ुर्राई।
“अंधी … मेरे पांव पर औंधाए देती है…” और ऐसा खींच कर हाथ मारा कि गिलास मुआ भारी पेंदे के बहू के पैर पर… बहू ने दाँत कच-कचा कर असग़र को घूरा। और चल दी तन-तनाती।
“अम्माँ लो पानी…” असग़र ने फ़रमाँ-बर्दार बेटे की तरह प्यार से कहा।
“ये बहू तो वो बड़ी हो गई।”
“तुम्हें देखो…” बुढ़िया ने शिकायत की।
“निकाल दे मार कर हरामज़ादी को।”
“अम्मां अब दूसरी लाएं… ये तो…” असग़र ने प्यार से बहू को देखकर कहा।
“ए ज़बान सँभाल कमीने…” बुढ़िया ने आम पिल-पिला करके कहा।
“क्यों अम्मां…” देखो ना खा-खा कर भैंस हो रही है…” उसने बुढ़िया की आँख बचाकर कमर में चुटकी भर के कहा। और बहू ने छुरी मारने की धमकी देते हुए छुरी बुढ़िया के गट्टे पर पटख़ दी, जो तिलमिला गई।
“देखती हो अम्मां… अब मारों चुड़ैल को…” और लपक कर असग़र ने दिया धम्मूका बहू की पीठ पर और फ़रमाँ-बर्दार बेटे की तरह फिर आलती-पालती मार कर बैठ गया।
“ख़बरदार लो… और सुनो… हाथ तोड़ के रुख दूँगी अब के जो तू ने हाथ उठाया।” बुढ़िया ग़नीम की तरफ़दारी करने लगी… “कोई लाई भगाई है जो तू… ए में कहती हूँ पानी ला दे…” उसने फिर उसी दम बहू पर बरसना शुरू किया।
बहू खम्बे से लग कर मुँह थोथा कर बैठ गई। और गिलास से ज़ख़्मी हुए अंगूठे को दबा-दबा कर ख़ून निकालने लगी। बुढ़िया मज़े से गुठलियां छोड़ा की और फिर शकर का डिब्बा देते वक़्त कुछ ऐसा बुढ़िया के पांव रखा कि ख़ून से लिथड़ा अँगूठा बुढ़िया ने देख ही लिया।
“ओई… ये ख़ून कैसा…?” पर बहू रूठ कर फिर खम्बे से लग कर बैठ गई। और ख़ून बहने दिया।
“ए में कहती हूँ इधर आ… देखूं तो ख़ून कैसा है?” बुढ़िया ने परेशानी छुपा कर कहा।
बहू हिली भी नहीं…
“देखो तो कैसा जीता-जीता ख़ून निकल रहा है… असग़र उठ तो ज़रा उस के पैर पर ठंडा पानी डाल…” सास भी गिरगिट होती है।
“मैं तो नहीं डालता…” असग़र ने नाक सुकेड़ कर कहा।
“हरामज़ादे…” बुढ़िया ख़ुद घिसटती हुई उठी।
“चल बेटी पलंग पर… ए में कहती हूँ ये गिलास मुआ सवा सेर का है इस कमीने से कितना कहा हल्का एलमोनियम का ला दे… मगर वो एक हरामख़ोर है ले उठ ज़रा।” बहू टस से मस ना हुई बल्कि कोहनी आगे को करके झूट-मूट नाक दुपट्टे से पोंछने लगी।
“ला पानी डाल सुराही में से…” और असग़र सीने पर पत्थर रखकर उठा।
बुढ़िया सूखे-सूखे लरज़ते हाथों से ख़ून धोने लगी मगर ये मा’लूम करके कि बजाय ज़ख़्म पर पानी डालने के वो बहू के गिरेबान में धार डाल रह है और बहू इस ताक में है कि क़रीब आते ही असग़र का कान दाँतों से चबा डाले, वो एक दम बिखर गई।
“ख़ाक पड़े तेरी सूरत पर…” बुढ़िया ने असग़र के नंगे शाने पर सूखे पंजे से बद्धियाँ डाल कर कहा और उसने एक सिसकी लेकर जल कर सारा पानी बहू पर लौट दिया और ख़ुद रूठ कर आम खाने चला गया। माँ, बेटे के लिए ढाई घड़ी की मौत आने का अरमान करने लगी।
“बदज़ात… ठहर जा… आने दे… अपने चचा को वो खाल उधड़वाती हूँ कि बस…” बुढ़िया ने मैली धज्जी की पट्टी बांध कर कहा।
“बेबस… अब पलंग पर लेट जा…” बुढ़िया ने ज़ख़्म को इंतिहाई ख़तरनाक बनाकर कहा और फिर बहू के ना हिलने पर ख़ुद ही बोली… “ए हाँ… ले असग़र बहू को खटोली पर पहुंचा दे…”
“मुझसे तो नहीं उठती ये मोटी भैंस की भैंस…” असग़र जल कर बोला।
“अरे तेरे तो बाप से उट्ठेगी। सुनता है कि अब।”
और जब वो फिर भी बैठा रहा तो बुढ़िया ख़ुद उठाने लगी
“अम्मां … में आप उठ जाऊँगी बहू ने बुढ़िया की गुद-गुदियों से घबराकर कहा।
“नहीं बेटी… मैं…” और उसने फिर असग़र की तरफ़ आँखें घुमाकर देखा गोया कह रही है कि ठहर जाओ मियाँ दूध ना बख्शूँ और बर ना बख्शूँ।
असग़र भन्नाकर उठा। और एक झपाके से बहू को उठाकर चला खटोली की तरफ़। बहू ने मौक़ा की मुनासबत से फ़ौरन फ़ायदा उठाकर उसी जगह दाँत गाड़ दिए जहां अभी सास का सूखा पंजा पड़ा था।
और असग़र ने कच-कचा कर उसे खटोली पर पटख़ दिया… और उसके सुर्ख़-सुर्ख़ होंट चुटकी से मसल दिए।
बहू नाक छुपा छुपा कर फ़तह-मंदाना तरीक़े पर हँसती रही और असग़र अपने नील पड़े हुए कंधे को सहला सहला कर ग़ुर्राता रहा।
सास वुज़ू के आख़िरी मरहले तै कर रही थी और आसमान की तरफ़ देख देखकर कुछ बड़बड़ा रही थी।
जाने क्या… शायद बे-हया बहू को कोस रही होगी।
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