Jawani by Ismat Chughtai

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इस्मत चुग़ताई की कहानी जवानी, Ismat Chughtai Ki Kahani Jawani
जब लोहे के चने चब चुके तो ख़ुदा ख़ुदा कर के जवानी बुख़ार की तरह चढ़नी शुरू हुई। रग-रग से बहती आग का दरिया उमँड पड़ा। अल्हड़ चाल, नशे में ग़र्क़, शबाब में मस्त। मगर उसके साथ साथ कुल पाजामे इतने छोटे हो गए कि बालिश्त बालिश्त भर नेफ़ा डालने पर भी अटंगे ही रहे। ख़ैर उसका तो एक बेहतरीन ईलाज है कि कंधे ज़रा आगे ढलका कर ज़रा सा घुटनों में झोल दे दिया जाये। हाँ हाँ ज़रा चाल कंगारू से मिलने लगेगी।

बाल हैं कि क़ाबू ही में नहीं। लटें फिसली पड़ती हैं। बाल बहे जाते और मांग? मांग तो ग़ायब! अगर माँ आठवीं रोज़ कड़वा तेल छोड़कर मेंढीयां न बांधीं तो ज़िंदगी अजीरन हो जाये। गो मुँह लिए कँगूरों के तबाक़ की तरह मुँडा मुँडा लगने लगता है। पर बालों से तो जान छूट जाती है। जैसे किसी ने सर घोट के बालों के वबाल ही से नजात दिला दी। न जाने ये मेमें फूले फूले बाल गर्दन पर छोड़ के कैसे जीती हैं। और पांव? पांव तो जैसे फावड़ा। क्या जल्दी जल्दी बढ़ रहा है! अगर ऐसी रफ़्तार से बढ़ा तो सिल बराबर हो जाएगा। अँगूठा जैसे कछुवे का सर!

और भी थीं बहुत सी बातें जो अकेले में बैठ कर जनो को सतातीं। आईने में नाक देख के तो बस क़ै आने लगती। ये डबल निगोड़ा जैसे खूँटा। शज्जो की शादी हुई तो ये बड़ी सी नथुनी पहने थी उसने, क्या प्यारी सी नाक है, गुड़िया जैसी और जनो के खूंटे पर तो नथुनी भी शर्मा जाएगी। जब उसकी शादी होगी तो?

“बिजली गिरे ऐसी नाक पर।” उसने सोचा।
इस पर शबराती भय्या आए थे। कैसे ग़ौर से उसका मुँह तक रहे थे। भला इन्होंने काहे को ऐसी नाक कहीं देखी होगी। जुनूने जल्दी से कुछ पोंछने के बहाने नाक ओढ़नी से छुपा ली।

शबराती भय्या झेंप गए। समझे होंगे बिगड़ जाएगी ये। ए काश वो सुलोचना होती, या माधूरी, का कज्जन ही सही! अल्लाह मियां का उसमें क्या जाता। कुछ टोटा तो आ न जाता उनके खज़ाने में। अगर ज़रा वो गोरी ही होती। और काम-चोर कारीगर ज़रा ध्यान से उसे ढंग का बनाते तो क्या हाथ सड़ जाते उनके? वो आँखें बंद कर के बहुत से फ़रिश्तों को खटाखट इन्सानी पैकर गढ़ते देखती। काश वो गढ़ी जा रही थी तो फ़रिश्ता की बग़ल में फोड़ा न निकला होता।

बापू के जब फोड़ा निकला था तो डेढ़ महीना की खाट गोड़ी थी और खुरपिया तक न हिलाई थी। उसका ख़्याल माँ की तरफ़ भटक गया। खपरैल में न जाने दिन में कै घंटे ऐंडती। पिछले चंद महीने से उसका पेट निहायत ख़ौफ़नाक चाल से बढ़ रहा था। वो ख़ूब जानती थी कि ये फूलना ख़ाली अज़ इल्लत नहीं। जब कभी माँ पर ये वबाल छा जाता है एक-आध बहन या भाई रात-भर रें रें करने और उसके कूल्हे पर रोने को आन मौजूद होता है… मक्खियां, बस दोपहर को सताती हैं, इस कान से उड़ाओ दूसरे पर आन मरें, वहां से उड़ीं तो नाक में तन्तनाएं, वहां से नोचा तो आँख के कौए में घुस जाती हैं। दो-घड़ी भी न हुई होगी कि दुपट्टा के छेद में से यलग़ार बोल दिया और ऊपर से माँ डकराई।

“मौत पड़े तेरे सोने पर, उठ, शबराती को रोटी दे।”
गर्दन पर से मैल की बत्तियां छुटाती छींके की तरफ़ चली। बाहर पत्थर पर शबराती भय्या लाल चार ख़ाने का अँगोछा फीच रहे थे। छपाछप से मैली मैली बूँदें उछल कर उनकी अध मिची आँखों और उलझे हुए बालों पर पड़ रही थीं। वो रोटी रुख के पास ही घुटने पर ठोढ़ी रख के ग़ौर से उन्हें देखती रही। उनके सीने पर कितने बाल थे। घने पसीने में डूबे हुए। “जी न घबराता होगा।” वो सोचने लगी, “कैसी खुजली पड़ती होगी।”

उनके कसे हुए डनड़ों और रानों की मछलियाँ हर छपाके के साथ उछलती थीं। शबराती भय्या अँगोछा टट्टी पर फैला कर रोटी के बड़े बड़े नेवाले साग की कमी का गिला करते हुए निगलने लगे। “पाडी।” उन्होंने सूखी रोटी के मुहीत नेवाले को गले में जकड़ते हुए कहा। और जन्नू ने घबरा कर उन्हें कटोरी पकड़ा दी, “जल्दी से खा लो। कटोरी मांझ के यहीं धर देना। हमें कुट्टी करने को पड़ी है।” वो ग़रूर से अहकाम सादर करती उठी। “हम कर देंगे कुट्टी।” शबराती रोटी के किनारे खाते हुए बोला। “तुम खेत जाओगे।” वो चलने लगी। “खेत भी जाऐंगे।” वो ग़रूर से एक अमीक़ डकार लेकर बोला। “ओह नक रहने दो।” वो चली। “कहते हैं तुझसे कुट्टी नहीं होगी। वैसे ही कोई चोट चपेट आ जाएगी।” शबराती ने प्यार से डाँटा।

शबराती को क्या, उनके आने से पहले वो कुट्टी किया करती थी कि नहीं। ऐसी भी क्या चोट चपेट, छप्पड़ में जा कर उसने रूपा और चंदन को प्यार से दो-चार घूँसे लगाने और उन्हें कोने में चुप-चाप खड़ा रहने की ताकीद कर के ख़ुद कुट्टी के गठे को बचोर कर गड्डियां बनाने लगी। “झेप। हटो हम कुट्टी कर दें।” शबराती ने फिर डकार लेकर चने के साग का मज़ा लेना शुरू किया।

वो इतरा कर गंडासा सँभाल कर बैठ गई। गोया उसने सुना ही नहीं। “तुझसे एक दफ़ा कहो तो सुनती ही नहीं। ला उधर गंडासा।” वो गंडासा छीनने लगे। “नहीं।” वो बनने लगी और कुट्टी शुरू कर दी। “तो लियो अब।” वो अपनी फुकनी जैसी मोटी-मोटी उंगलियां गंडासे के नीचे बिछा कर बोले, “लेव। अब करो कुट्टी। मार देव।”

“हटाओ, कि हम सच्ची मार दें।” वो गंडासा तौल के बोली। जैसे सच-मुच मार ही तो देती। “मार, तेरे कलेजा में बूता हो तो मार देख।” और जो वो मार ही देती कचर कचर सारी उंगलियां पिस जातीं ये क्या बात थी, कोई ज़बरदस्ती थी उनकी? अब मारती क्यों नहीं। शबराती भय्या ने आँखें झपकाईं और उनका मूंछों वाला मोटा सा होंट दूर तक फैल गया। गंडासा छीन लिया गया। और जन्नो खिसिया गई। न जाने उसके सख़्त और खुदरे हाथों को इस वक़्त क्या हो गया… किस क़दर छोटे और नर्म मालूम देने लगे। उसे मालूम हो गया कि सीना पर पसीना में डूबे हुए घने बालों से जी क्यों नहीं घबराता और फुकनी जैसी उंगलियां कैसी फुर्तीली होती हैं…जन्नो का बस चलता तो वो उनके भूके कुत्तों को अपनी बोटीयां भी खिला देती।

मगर कितना खाते थे, उसके ज़रा ज़रा से बहन भाई! वो मोटी से मोटी रोटी ख़्वाह कितनी ही जली और अधकचरी क्यों न हो, चुटकियों में हज़म कर जाते… क्या ऐसा भी कोई दिन होगा जब उसे रोटी न थोपनी पड़े… रात भर माँ आटा पीसती और इस भद्दी औरत से हो ही क्या सकता है। साल में 365 दिन में किसी न किसी बच्चे को पेट में लिए कूल्हे पर लादे या दूध पिलाते गुज़ारती…

माँ क्या थी एक ख़ज़ाना थी जो कम ही न हुआ था। कितने ही कीड़े उसने नालियों में कुश्ती लड़ने और ग़लाज़त फैलाने के लिए तैयार कर लिए थे। पर वैसी ही ढेर का ढेर रखी थी। आख़िर वो दिन भी आ गया जब कि रात के ठीक 12 बजे माँ ने भैंस की तरह डकराना शुरू किया।

मुहल्ला की कुल मुअज़्ज़िज़ बीवीयां ठीकरे और हांडियों में बदबूदार चीज़ें लेकर इधर से उधर दौड़ने लगीं। मोटी दोहर को बछड़े की रस्सी की मदद से खपरैल के कोने में तान कर माँ लिटा दी गई। बच्चों ने मिनमिनाना शुरू किया और आने वाले से बड़ा बच्चा पछाड़ें खा कर गिरने लगा। बापू ने सबको निहायत अजीब अजीब रिश्ता क़ायम करने की धमकी देकर कोने में ठूँस दिया और ख़ुद माँ को निहायत पेचदार गालियां देने लगा जिनका मफ़हूम जन्नो किसी तरह न समझ सकी। शबराती भय्या दो एक गालियां जुओं वग़ैरा को देकर भैंसों वाले छप्पर में जा पड़े। पर जन्नो माँ की चिंघाड़ें सुनती रही। उसका कलेजा हिला जाता था। मालूम होता था कोई माँ को काटे डाल रहा है। औरतें न जाने उस पर्दे के पीछे उसके संग क्या बेजा हरकत कर रही थीं। जन्नो को ऐसा मालूम हो रहा था कि जैसे माँ का सारा दुख वही उठा रही है। गोया वही चीख़ रही है और एक नामालूम दुख की थकन से वाक़ई वो रोने लगी।

सुबह को वो एक सुर्ख़ गोश्त के लोथड़े को गूदड़ में रखा देखकर क़तई फ़ैसला न कर सकी कि इस मुसीबत और दुख का माक़ूल सिला है या नहीं जो माँ ने गुज़श्ता शब झेला था। पता नहीं माँ ने दूसरी ग़लाज़त के साथ साथ उसे चीलों के खाने के लिए कूड़े के ढेर पर रखने के बजाय उसे कलेजे से क्यों लगा रखा था। जाड़ों में भैंसों के गोबर की सड़ान्द बची-कुची सानी की बू के दरमियान फटे हुए गूदड़ में इस सिरे से उस सिरे तक जीव ही जीव लेट जाते फटी हुई रोई के गुट्ठल और पुरानी बोरीयां जिस्म के क़रीब घसीट कर एक दूसरे में घुसना शुरू कर देते ताकि कुछ तो सर्दी दबे। इस बे-सर-ओ-सामानी में भी क्या मजाल जो बच्चे निचले बैठें। रसूलन हुंगवा की टांग घसीटती और नत्थू मोती के कूल्हे में काट खाता और कुछ नहीं तो शबराती ही घसीट कर इतनी गुदगुदी करता कि सांस फूल जाती। वो तो जब माँ गालियां देती तब ज़रा सोते। रात को वो अफ़रातफ़री पड़ती कि किसी का सर तो किसी का पैर। किसी को अपने जिस्म का होश न रहता। पैर कहीं तो सर कहीं।

बा’ज़ वक़्त अपना जिस्म पहचानना दुशवार हो जाता। रात को किसी की लात या घूँसे से चोट खा कर या वैसे ही इतने जिस्मों की बदबू से उकता कर अगर कोई बच्चा चूँ भी करता तो माँ डायन की तरह आँखें निकाल कर चीख़ती और फ़र्यादी बिसूर कर रह जाता और जन्नो तो सबसे बड़ी थी। मगर जन्नो को ख़ूब मालूम हो गया कि सीने पर कितने ही बाल हों, और बग़ल में से कैसी ही सड़ान्द आए, जी बिल्कुल नहीं घबराता। मोरी का कपड़ा कीचड़ में क्या मज़े से लोटता है और उसमें बात ही ऐसी क्या थी। जब दोपहर को माँ बच्चे को जन्नो को देकर दाई से पेट मलवाने कोठड़ी में चली जाती या अपनी सहेलियों से कोई निहायत ही पोशीदा बात करती होती तो वो भय्या को गोद में लिटा कर जाने क्या सोचा करती। वो उसका छोटा सामना चूमती। मगर उसका जी मितलाने लगता। पिलपिला सडे हुए दूध की बू। वो सोचने लगती कि कब वो छः फुट ऊंचा चौड़े बाज़ुओं वाला जवान बन चुकेगा…और फिर वो उसकी छोटी छोटी मूंछों और फुकनी जैसी मोटी उंगलियों का तसव्वुर करती। उसे यक़ीन न आता था कि कभी यही ख़मीरी ग़लग़ला लकड़ी का खंबा बन जाएगा। कुएँ पर नहाते हुए नीम ब्रहना ग़ुंडों को देखकर वो अपने अध्मरे भाईयों पर तरस खाने लगती। काश यही बढ़ जाएं। इतना खाते हैं फिर कचरिया सा पेट फूल जाता है और वो भी सुबह को ख़ाली।

मुहर्रम पर शबराती भय्या अपने घर चले गए। रात को बच्चे पहली ही धुतकार में सो जाते। पर जन्नो पड़ी पड़ी जागा करती। वो सरक सरक के किसी बच्चे से बे-इख़्तियार हो कर लिपट जाती। “शबराती भय्या कब तक आएँगे अम्मां?” उसने एक दिन पूछा माँ से। “बैसाख में उसका ब्याह है। अब वो ससुराल ही रहेगा।” माँ गेहूँ फटकती हुई बोली। “अरे!” उसे मालूम हो गया कि सीने पर पसीने में डूबे हुए घने बालों से जी क्यों नहीं घबराता और फुकनी जैसी उंगलियां कैसी फुर्तीली होती हैं। जन्नो का बस चलता तो वो उनके भूके कुत्तों को अपनी बोटीयां भी खिला देती। मगर कितना खाते थे, उसके ज़रा ज़रा से बहन भाई! वो मोटी से मोटी रोटी ख़्वाह कितनी ही जली और अधकचरी क्यों न हो, चुटकियों में हज़म कर जाते… क्या ऐसा भी कोई दिन होगा जब उसे रोटी न थोपनी पड़े…

रात-भर माँ आटा पीसती और इस भद्दी औरत से हो ही क्या सकता है। साल में 365 दिन में किसी ना किसी बच्चे को पेट में लिए कूल्हे पर लादे या दूध पिलाते गुज़ारती… माँ क्या थी एक ख़ज़ाना थी जो कम ही न हुआ था। कितने ही कीड़े उसने नालियों में कुश्ती लड़ने और ग़लाज़त फैलाने के लिए तैयार कर लिए थे। पर वैसी ही ढेर का ढेर रखी थी। आख़िर वो दिन भी आ गया जब कि रात के ठीक 12 बजे माँ ने भैंस की तरह डकराना शुरू किया। मुहल्ला की कल मुअज़्ज़िज़ बीवीयां ठेकरे और हांडियों में बदबूदार चीज़ें लेकर इधर से उधर दौड़ने लगीं। मोटी दोहर को बिछड़े की रस्सी की मदद से खपरैल के कोने में तान कर माँ लिटा दी गई।

बच्चों ने मिनमिनाना शुरू किया और आने वाले से बड़ा बच्चा पछाड़ें खा कर गिरने लगा। बापू ने सबको निहायत अजीब अजीब रिश्ता क़ायम करने की धमकी देकर कोने में ठूँस दिया और ख़ुद माँ को निहायत पेचदार गालियां देने लगा जिनका मफ़हूम जन्नो किसी तरह न समझ सकी। शबराती भय्या दो एक गालियां जोओं वग़ैरा को देकर भैंसों वाले छप्पर में जा पड़े। पर जन्नो माँ की चिंघाड़ें सुनती रही। उसका कलेजा हिला जाता था। मालूम होता था कोई माँ को काटे डाल रहा है। औरतें न जाने उस पर्दे के पीछे उसके संग क्या बेजा हरकत कर रही थीं। जन्नो को ऐसा मालूम हो रहा था कि जैसे माँ का सारा दुख वही उठा रही है। गोया वही चीख़ रही है और एक नामालूम दुख की थकन से वाक़ई वो रोने लगी।

सुबह को वो एक सुर्ख़ गोश्त के लोथड़े को गूदड़ में रखा देखकर क़तई फ़ैसला न कर सकी कि इस मुसीबत और दुख का माक़ूल सिला है या नहीं जो माँ ने गुज़श्ता शब झेला था। पता नहीं माँ ने दूसरी ग़लाज़त के साथ साथ उसे चीलों के खाने के लिए कूड़े के ढेर पर रखने के बजाय उसे कलेजे से क्यों लगा रखा था।जाड़ों में भैंसों के गोबर की सडान्द बची-कुची सानी की बू के दरमियान फटे हुए गूदड़ में इस सिरे से इस सिरे तक ज्यो ही जीव लेट जाते फटी हुई रुई के गुट्ठल और पुरानी बोरियां जिस्म के क़रीब घसीट कर एक दूसरे में घुसना शुरू कर देते। ताकि कुछ तो सर्दी दबे। इस बे-सर-ओ-सामानी में भी क्या मजाल जो बच्चे निचले बैठें। रसूलन हुंगवा की टांग घसीटती और नत्थू मोती के कूल्हे में काट खाता और कुछ नहीं तो शबराती ही घसीट कर इतनी गुदगुदी करता कि सांस फूल जाती। वो तो जब माँ गालियां देती तब ज़रा सोते। रात को वो अफ़रातफ़री पड़ती कि किसी का सर तो किसी का पैर। किसी को अपने जिस्म का होश न रहता। पैर कहीं तो सर कहीं। बा’ज़ वक़्त अपना जिस्म पहचानना दुशवार हो जाता। रात को किसी की लात या घूँसे से चोट खा कर या वैसे ही इतने जिस्मों की बदबू से उकता कर अगर कोई बच्चा चूँ भी करता तो माँ डायन की तरह आँखें निकाल कर चीख़ती और फ़र्यादी बिसूर कर रह जाता और जन्नो तो सबसे बड़ी थी। मगर जन्नो को ख़ूब मालूम हो गया कि सीने पर कितने ही बाल हों, और बग़ल में से कैसी ही सड़ान्द आए, जी बिल्कुल नहीं घबराता। मोरी का कपड़ा कीचड़ में क्या मज़े से लोटता है और इसमें बात ही ऐसी क्या थी। जब दोपहर को माँ बच्चे को जन्नो को देकर दाई से पेट मलवाने कोठड़ी में चली जाती या अपनी सहेलियों से कोई निहायत ही पोशीदा बात करती होती तो वो भय्या को गोद में लिटा कर जाने क्या सोचा करती।

वो उसका छोटा सामना चूमती। मगर उसका जी मतलाने लगता। पिलपिला सडे हुए दूध की बू। वो सोचने लगती कि कब वो छः फुट ऊंचा चौड़े बाज़ुओं वाला जवान बन चुकेगा… और फिर वो उसकी छोटी छोटी मूंछों और फ़ुकनी जैसी मोटी उंगलियों का तसव्वुर करती। उसे यक़ीन न आता था कि कभी यही ख़मीरी ग़लग़ला लकड़ी का खंबा बन जाएगा। कुवें पर नहाते हुए नीम ब्रहना ग़ुंडों को देखकर वो अपने अध् मरे भाईयों पर तरस खाने लगती। काश यही बढ़ जाएं। इतना खाते हैं फिर कचरिया सा पेट फूल जाता है और वो भी सुबह को ख़ाली।

मुहर्रम पर शबराती भय्या अपने घर चले गए। रात को बच्चे पहली ही धुतकार में सो जाते। पर जन्नो पड़ी पड़ी जागा करती। वो सरक सरक के किसी बच्चे से बे-इख़्तियार हो कर लिपट जाती। “शबराती भय्या कब तक आएँगे अम्मां?” उसने एक दिन पूछा माँ से। “बैसाख में उसका ब्याह है। अब वो ससुराल ही रहेगा।” माँ गेहूँ फटकती हुई बोली। “अरे!” उसे किस क़दर हैरत हुई। घसीटे चाचा के ब्याह में बस क्या बताया जाये क्या मज़ा आया था। रात रात-भर बस गाना और ढोल। सुर्ख़ टोल की दुपटया वो किस शान से आठ दिन तक ओढ़े फिरी थी।

जभी तो शबराती भय्या ने उसके क्या ज़ोर से चुटकी भर ली थी। वो घंटों रोई थी। वो फिर सोचने लगी कि ब्याह में वो कौन सा कुरता पहनेगी। लाल ओढ़नी तो वैसी धरी थी, फिर ब्याह तो अभी दुर था। पर न जाने उसे क्या हो गया था। वैसे तो कुछ नहीं, बस जी था कि लोटा जाता था। अगर पिछवाड़े इमली का पेड़ न होता तो वो फिर भूकी ही मर जाती। कैसा जी भारी भारी रहता… माँ उसके झोंटे पकड़ पकड़ कर हिलाती। पर हर वक़्त नींद थी कि सवार रहती… पानी भरते में उसे कई दफ़ा चक्कर आ गया और एक दफ़ा तो वो गिर ही पड़ी दहलीज़ पर। “नाजो की कमर लचक जाती है।” माँ ने दोहत्तड़ मार कर कहा, और अपना सा पीला चेहरा देखकर तो वो ख़ुद डर जाती। वो यक़ीनन मरने वाली हो रही थी। कुबड़ी बुढ़िया मरी थी तो कई दिन पहले धड़ाम से मोरी में गिरी। और बस घिसटा ही करती थी। “अरी ये तुझे हो क्या गया है रांड?” माँ ने उसे पज़मुर्दा देखकर पूछ ही लिया। और वो उसे बेतरह टटोलने लगी। जन्नो के बहुत गुदगुदी हुई। “हरामज़ादी! ये किसका है”? उसने उसकी चोटी उमेठ कर कहा। “क्या?”जन्नो ने डर के पूछा, “अरे… यही… तेरे करतूत… बच्चा बनती जाती है… मुर्दार हरामख़ोर।” उसने जन्नो को इतना मारा कि ढाई सेर घी फेंकने पर भी न मारा होगा और ख़ुद अपना सर कूट डाला। “अरी मुर्दे खोर बता तो आख़िर कुछ।” वो थक कर जन्नो को फिर पीटने लगी। और फिर उसने न जाने क्या-क्या पूछ डाला। वहां था ही क्या।

रात को उसने अपने बाप की गालियां और मार डालने की धमकी सुनकर ज़ोर से घुटने पेट में अड़ा लिए और खाट पर औंधी हो गई… पर उसे बड़ी हैरत हुई कि वो साथ साथ शबराती भय्या को क्यों गंडासे से काट डालने की धमकी दे रहे थे। बैसाख में तो उनका ब्याह होने वाला था जिसमें वो सुर्ख़ दुपट्टा ओढ़ कर… उसका गला आया।

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