Janaze by Ismat Chughtai

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इस्मत चुग़ताई की कहानी जनाज़े, Ismat Chughtai Ki Kahani Janaze
मेरा सर घूम रहा था… जी चाहता था कि काश हिटलर आ जाए और अपने आतिशीं लोगों से इस ना-मुराद ज़मीन का कलेजा फाड़ दे। जिसमें नापाक इन्सान की हस्ती भस्म हो जाएगी, सारी दुनिया जैसे मुझे ही छेड़ने पर तुल गई है, मैं जो पौदा लगा दूं मजाल है कि उसे मुर्ग़ीयों के बे-दर्द पंजे कुरेदने से छोड़ दें। मैं जो फूल चुनूँ भला क्यों ना वो मरी सहेलीयों को भाए, और वो क्यों ना उसे अपने जूड़े की ज़ीनत बना लें।

ग़र्ज़ मेरे हर क़ौल-ओ-फे़ल से दुनिया को बैर हो गया है और मेरी दुनिया भी कितनी है। यही चंद भूले-भटके लोग। दो-चार सेकेण्ड हैंड आशिक़ मिज़ाज और कुछ फूहड़, लड़ाका और फ़ैशन पर मरने वाली सहेलियाँ… ये भी कोई दुनिया है? बिलकुल थकी हुई दुनिया। मेरे तख़य्युलात से कितनी नीची और दूर… और अब तो इस दुनिया में और भी धूल उड़ने लगी। मा’लूम होता है क़ब्ल-अज़-वक़्त पैदा हो गई हूँ।

ताल्लुक़ जिसे दुनिया दीवाना कहती है वो भी अपने वक़्त से पहले आया तो हवास-बाख़्ता हो गया फिर में क्या चीज़ हूँ…? लेकिन एक ज़माना होगा। जब दुनिया मेरी ही हम-ख़्याल हो जाएगी। लोग मेरी सुनेंगे… और किश्वर… किश्वर के वाक़ि’अ ने तो मुझे बिलकुल नीम मुर्दा कर दिया। मुझे मा’लूम हो गया कि मेरी ये चीख़ पुकार ये फड़कता हुआ दिल जिसमें इन्सानी हमदर्दी और उख़व्वत का समुंदर लहरें मार रहा है। जिसके ख़ाब मुल्क की बेहतरी की नज़्र हो चुके हैं। जिसके जज़्बात मज़हब और इन्सानियत में ग़र्क़ हैं… ये सब कुछ बेकार बिलकुल बेकार है… बैलगाड़ी की चूं चूं और मरियल घोड़े की टापों में भी तो इस से ज़्यादा असर है।

“ये भी कोई दुनिया है… ये भी कोई दुनिया है…” मैं कुर्सी पर झूम रही थी।
“किस की दुनिया…? मेरी…” राहत अंदर आकर तख़्त पर बैठ गई।
राहत… आपने चंद मोम की पुत्लियों को तो देखा होगा। नन्ही मुन्नी, खेल कूद की शौक़ीन जिनका मक़सद ज़िंदगी से खेलना है, गुड़ियों से खेलना, किताबों से खेलना… अम्माँ अब्बा से खेलना… और फिर आशिक़ों की पूरी की पूरी टीम से कब्बडी खेलना… अभी मेरे बदनसीब भाई के साथ टेनिस खेल कर आ रही थी।

“तुम्हारी दुनिया… राहत तुम्हारी दुनिया तो टेनिस के कोर्ट पर है,” मैंने तल्ख़ी से कहा।
“कौन… मेरी…? तुम्हारा मतलब है ज़मीर? तौबा करो। वो तो तुम्हारा भाई है पर है चुग़द… माफ़ करना… अल्लाह की क़सम ऐसे हाथ चलाता है जैसे टेनिस के बजाय फूटबाल खेल रहा है और फिर मज़ा ये है कि अगर जनाब के साथ ना खेलो तो… ये कि… बस…”

“ये मेरे भाई साहब की शान में मेरे मुँह पर फ़रमाया जा रहा था अगर में भी शहनशाह अकबर की तरह ताक़तवर होती तो इस बेईमान छोकरी को अनार कली की तरह दीवार में ज़िंदा चिनवा देती… ये पुर-फ़न लड़कियां बेवक़ूफ़ लड़कों को ख़ून के आँसू रुलवाती हैं और मौत की हंसी हंसवाती हैं। और फिर चट कहीं और किसी की हो रहती हैं। मुझे अच्छी तरह मा’लूम था कि ज़मीर उल्लू है और रहेगा। क्या जनाब की थर्ड क्लास पसंद है। वो लड़की जिसमें नाम को अक़्ल नहीं जिसमें ना क़ौम की तरक़्क़ी का जोश ना क़ुर्बानी का जज़्बा… ना मुल्क का प्यार, जो बी. ए. करने के बाद भी ना मर्द की असली फ़ित्रत को समझी और ना औरत के जज़्बात से वाक़िफ़।

“मगर आपको उस की इतनी दिलदारी क्यों मंज़ूर है… आप दूसरों से खेलें… देखें कौन आपको रोक सकता है।”
“भई वाह… रोकेगा कौन… पर अच्छा नहीं लगता… मुझे बेचारे पर रहम आता है…”
“दूसरे…?”
“ख़ूब रहम आता है उसे जैसे… जैसे दूसरी कोई नसीब ना होगी।’ मेरा ख़ून खौल गया।
“ए लो… मिलेगी क्यों नहीं… ये में कब कहती हूँ… मिल जाएगी, मिल ही जाएगी…” राहत हकलाने लगी।
“मिल ही जाएगी… उसे कमी नहीं। ये तो… वो बेवक़ूफ़ है।”
“हाँ… ये बात है जभी तो मैं कहती हूँ…” राहत ख़ुशी से चमकी।

“जभी तो क्या…” मैंने जल कर पूछा।
“ए भई यही कि… भई मुझे नहीं… नहीं मा’लूम है कि मुझमें तुम्हारी जैसी अक़्ल नहीं और ना मुझसे बहस की जाये… तुम्हें याद है कि मैं तो कोई… बिलकुल… भई कभी बहस कर ही ना सकी यही तो बात है कि ज़मीर…”
“हाँ क्या ज़मीर…” मैंने उस की शिकस्त से ख़ुश हो कर कहा।
“यही … ये मुझे ज़मीर पर… यही कि बस ख़्याल आता है कि वो बेचारा।
“ओहो। तुम कितने फ़ख़्र से उसे बेचारा कहती हो…” मेरा मुँह कड़वा हो गया।
“आज तो तुम बेतरह बिगड़ रही हो, क्या हुआ… क्या सईद ने डाँटा… अभी से ईंठता है…”

सईद के नाम से मेरे बदन में पतंगे लगने लगते हैं, आप एक और राहत जैसी रूह रखने वाले इन्सान हैं। आपने कमाल फ़रमाया कि एक दफ़ा मुझ पर इनायत की। कमाल… मेरे जवाब से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उनका क्या हाल हुआ होगा, पहले तो ज़रा मुत’अज्जिब हुए… फिर ख़ूब मुत’अज्जिब हुए। और फिर और ज़्यादा हुए ,बाद में सुना अपनी ग़लती पर बहुत शर्मिंदा हुए। ज़मीर से बोले कि मैं उन्हें ग़लत समझा था। मैं समझता था कि शायद… मुझे उन पर तरस आया था… ख़ुदा जाने ये उन्हें मुझ पर तरस खाने का क्या हक़ था और कैसा तरस ये मुझ पर आज तक वाज़ेह नहीं हुआ।

लीजिए इतना लंबा क़िस्सा सईद का ही हो गया, वो तो मैंने कहा ना कि मैं तो बात भी करूँ तो उसको भी गड़-बड़ा देते हैं ये दुनिया वाले।
“हुंह… सईद की हिम्मत… वो है क्या चीज़… अगर सईद ज़रा भी ख़ुश होते तो मुझे ये अलफ़ाज़ क्यों इस्तेमाल करने पड़ते।”
“इत्ता चौड़ा, चकला और ऊंचा इन्सान और तुम… कुछ कहती हो।”
“इन्सान की बड़ाई चौड़े चकले होने से नहीं होती अक़ल…’
“ऊँह… आख़िर-अक़्ल मंद होने की क्या ऐसी मार है और अक़्ल-मंद मियाँ में ऐसे क्या लाल जड़े होते हैं… बेकार में रौब गांठता है और फिर तुम ही कहती हो कि मर्दों की हुकूमत ना सहनी चाहिए मेरे ख़्याल में ज़मीर… भई ना मियाँ ज़रूरत से ज़्यादा अक़ल मंद होगा। ना हमको दिया जाएगा।”
“तुम में काश ज़रा सोचने की हिम्मत होती… बहस करने लगती हो मगर… ख़ैर ये इस वक़्त मसऊद का क्या ज़िक्र… मैं तो किश्वर को कह रही हूँ।”

“कौन किश्वर…?”
“रूफ़ी वाली…”
“कौन रूफ़ी… ?”
“अल्लाह इतना बनना।”
“ऊँह… तो गोया मैं तुम्हारी किश्वरओं और रफियों के रजिस्टर लिए उनकी मसनवी लिखा करती हूँ, तुम्हारा मतलब किश्वर से है… वो रूफ़ी किश्वर… ?”
“जी वही… रोए ना तो ग़रीब क्या करे… हम औरतें तो रोने के लिए ही पैदा होती हैं।”
ये चंद आख़िरी अल्फ़ाज़ मैंने ख़ुद से कहे और ठंडा सांस ना रोक सकी।
“हाँ रोने से आँखों में चमक पैदा होती है, सारा गर्द-ओ-ग़ुबार…”
“और तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो जाता है… जाओ राहत मैं इस वक़्त तुम्हारी बद-मज़ाक़ी सहने के लायक़ नहीं। जाओ टेनिस खेलो।”
“हूँ टेनिस खेलो… जैसे तुम्हारे भइया को आती भी बड़ी टेनिस है। मैं तो कही कि चलो भई हो आएं ज़रा…आप हैं कि…” राहत बुरा मान गई।
“तो तुम समझती हो मैं बड़ी ख़ुश बैठी हूँ कि तुम मुझे आकर जलाओ। एक तो तुम बार-बार ज़मीर को बुरा-भला कहे जा रही हो, आज वैसे ही परेशान हूँ, किश्वर से मिली थी… तुम्हें क्यों याद होगी किश्वर… तुम कोई उस की मसनवी थोड़ी ही लिख रही हो…”

“हाँ हाँ फिर क्या हुआ…?”
“उसकी शादी हो रही है…” मैंने उठते हुए तूफ़ान को दबाया कई दिन से दबा रही थी।
“अच्छा कब…?”
राहत को किश्वर के दुख से सुख ना पहुँचेगा तो किसे पहुँचेगा। किश्वर ठहरी मेरी दोस्त और मैं ज़मीर की बहन और ज़मीर राहत की ज़बरदस्ती के आशिक़, मैंने इरादा कर लिया कि आज में हूँ और ज़मीर, सूअर कहीं का…”
“क्या इसी मरघुले से तो नहीं हो रही है…” राहत डर गई।
ये मरघिल्ला रूफ़ी को कहा जा रहा था… और क्यों… वो इसलिए कि राहत उस के अश’आर से नफ़रत करती थी, क्यों…? क्योंकि बस थी… फ़रमाती थीं… “बहुत बे-ढंगे शेअर कहता है।” अब शेरों में ना जाने ढीले और तंग शेअर कैसे होते हैं…?”

“तुम उसे मरघिल्ला कहती हो… लेकिन किश्वर के दिल से पूछो।”
“किश्वर तो सदा की सड़न है।”
“बस राहत ज़्यादा मत बनो… तुमसे ज़्यादा…”
“ए हे माफ़ करो… बाज़ आई मैं तुम्हारी किश्वर के क़िस्से से, ख़त्म भी करो…” राहत मुँह बनाकर टांगें सुकेड़ कर लेट गई।
“तुम्हें मा’लूम है कि वो मर जायेगी… मगर रूफ़ी के सिवा किसी से शादी ना करेगी और अम्माँ कहती हैं कि मैं तो शौकत से करूँगी…”

“ए हे बुढ़िया शादी कर रही है…” राहत चौंक कर उठी… “तुम्हें ख़ुदा की क़सम…”
“ओहो… ओहो… जैसे कुछ इतराने में भी मज़ा है। किश्वर की शादी का ज़िक्र है और बनने लगीं…”
“अरे… में समझी… ख़ैर… फिर… ?”
“अरे… कहती है कि ज़हर खा लूंगी मगर रूफ़ी के सिवा…” बावजूद ज़ब्त के मेरा गला घुट गया।
“अरे… मगर कौन सा ज़हर खाएगी… मेरे ख़्याल में साइनाईड ठीक रहेगा।”

“राहत का कलेजा और लोहे का दिल उसी को कहते हैं… साथ खेले, साथ बढ़े, साथ स्कूल गए और फिर कॉलेज… मगर इस बे-हिस गोश्त के लोथड़े को…” ओफ़्फ़ो… मेरा ख़ून फिर खौल गया।
“चुप रहो बे-रहम काश बजाय इन्सान के ख़ुदा तुम्हें एक चट्टान बनाता जिस पर… जिस पर…” मुझे कोई पुर-मअनी लफ़्ज़ ही ना मिला। “तुम्हारी बेरुख़ी दूसरों को दुख ना पहुंचाती… ज़रा सोचो बेक़ुसूर किश्वर ने तुम्हारे साथ क्या बदी की है, उसने तुम्हें क्या दुख पहुंचाया, वो जो एक मासूम चिड़िया से भी मासूम है। वो जिसने सर झुका कर दुनिया के दुख सह लिए और सह रही है वो जिसे उस की ज़ालिम माँ दौलत और शौहरत की भेंट चढ़ा रही है, जो सर लटकाए राज़ी-ब-रज़ा क़ुर्बान गाह की तरफ़ जा रही है।”

मेरी ज़बान के साथ साथ उम्दा-उम्दा जुमले तेज़ी से जा रहे थे… “जिसने क़साई के सामने गर्दन डाल दी है और ख़ामोश उस की छुरी की धार को देखकर अपना ही ख़ून जला रही है। तुम भी उसे दो बातें कह लो। मगर दूर हो जाओ मेरी आँखों से जाओ राहत…”
“ए है तौबा… माशा अल्लाह तुम बड़ी बद-मिज़ाज हो…” राहत डर कर सिकुड़ गई।
“ऐसा मैंने क्या कह दिया।”
“तुमने क्या कहा… और ऊपर से ये भी पूछने की हिम्मत है, तुम उस की मौत पर हंस रही हो, उस का ख़ून हो रहा है। तुम हंस रही हो। वो मुर्ग़-ए-बिस्मिल हो रही है और तुम हंस रही हो… उसकी लाश… हाँ उस की लाश पर तुम दाँत निकाल रही हो…” मुझे कुछ नज़र ना आता था। सिवाए एक मासूम के जनाज़े के।

“ओह… मुझे डर लग रहा है… अल्लाह का वास्ता चुप हो जाओ। अच्छा ज़रा बिजली जला दो मुझे डर लग रहा है…” राहत पीली पड़ गई।
“तुम समझती हो कि तुम्हारे ऊपर उस का कुछ असर ना होगा। तुम हँसती ही रहोगी उस की मौत पर… मगर याद रखो राहत… किश्वर तुम्हें नहीं छोड़ेगी वो मर जाएगी… मगर क्या वो तुमसे सवाल ना कर सकेगी… उसकी रूह…”

“हाय बिजली जलाऊँ मैं… अच्छी बहन मेरा दम निकल जाएगा।”
राहत बुज़्दिलों की तरह चिल्लाई और जल्दी से अपने पैर तख़्त के ऊपर रख लिए गोया तहत के नीचे से किश्वर की रूह अभी से उसके पैर खींच रही है।

“तुम उस को बचाओ… बचाओगी… तुम उस की मदद करोगी… “ मैंने एक मेसमेरिज़्म का तमाशा करने वाले की तरह कहा।
“हाँ… मगर बिजली… “ राहत काँप रही थी… “हाँ… अब…”
“तुम उस की माँ को मजबूर करोगी कि वो उस के क़त्ल से बाज़ आए।”
“मगर वो… वो तो… बहन उनकी माँ से डर लगता है मुझे।” मेरी आवाज़ की नरमी से इस की गई हुई हिम्मत वापिस आ गई।
“मैं और तुम उस की माँ को मजबूर करेंगे कि वो किश्वर को ज़िंदा दफ़न ना करे…”

“हाँ तुम करना… रेहाना तुम बहुत बहादुर हो… तुम… तुम वाक़ई बहुत ज़बरदस्त हस्ती हो। तुम इन्सानियत का बेहतरीन मुजस्सिमा हो। रेहाना अगर हमारी क़ौम में ऐसी ही चंद लड़कीयां पैदा हो जाएं तो हम ग़ुलाम क्यों रहें और अब तुम बिजली जला दो… मैं ज़मीन पर नहीं उतरुंगी, मेरा जूता भी तो ना जाने किधर है…” वो काँपती हुई आवाज़ में एक भटके हुए रास्ते से वापस लौट रही थी।
“हम उससे लड़ेंगे। और ये क़ुर्बानी ना होने देंगे…” मैंने अपने आपको एक तय्यारे पर से बम गिराते महसूस किया जिनके शोले शौकत और किश्वर की माँ को निगल रहे थे। “मगर… वो किश्वर ख़ुद जो अपनी माँ से लड़े ना… ऐसी नन्ही है क्या…”

“वो ख़ुद लड़े… मुझे फिर जोश आया… वो पढ़ी लिखी है, है तो क्या है। राहत वो मशरिक़ी औरत है… वो बेशर्मी नहीं लाद सकती… वो कह चुकी है कि चाहे कुछ हो जाए वो ज़बान हिलाए बग़ैर जान दे देगी… तुम जानती हो वो सदा की कमज़ोर दिल है…”
“तो बहन… मैं कौन सी पहलवान हूँ…” राहत और कोने में दुबक गई।
“तुम हो या ना हो… मगर मैं करूँगी… मैं ख़ुद करूँगी… राहत अब तक मैं तुम्हें बे-रहम ही समझती थी… अब मा’लूम हुआ कि तुम बुज़्दिल भी हो। चूहे से डर जाने वाली लड़कियाँ… यही तो हमारी क़ौम की गु़लामी की ज़िम्मेदार हैं…”

“ओहो… कोई भी नहीं…” शिकस्त ख़ूर्दा आवाज़ में कहा गया।
“सच बताओ किश्वर… वो मेरा मतलब है राहत! कभी तुम्हारे दिल में अपनी जिन्स की बरतरी का ख़्याल भी आता है… कभी ये भी सोचती हो कि हम कब तक ज़ालिम मर्दों की हुकूमत सहेंगे… कब तक वो हमें अपनी लौंडियाँ बनाए चार-दीवारी में क़ैद रखेंगे… कब तक यूंही हम दबे मार खाते रहेंगे… बताओ बोलो…” मुझ पर फिर जोश सवार हो रहा था।

“सोचा क्यों नहीं… सोचती ही हूँ।”
“क्या सोचती हो… ज़रा बताओ क्या सोचती हो…”
“यही कि भई … यही सोचा करती हूँ कि अब… असल बात तो ये है कि मैं तो कुछ भी नहीं सोचती और भला सोचों भी क्या…”
“यही सोचो यही, कि किस तरह तुम अपनी क़ौम और मुल्क के लिए क़ुर्बानी कर सकती हो। किस तरह तुम अपने इल्म से दूसरों को फ़ायदा पहुंचा सकती हो। उट्ठो राहत अभी वक़्त हाथ से नहीं गया… ये तुम्हारा टेनिस भला क़ौम को क्या बुलंदी पर ले जा सकता है…”

“बुलंदी… ?” राहत ने ख़ामोशी को तोड़ा… “रेहाना मुझे आज यक़ीन हो गया कि वाक़ई तुम कुछ हो। तुम… मैं तुम्हें झक्की और कज-बहस कहा करती थी मगर आज… माफ़ कर दो… माफ़ कर दो… तुम कहो, मैं तुम… तुम्हारा कहना मानूँगी। बताओ… मैं कल ही अपना रैकट तोड़ दूँगी… क्यों तोड़ दूं? और मैं ज़मीर … उसे भी… मैं अब टेनिस ही नहीं खेलूंगी। मैं उससे शादी नहीं करूँगी। मैं उससे कह दूँगी कि अब तुम इस ख़्याल को छोड़ो और अब तुम्हें अब अँगूठी के डिज़ाइन तलाश करने की ज़रूरत नहीं…” राहत के लहजे में रिक़्क़त और पशेमानी भरी थी।

“मुझे तुमसे यही उम्मीद थी… मैं कल किश्वर के पास जाऊँगी और उसे यक़ीनन इस शिकरे के पंजे से निजात दिलाऊँगी… तुम चलोगी… क्यों चलोगी ना… ?”
राहत कुछ नीम मुर्दा और परेशान सी चली गई। बरामदे में, मैंने उसे ज़मीर के शाने पर सर रखे सिसकियाँ भरते देखा। ना जाने वो क्या बड़-बड़ा रहे थे। “इसका दिमाग़ ख़राब हो गया है…” वो ना जाने किसे कह रही थी।

रात मेरे लिए लंबी और अँधेरी थी। मगर वो मुझे एक रोशन सितारा नज़र आ रहा था… ये मेरी क़ुव्वत-ए-फै़सला थी जो मेरी हिम्मत बढ़ा रही थी, मैं किश्वर को बचाऊंगी… में एक मासूम चिड़िया को शिकरे के ख़ौफ़नाक पंजों में से निकाल लाऊँगी।
शौकत को अपनी दौलत का घमंड है। अपनी सूरत पर नाज़ है और ता’लीम पर अकड़ता है। ये सब कुछ धरा रह जाएगा।

सैह पहर को राहत और मैं किश्वर के यहां पहुंच गए… “ओह।” किश्वर को देखकर मेरा दिल मसल कर रह गया… वो मुझे अजीब घबराई और खोई हुई नज़रों से देख रही थी… मुझे नज़र भर कर ना देख सकती थी शायद उन आँसूओं को वो बेकार छिपाने की कोशिश कर रही थी जो ख़ून बन कर उस के रुख़्सारों पर दमक रहे थे। गो उस की आँखें ख़ुश्क थीं वो एक शंगरनी रंग की साड़ी पहने आईने के सामने जूड़े में पिनें लगा रही थी। उसे इस भड़कीले लिबास में देखकर मैं सहम गई कि सती होने की तैयारीयाँ हो रही हैं मगर अब मैं आ गई थी… मैंने प्यार से उसकी ठोढ़ी छूई और वो एक मुर्दा सी हंसी में डूब गई।

“डरती क्यों हो…” मैंने उस की आँखों में आँखें डालीं।
मगर वो नज़र बचा गई… और नाख़ूनों की पालिश की शीशियां निकाल कर अपनी साड़ी पर रख कर मौज़ूं रंग छाँटने लगी।
“जो कुछ होना था हो गया… मेरी क़िस्मत… राहत ये ठीक है?” उसने राहत को एक शीशी दिखाई।
“कुछ भी नहीं हुआ… तुम जो चाहोगी… वही होगा। किसी की मजाल नहीं कि वो तुम्हारी मर्ज़ी के बग़ैर तुम्हें इस बे-पसंद की शादी की आग में झोंके।”
वो घबराकर इधर-उधर देखने लगी… और जल्दी से नाख़ुन रंगना शुरू कर दिए।
“तुम डरती किस से हो…” वो और भी घबराई… “मेरी बात सुनो किश्वर …”
“छोड़ो रेहाना इन बातों को हाँ ये तो बताओ वो तुम्हारी किताब…”
“मेरी किताब तो डालो चूल्हे में और तुम ये बताओ आख़िर तुम्हारी वालदा?”
“जाने भी दो…” उसने जल्दी से बात काटी… “हाँ राहत वो तुम्हारे टेनिस का क्या हाल है…” उसने मेरे पास सोफ़े पर बैठते हुए कहा।
“टेनिस… टेनिस… तुम… वो अब… ख़ैर बताओ। कि शौकत कहाँ हैं…” राहत ने पूछा और किश्वर का रंग तमतमा उठा।
“हाँ… वो शौकत साहब कहाँ हैं… ज़रा मुझे उनसे भी दो बातें करनी हैं… बे-रहम इन्सान… अगर इन्सान कहलाने के…”
“हटाओ भी रेहाना… जो मेरी क़िस्मत में लिखा था…” वो डर कर और भी घबराई।

मुझे मा’लूम हो गया है कि किश्वर किस से डरी थी। घबरा घबराकर वो बराबर वाले कमरे की तरफ़ ऐसे देखती थी गोया अब कोई शेर इसमें से निकल कर उसे फाड़ खाएगा।
शौकत… मेरा जी चाहा उसे … ना जाने दूं, ना जाने क्या करूँ? ये मासूम लड़की के दिल में उसने ना जाने क्या दहश्त बिठा दी थी। कि वो उस के ज़िक्र ही से घबरा जाती थी… मेरा इरादा और भी मुस्तक़िल हो गया। फ़ौलाद की सी सख़्ती आ गई… मैं ना सिर्फ किश्वर ही को बचाऊंगी। बल्कि मेरा हाथ दूर दूर पहुंच कर हज़ारों बेकस लड़कियों को पनाह के अहाते में ले-लेगा, राहत की तरह सारी की सारी लड़कियां क़ौम की दासियां बन जाएँगी और फिर-फिर हिन्दोस्तान आज़ाद हो जाएगा, आज़ाद…

“किश्वर, छः बजने में सिर्फ पाँच मिनट हैं,” क़रीब के कमरे से एक भारी सी मर्दाना आवाज़ आई और किश्वर सर से पैर तक लरज़ गई। वो झपट कर सिंघार मेज़ के क़रीब गई… मैं समझ गई। इससे पहले कि वो दराज़ खोले और सिम-ए-क़ातिल उस के होंटों से गुज़रे में पहुंच गई। और उसे अपनी तरफ़ खींच लिया। उसकी साड़ी का पल्लू गिर गया और वो बे तरह घबरा गई।

“किश्वर … इतनी बुज़्दिली… जानती हो ख़ुदकुशी…”
“ऊंह… मैं तो बटवा निकाल रही हूँ… बैठो रेहाना मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती…”
“वो कुछ छुपा रही थी मुझसे… बहुत कुछ…”
“किश्वर तैयार हो चुकी…” वो करीह और भर्राई हुई आवाज़ फिर गूँजी और किश्वर और भी परेशान हो गई… मैं जानती थी उस वक़्त उस की क्या हालत होगी जिस तरह सूली पर चढ़ाने से पहले ख़ौफ़नाक घड़ियाल भयानक आवाज़ में गुनगुनाता है। इसी तरह ये आवाज़… फिर आई।
“और लीला राम के यहां भी तो जाना है,” और फिर एक सीटी शुरू हो गई।
“ज़रा ठहरो रेहाना में अभी आई।” मैंने उसे रोकना चाहा। लेकिन राहत ने मेरा हाथ रोक दिया।
“रेहाना क्या है। तुम बिल्कुल ही बच्ची हो… सुनो तुम्हें नहीं मा’लूम कि…”
मैंने अब उसकी बात एक नहीं सुनी। पास के कमरे से वही गुड़-गुड़ाती आवाज़ क़ह-क़हा लगा रही थी। दबे हुए गहरे क़ह-क़हे और किश्वर गोया सिसकियाँ ले रही थी। बारीक और दबी हुई आहें।

“लाहौल वलाक़ुव्वा…” वो मोटी आवाज़ से बोली।
“सुनो तो… सुनो तो…” किश्वर की परेशान आवाज़ आई। वो उस मर्दूद की इल्तिजाएँ कर रही थी फिर ऐसा मा’लूम हुआ जैसे कोई किसी को पकड़ कर घसीट रहा हो और वो ख़ुशामद करे जाँ-कनी में… पनाह मांगे और फिर और भी घुटी-घुटी आवाज़ आने लगी गोया कोई ज़बरदस्त दरिन्दा किश्वर को भनभोड़ रहा हो। मेरी कनपटियां फड़फड़ाने लगीं। नसें खिच गईं… और हाथ अकड़ गए। वो वक़्त आन पहुंचा था। में एक दम खड़ी हो गई।

“हैं हैं रेहाना क्या करती हो…” राहत ने मुझे रोका।
“किश्वर … मेरी किश्वर …” मैं बे-साख़्ता चीख़ पड़ी और दूसरे लम्हे दरवाज़े का पर्दा अलग हो गया। और थोड़ी देर के लिए मेरी सारी ताक़तें सल्ब हो गईं, बीचों-बीच कमरे में एक अलमारी से ज़रा हट कर शौकत के भयानक और ज़ालिम बाज़ुओं में एक मुर्दा चिड़िया की तरह किश्वर निढाल हो रही थी और वो… ये समझ लीजीए कि कबूतर को आपने कभी बच्चे को दाना भराते देखा है। बस बिलकुल वैसे ही… बिलकुल उसी तरह… दूसरे लम्हे शौकत तो सर खुजा-खुजा कर पास टंगी हुई तस्वीर में रंगों की आमेज़िश देख रहे थे और किश्वर जल्दी-जल्दी अपना बटवा खोल और बंद कर रही थी। आँखें झुकी हुई थीं और चेहरा लाल था।

“ये… ये शौकत हैं रेहाना… शौकत…” किश्वर कह रही थी।
जब मैं बरामदे में सर लटकाए लड़खड़ाए क़दमों से वापिस हो रही थी तो मैंने ज़मीर को एक लम्बा सा पार्सल लिए देखा और उसमें से उसके लिए नया रैकट निकाल रहा था। वो ख़ुद अपनी उंगली पर अँगूठी की चमक देखने में ग़र्क़ थी, वो हँसे।
मगर मेरे कान मेरे जिस्म से दूर कहीं मौत का सा नग़मा सुन रहे थे और मेरी आँखें फ़िज़ा मैं हज़ारों जनाज़ों के जलूस गुज़रे देख रही थीं।

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