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इंक़िलाब-पसंद हिंदी कहानी, Inqilaab Pasand Hindi Kahani
मेरी और सलीम की दोस्ती को पाँच साल का अर्सा गुज़र चुका है। उस ज़माने में हमने एक ही स्कूल से दसवीं जमात का इम्तिहान पास किया, एक ही कॉलेज में दाख़िल हुए और एक ही साथ एफ़.ए. के इम्तिहान में शामिल हो कर फ़ेल हुए। फिर पुराना कॉलेज छोड़कर एक नए कॉलेज में दाख़िल हुए… उस साल मैं तो पास हो गया। मगर सलीम सू-ए-क़िस्मत से फिर फ़ेल हो गया। सलीम की दुबारा नाकामयाबी से लोग ये नतीजा अख़्ज़ करते हैं कि वो आवारा मिज़ाज और नालायक़ है। ये बिल्कुल इफ़्तिरा है। सलीम का बग़ली दोस्त होने की हैसियत से मैं ये वसूक़ से कह सकता हूँ कि सलीम का दिमाग़ बहुत रोशन है। अगर वो कॉलेज की पढ़ाई की तरफ़ ज़रा भी तवज्जो देता तो कोई वजह न थी कि वो सूबा भर में अव्वल न रहता।
अब यहां ये सवाल पैदा होता है कि उसने पढ़ाई की तरफ़ क्यों तवज्जो न दी? जहां तक मेरा ज़ेहन काम देता है मुझे उसकी तमाम तर वजह, वो ख़यालात मालूम होते हैं जो एक अर्से से उसके दिल-ओ-दिमाग़ पर आहिस्ता आहिस्ता छा रहे थे? दसवीं जमात और कॉलेज में दाख़िल होते वक़्त सलीम का दिमाग़ उन तमाम उलझनों से आज़ाद था। जिन्होंने उसे उन दिनों पागलख़ाने की चारदीवारी में क़ैद कर रखा है। अय्याम-ए-कॉलेज में वो दीगर तलबा की तरह खेल कूद में हिस्सा लिया करता था। सब लड़कों में हर दिल अज़ीज़ था। मगर यकायक उसके वालिद की नागहानी मौत ने उसके मुतबस्सिम चेहरे पर ग़म की नक़ाब ओढ़ा दी… अब खेल कूद की जगह ग़ौर-ओ-फ़िक्र ने ले ली।
वो क्या ख़यालात थे, जो सलीम के मुज़्तरिब दिमाग़ में पैदा हुए? ये मुझे मालूम नहीं। सलीम की नफ़्सियात का मुताला करना बहुत अहम काम है। इसके इलावा वो ख़ुद अपनी दिली आवाज़ से ना आश्ना था। उसने कई मर्तबा गुफ़्तुगू करते वक़्त या यूंही सैर करते हुए अचानक मेरा बाज़ू पकड़ कर कहा है, “अब्बास जी चाहता है कि…” “हाँ, हाँ, क्या जी चाहता है।” मैंने उसकी तरफ़ तमाम तवज्जो मब्ज़ूल करके पूछा है। मगर मेरे इस इस्तिफ़सार पर उसके चेहरे की ग़ैरमामूली तबदीली और गले में सांस के तसादुम ने साफ़ तौर पर ज़ाहिर किया कि वो अपने दिली मुद्दा को ख़ुद न पहचानते हुए अल्फ़ाज़ में साफ़ तौर पर ज़ाहिर नहीं कर सकता।
वो शख़्स जो अपने एहसासात को किसी शक्ल में पेश कर के दूसरे ज़ेहन पर मुंतक़िल कर सकता है। वो दरअसल अपने दिल का बोझ हल्का करने की क़ुदरत का मालिक है और वो शख़्स जो महसूस करता है। मगर अपने एहसास को ख़ुद आप अच्छी तरह नहीं समझता। और फिर इस इज़्तिराब को बयान करने की क़ुदरत नहीं रखता, उस शख़्स के मुतरादिफ़ है जो अपने हलक़ में ठुँसी हुई चीज़ को बाहर निकालने की कोशिश कर रहा हो। मगर वो गले से नीचे उतरती चली जा रही हो… ये एक ज़ेहनी अज़ाब है। जिसकी तफ़सील लफ़्ज़ों में नहीं आ सकती।
सलीम शुरू ही से अपनी आवाज़ से नाआश्ना रहा है, और होता भी क्योंकर, जब उसके सीने में ख़यालात का एक हुजूम छाया रहता था। बा’ज़ औक़ात ऐसा भी हुआ है कि वो बैठा बैठा उठ खड़ा हुआ है और कमरे में चक्कर लगा कर लंबे-लंबे सांस भरने शुरू कर दिए… ग़ालिबन वो अपने अंदरूनी इंतिशार से तंग आकर उन ख़यालात को जो उसके सीने में भाप के मानिंद चक्कर लगा रहे होते, सांसों के ज़रीये बाहर निकालने का कोशां हुआ करता था। इज़्तिराब के इन्ही तकलीफ़देह लम्हात में उसने अक्सर औक़ात मुझसे मुख़ातिब हो कर कहा, “अब्बास! ये ख़ाकी कश्ती किसी रोज़ तुन्द मौजों की ताब न ला कर चट्टानों से टकरा कर पाश पाश हो जाएगी… मुझे अंदेशा है कि…”
वो अपने अंदेशे को पूरी तरह बयान नहीं कर सकता था। सलीम किसी मुतवक़्क़े हादिसे का मुंतज़िर ज़रूर था। मगर उसे ये मालूम न था कि वो हादिसा किस शक्ल में पर्दा ज़हूर पर नुमूदार होगा… उसकी निगाहें एक अर्से से धुंदले ख़यालात की सूरत में एक मौहूम साया देख रही थीं जो उसकी तरफ़ बढ़ता चला आ रहा था। मगर वो ये नहीं बता सकता था कि इस तारीक शक्ल के पर्दे में क्या निहां है।
मैंने सलीम की नफ़्सियात समझने की बहुत कोशिश की है। मगर मुझे उसकी मुनक़लिब आदात के होते हुए कभी मालूम नहीं हो सका कि वो किन गहराईयों में ग़ोताज़न है और वो इस दुनिया में रह कर अपने मुस्तक़बिल के लिए क्या करना चाहता है जब कि अपने वालिद के इंतिक़ाल के बाद वो हर क़िस्म के सरमाए से महरूम कर दिया गया था।
मैं एक अर्से से सलीम को मुनक़लिब होते देख रहा था। उसकी आदात दिन ब दिन बदल रही थीं… कल का खलनडरा लड़का, मेरा हम-जमाअत एक मुफ़क्किर में तबदील हो रहा था। ये तबदीली मेरे लिए सख़्त बाइस-ए-हैरत थी। कुछ अर्से से सलीम की तबीयत पर एक ग़ैरमामूली सुकून छा गया था। जब देखो अपने घर में ख़ामोश बैठा हुआ है और अपने भारी सर को घुटनों में थामे कुछ सोच रहा है… वो क्या सोच रहा होता। ये मेरी तरह ख़ुद उसे भी मालूम न था।
उन लम्हात में मैंने उसे अक्सर औक़ात अपनी गर्म आँखों पर दवात का आहनी ढकना या गिलास का बैरूनी हिस्सा फेरते देखा है… शायद वो इस अमल से अपनी आँखों की हरारत कम करना चाहता था।
सलीम ने कॉलेज छोड़ते ही ग़ैर मुल्की मुसन्निफ़ों की भारी-भरकम तसानीफ़ का मुताला शुरू कर दिया था। शुरू शुरू में मुझे उसकी मेज़ पर एक किताब नज़र आई। फिर आहिस्ता-आहिस्ता उस अलमारी में जिसमें वो शतरंज, ताश और इसी क़िस्म की दीगर खेलें रखा करता था, किताबें ही किताबें नज़र आने लगीं… इसके इलावा वो कई कई दिनों तक घर से कहीं बाहर चला जाया करता था।
जहां तक मेरा ख़याल है सलीम की तबीयत का ग़ैरमामूली सुकून इन किताबों के अनथक मुताला का नतीजा था जो उसने बड़े करीने से अलमारी में सजा रखी थीं। सलीम का अज़ीज़ तरीन दोस्त होने की हैसियत में मैं उसकी तबीयत के ग़ैरमामूली सुकून से सख़्त परेशान था। मुझे अंदेशा था कि ये सुकून किसी वहशतख़ेज़ तूफ़ान का पेशख़ेमा है। इसके इलावा मुझे सलीम की सेहत का भी ख़याल था। वो पहले ही बहुत कमज़ोर जुस्से का वाक़ा हुआ था। इस पर उसने ख़्वाह-मख़्वाह अपने आप को ख़ुदा मालूम किन किन उलझनों में फंसा लिया था।
सलीम की उम्र बमुश्किल बीस साल की होगी। मगर उसकी आँखों के नीचे शब बेदारी की वजह से स्याह हलक़े पड़ गए थे। पेशानी जो इससे क़ब्ल बिल्कुल हमवार थी अब उस पर कई शिकन पड़े रहते थे… जो उसकी ज़ेहनी परेशानी को ज़ाहिर करते थे। चेहरा जो कुछ अर्सा पहले बहुत शगुफ़्ता हुआ करता था। अब उस पर नाक और लब के दरमियान गहरी लकीरें पड़ गई थीं। जिन्होंने सलीम को क़ब्ल अज़-वक़्त मोअम्मर बना दिया था… इस ग़ैरमामूली तबदीली को मैंने अपनी आँखों के सामने वक़ूअपज़ीर होते देखा है। जो मुझे एक शोबदे से कम मालूम नहीं होती… ये क्या तअज्जुब की बात है कि मेरी उम्र का लड़का मेरी नज़रों के सामने बूढ़ा हो जाये।
सलीम पागलख़ाने में है। इसमें कोई शक नहीं। मगर इसके ये मानी नहीं हो सकते कि वो सड़ी और दीवाना है। उसे ग़ालिबन इस बिना पर पागलख़ाने भेजा गया है कि वो बाज़ारों में बुलंद-बाँग तक़रीरें करता है… राह गुज़रों को पकड़-पकड़ कर उन्हें ज़िंदगी के मुश्किल मसाइल बता कर जवाब तलब करता है और उमरा के हरीर पोश बच्चों का लिबास उतार कर नंगे बच्चों को पहना देता है।
मुम्किन है, ये हरकात डाक्टरों के नज़दीक दीवानगी की अलामतें हों। मगर मैं यक़ीन के साथ का सकता हूँ कि सलीम पागल नहीं है बल्कि वो लोग जिन्होंने उसे अमन-ए-आम्मा में ख़लल डालने वाला तसव्वुर करते हुए आहनी सलाखों के पिंजरे में क़ैद कर दिया है, किसी दीवाने हैवान से कम नहीं हैं! अगर वो अपनी ग़ैर मरबूत तक़रीर के ज़रिये लोगों तक अपना पैग़ाम पहुंचाना चाहता है तो क्या उनका फ़र्ज़ नहीं कि वो उसके हर लफ़्ज़ को ग़ौर से सुनें?
अगर वो राह गुज़ारों के साथ फ़ल्सफ़ा-ए-हयात पर तबादला-ए-ख़यालात करना चाहता है तो क्या इसके ये मानी लिए जाऐंगे कि उसका वजूद मजलिसी दायरे के लिए नुक़्सानदेह है? क्या ज़िंदगी के हक़ीक़ी मानी से बाख़बर होना हर इंसान का फ़र्ज़ नहीं है? अगर वो मुतमव्विल अश्ख़ास के बच्चों का लिबास उतार कर गुरबा के ब्रहना बच्चों का तन ढाँपना चाहता है तो क्या ये अमल उन अफ़राद को उनके फ़राइज़ से आगाह नहीं करता जो फ़लकबोस इमारतों में दूसरे लोगों के बलबूते पर आराम की ज़िंदगी बसर कर रहे हैं। क्या नंगों की सतर पोशी करना ऐसा फ़ेअल है कि इसे दीवानगी पर महमूल किया जाये?
सलीम हरगिज़ पागल नहीं है। मगर मुझे ये तस्लीम है कि उसके अफ़्क़ार ने उसे बेखु़द ज़रूर बना रखा है। दरअसल वो दुनिया को कुछ पैग़ाम देना चाहता है। मगर दे नहीं सकता, एक कमसिन बच्चे की तरह वो तुतला तुतला कर अपने कलबी एहसासात बयान करना चाहता है। मगर अल्फ़ाज़ उसकी ज़बान पर आते ही बिखर जाते हैं। वो इससे क़ब्ल ज़ेहनी अज़ीयत में मुब्तला है। मगर अब उसे और अज़ीयत में डाल दिया गया है। वो पहले ही से अपने अफ़्क़ार की उलझनों में गिरफ़्तार है और अब उसे ज़िंदाँनुमा कोठड़ी में क़ैद कर दिया गया है… क्या ये ज़ुल्म नहीं है?
मैंने आज तक सलीम की कोई भी ऐसी हरकत नहीं देखी जिससे मैं ये नतीजा निकाल सकूं कि वो दीवाना है। हाँ, अलबत्ता कुछ अर्से से मैं उसके ज़ेहनी इन्क़िलाबात का मुशाहिदा ज़रूर करता रहा हूँ। शुरू शुरू में जब मैंने उसके कमरे के तमाम फ़र्नीचर को अपनी अपनी जगह से हटा हुआ पाया तो मैंने इस तबदीली की तरफ़ ख़ास तवज्जो न दी, दरअसल मैंने उस वक़्त जो ख़याल किया कि शायद सलीम ने फ़र्नीचर की मौजूदा जगह को ज़्यादा मौज़ूं ख़याल किया है और हक़ीक़त तो ये है कि मेरी नज़रों को जो कुर्सियों और मेज़ों को कई सालों से एक जगह देखने की आदी थीं, वो ग़ैर मुतवक़्क़े तबदीली बहुत भली मालूम हुई।
इस वाक़े के चंद रोज़ बाद जब मैं कॉलेज से फ़ारिग़ हो कर सलीम के कमरे में दाख़िल हुआ तो क्या देखता हूँ कि फ़िल्मी मुमसिलों की दो तसावीर जो एक अर्से से कमरे की दीवारों पर आवेज़ां थीं और जिन्हें मैं और सलीम ने बहुत मुश्किल के बाद फ़राहम किया था, बाहर टोकरी में फटी पड़ी हैं और उनकी जगह उन्ही चौखटों में मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ों की तस्वीरें लटक रही हैं… चूँकि मैं ख़ुद उन तसावीर का इतना मुश्ताक़ न था। इसलिए मुझे सलीम का ये इंक़िलाब बहुत पसंद आया। चुनांचे हम उस रोज़ देर तक उन तस्वीरों के मुतअल्लिक़ गुफ़्तुगू भी करते रहे।
जहां तक मुझे याद है इस वाक़िया के बाद सलीम के कमरे में एक माह तक कोई ख़ास काबिल-ए-ज़िक्र तबदीली वाक़े नहीं हुई। मगर इस अर्से के बाद मैंने एक रोज़ अचानक कमरे में बड़ा सा तख़्त पड़ा पाया… जिस पर सलीम ने कपड़ा बिछा कर किताबें चुन रखीं थीं और आप क़रीब ही ज़मीन पर एक तकिया का सहारा लिए कुछ लिखने में मसरूफ़ था।
मैं ये देख कर सख़्त मुतअज्जिब हुआ और कमरे में दाख़िल होते ही सलीम से ये सवाल किया, “क्यों मियां! इस तख़्त के क्या मानी?” सलीम जैसा कि उसकी आदत थी, मुस्कुराया और कहने लगा, “कुर्सियों पर रोज़ाना बैठते-बैठते तबीयत उकता गई है। अब ये फ़र्श वाला सिलसिला ही रहेगा।” बात माक़ूल थी। मैं चुप रहा। वाक़ई रोज़ाना एक ही चीज़ का इस्तेमाल करते करते तबीयत ज़रूर उचाट हो जाया करती है। मगर जब पंद्रह-बीस रोज़ के बाद मैंने वो तख़्त मा तकिए के ग़ायब पाया तो मेरे तअज्जुब की कोई इंतिहा न रही और मुझे शुबहा सा हुआ कि कहीं मेरा दोस्त वाक़ई ख़ब्ती तो नहीं हो गया है।
सलीम सख़्त गर्म-मिज़ाज वाक़े हुआ है। इसके इलावा उसके वज़नी अफ़्क़ार ने उसे मामूल से ज़्यादा चिड़चिड़ा बना रखा था। इसलिए मैं उमूमन उससे ऐसे सवालात नहीं किया करता जो उसके दिमाग़ी तवाज़ुन को दरहम-बरहम कर दें या जिनसे वो ख़्वाह मख़्वाह खिज जाये। फ़र्नीचर की तबदीली, तस्वीरों का इंक़िलाब, तख़्त की आमद और फिर उसका ग़ायब हो जाना वाक़ई किसी हद तक तअज्जुबख़ेज़ ज़रूर हैं और वाजिब था कि मैं इन उमूर की वजह दरयाफ़्त करता। मगर चूँकि मुझे सलीम को आज़ुर्दा-ए-ख़ातिर करना, और उसके काम में दख़ल देना मंज़ूर न था, इसलिए मैं ख़ामोश रहा।
थोड़े अर्से के बाद सलीम के कमरे में हर दूसरे-तीसरे दिन कोई न कोई तबदीली देखना मेरा मामूल हो गया… अगर आज कमरे में तख़्त मौजूद है तो हफ़्ते के बाद वहां से उठा दिया गया है। इसके दो रोज़ बाद वो मेज़ जो कुछ अर्सा पहले कमरे के दाएं तरफ़ पड़ी थी। रात-रात में वहां से उठा कर दूसरी तरफ़ रख दी गई है। अँगीठी पर रखी हुई तसावीर के ज़ाविए बदले जा रहे हैं। कपड़े लटकाने की खूंटियां एक जगह से उखेड़ कर दूसरी जगह पर जड़ दी गई हैं। कुर्सियों के रुख़ तबदील किए गए हैं… गोया कमरे की हर शय एक क़िस्म की क़वाइद कराई जाती थी।
एक रोज़ जब मैंने कमरे के तमाम फ़र्नीचर को मुख़ालिफ़ रुख़ में पाया तो मुझसे न रहा गया और मैंने सलीम से दरयाफ़्त कर ही लिया, “सलीम, मैं एक अर्से से इस कमरे को गिरगिट की तरह रंग बदलता देख रहा हूँ। आख़िर बताओ तो सही ये तुम्हारा कोई नया फ़ल्सफ़ा है।?” “तुम जानते नहीं हो, मैं इन्क़िलाब पसंद हूँ,” सलीम ने जवाब दिया। ये सुन कर मैं और भी मुतअज्जिब हुआ।
अगर सलीम ने ये अल्फ़ाज़ अपनी हस्ब-ए-मामूल मुस्कुराहट के साथ कहे होते तो मैं यक़ीनी तौर पर ये ख़याल करता कि वो सिर्फ़ मज़ाक़ कर रहा है। मगर ये जवाब देते वक़्त उसका चेहरा इस अमर का शाहिद था कि वो संजीदा है। और मेरे सवाल का जवाब वो उन्ही अल्फ़ाज़ में देना चाहता है लेकिन फिर भी मैं तज़बज़ुब की हालत में था। चुनांचे मैंने उससे कहा, “मज़ाक़ कर रहे हो यार?” “तुम्हारी क़सम बहुत बड़ा इन्क़िलाब पसंद,” ये कहते हुए वो खिलखिला कर हंस पड़ा। मुझे याद है कि इसके बाद उसने ऐसी गुफ़्तुगू शुरू की थी। मगर हम दोनों किसी और मौज़ू पर इज़हार-ए-ख़यालात करने लग गए थे। ये सलीम की आदत है कि वो बहुत सी बातों को दिलचस्प गुफ़्तुगू के पर्दे में छुपा लिया करता है।
इन दिनों जब कभी मैं सलीम के जवाब पर ग़ौर करता हूँ, मुझे मालूम होता है कि सलीम दर हक़ीक़त इन्क़िलाब पसंद वाक़े हुआ है। इसके ये मानी नहीं कि वो किसी सलतनत का तख़्ता उलटने के दरपे है। या वो दीगर इन्क़िलाब पसंदों की तरह चौराहों में बम फेंक कर दहश्त फैलाना चाहता है। बल्कि जहां तक मेरा ख़याल है, वो हर चीज़ में इन्क़िलाब देखना चाहता है।
यही वजह है कि उसकी नज़रें अपने कमरे में पड़ी हुई अश्या को एक ही जगह पर न देख सकती थीं। मुम्किन है मेरा ये क़ियाफ़ा किसी हद तक ग़लत हो। मगर मैं ये वसूक़ से कह सकता हूँ कि उसकी जुस्तुजू किसी ऐसे इन्क़िलाब की तरफ़ रुजू करती है जिसके आसार उसके कमरे की रोज़ाना तबदीलियों से ज़ाहिर हैं। बादियुन्नज़र में कमरे की अश्या को रोज़ उलट-पलट करते रहना दीवानगी के मुतरादिफ़ है। लेकिन अगर सलीम की इन बेमानी हरकात का अमीक़ मुताला किया जाये तो ये अमर रोशन हो जाएगा कि उनके पस-ए-पर्दा एक ऐसी क़ुव्वत काम कर रही थी जिससे वो ख़ुद नाआशना था।
इसी क़ुव्वत ने जिसे मैं ज़ेहनी तअस्सुब का नाम देता हूँ, सलीम के दिमाग़ में तलातुम बपा कर दिया और इसका नतीजा ये हुआ कि वो इस तूफ़ान की ताब न ला कर अज़-खुद रफ़्ता हो गया और पागलख़ाने की चारदीवारी में क़ैद कर दिया गया। पागलख़ाने जाने से कुछ रोज़ पहले सलीम मुझे अचानक शहर के एक होटल में चाय पीता हुआ मिला। मैं और वो दोनों एक छोटे से कमरे में बैठ गए। इसलिए कि मैं उससे कुछ गुफ़्तुगू करना चाहता था।
मैंने अपने बाज़ार के चंद दुकानदारों से सुना था कि अब सलीम होटलों में पागलों की तरह तक़रीरें करता है… मैं ये चाहता था कि उससे फ़ौरन मिल कर उसे इस क़िस्म की हरकात करने से मना कर दूं। इसके इलावा ये अंदेशा था कि शायद वो कहीं सचमुच मख़्बूतुल हवास न हो गया हो। चूँकि मैं उससे फ़ौरन ही बात करना चाहता था इसलिए मैंने होटल में गुफ़्तुगू करना मुनासिब समझा।
कुर्सी पर बैठते वक़्त मैं ग़ौर से सलीम के चेहरे की तरफ़ देख रहा था। वो मुझे इस तरह घूरते देख कर सख़्त मुतअज्जिब हुआ। वो कहने लगा, “शायद मैं सलीम नहीं हूँ।” आवाज़ में किस क़दर दर्द था। गो ये जुम्ला आप की नज़रों में बिल्कुल सादा मालूम हो। मगर ख़ुदा गवाह है, मेरी आँखें बेइख़्तयार नमनाक हो गईं। “शायद मैं सलीम नहीं हूँ”… गोया वो हर वक़्त इस बात का मुतवक़्क़े था कि किसी रोज़ उसका बेहतरीन दोस्त भी उसे न पहचान सकेगा। शायद उसे मालूम था कि वो बहुत हद तक तबदील हो चुका है।
मैंने ज़ब्त से काम लिया और अपने आँसुओं को रूमाल में छुपा कर उसके कांधे पर हाथ रखते हुए कहा,“सलीम, मैंने सुना है कि तुमने मेरे लाहौर जाने के बाद यहां बाज़ारों में तक़रीरें करनी शुरू कर दी हैं… जानते भी हो। अब तुम्हें शहर का बच्चा-बच्चा पागल के नाम से पुकारता है।” “पागल! शहर का बच्चा-बच्चा मुझे पागल के नाम से पुकारता है… पागल!… हाँ अब्बास, मैं पागल हूँ… पागल… दीवाना… ख़िरद बाख़्ता… लोग मुझे दीवाना कहते हैं… मालूम है क्यों?”
यहां तक कि वो मेरी तरफ़ सर-ता-पा इस्तिफ़हाम बन कर देखने लगा। मगर मेरी तरफ़ से कोई जवाब न पा कर वो दुबारा गोया हुआ,“इसलिए कि मैं उन्हें ग़रीबों के नंगे बच्चे दिखला-दिखला कर ये पूछता हूँ कि इस बढ़ती हुई ग़ुर्बत का क्या ईलाज हो सकता है?… वो मुझे कोई जवाब नहीं दे सकते। इसलिए वो मुझे पागल तसव्वुर करते हैं… “आह अगर मुझे सिर्फ़ ये मालूम हो कि ज़ुल्मत के इस ज़माने में रोशनी की एक शुआ क्योंकर फ़राहम की जा सकती है। हज़ारों ग़रीब बच्चों का तारीक मुस्तक़बिल क्योंकर मुनव्वर बनाया जा सकता है।
“वो मुझे पागल कहते हैं… वो जिनकी नब्ज़-ए-हयात दूसरों के ख़ून की मरहून मिन्नत है, वो जिनका फ़िर्दोस गुरबा के जहन्नम की मुस्तआर ईंटों से उस्तुवार किया गया है, जिनके साज़-ए-इशरत के हर तार के साथ बेवाओं की आहें, यतीमों की उर्यानी, लावारिस बच्चों की सदा-ए-गिरिया लिपटी हुई है… कहीं, मगर एक ज़माना आने वाला है जब यही परवर्दा-ए-ग़ुर्बत अपने दिलों के मुशतर्का लहू में उंगलियां डुबो-डुबो कर उन लोगों की पेशानियों पर अपनी लानतें लिखेंगे… वो वक़्त नज़दीक है जब अर्ज़ी जन्नत के दरवाज़े हर शख़्स के लिए वा होंगे।
“मैं पूछता हूँ कि अगर मैं आराम में हूँ तो क्या वजह है कि तुम तकलीफ़ की ज़िंदगी बसर करो?… क्या यही इंसानियत है कि मैं कारख़ाने का मालिक होते हुए हर शब एक नई रक़ासा का नाच देखता हूँ, हर रोज़ क्लब में सैंकड़ों रुपये क़िमारबाज़ी की नज़र कर देता हूँ और अपनी निकम्मी से निकम्मी ख़्वाहिश पर बेदरेग़ रुपया बहा कर अपना दिल ख़ुश करता हूँ, और मेरे मज़दूरों को एक वक़्त की रोटी नसीब नहीं होती।
“उनके बच्चे मिट्टी के एक खिलौने के लिए तरसते हैं… फिर लुत्फ़ ये है कि मैं मुहज़्ज़ब हूँ, मेरी हर जगह इज़्ज़त की जाती है और वो लोग जिनका पसीना मेरे लिए गौहर तैयार करता है। मजलिसी दायरे में हक़ारत की नज़र से देखे जाते हैं। मैं ख़ुद उनसे नफ़रत करता हूँ… तुम ही बताओ, क्या ये दोनों ज़ालिम-ओ-मज़लूम अपने फ़राइज़ से नाआश्ना नहीं हैं? मैं इन दोनों को उनके फ़राइज़ से आगाह करना चाहता हूँ। मगर किस तरह करूं?… ये मुझे मालूम नहीं।”
सलीम ने इस क़दर कह कर हाँपते हुए ठंडी चाय का एक घूँट भरा और मेरी तरफ़ देखे बग़ैर फिर बोलना शुरू कर दिया, “मैं पागल नहीं हूँ… मुझे एक वकील समझो। बग़ैर किसी उम्मीद के, जो उस चीज़ की वकालत कर रहा है जो बिल्कुल गुम हो चुकी है… मैं एक दबी हुई आवाज़ हूँ… इंसानियत एक मुँह है और मैं एक चीख़। “मैं अपनी आवाज़ दूसरों तक पहुंचाने की कोशिश करता हूँ मगर वो मेरे ख़यालात के बोझ तले दबी हुई है। मैं बहुत कुछ कहना चाहता हूँ मगर इसीलिए कुछ कह नहीं सकता कि मुझे बहुत कुछ कहना है। मैं अपना पैग़ाम कहाँ से शुरू करूं… ये मुझे मालूम नहीं।
“मैं अपनी आवाज़ के बिखरे हुए टुकड़े फ़राहम करता हूँ, ज़ेहनी अज़ीयत के धुंदले गुबार में से चंद ख़यालात तमहीद के तौर पर पेश करने की सई करता हूँ। अपने एहसासात की अमीक़ गहराईयों से चंद एहसास सतह पर लाता हूँ कि दूसरे अज़हान पर मुंतक़िल कर सकूं मगर मेरी आवाज़ के टुकड़े फिर मुंतशिर हो जाते हैं। ख़यालात फिर तारीकी में रुपोश हो जाते हैं। “एहसासात फिर ग़ोता लगा जाते हैं… मैं कुछ नहीं कह सकता। जब मैं ये देखता हूँ कि मेरे ख़यालात मुंतशिर होने के बाद फिर जमा हो रहे हैं तो जहां कहीं मेरी क़ुव्वत-ए-गोयाई काम देती है, मैं शहर के रूअसा से मुख़ातिब हो कर ये कहने लग जाता हूँ।
“मर्मरीं महल्लात के मकीनो! तुम इस वसीअ कायनात में सिर्फ़ सूरज की रोशनी देखते हो, मगर यक़ीन जानो, इसके साये भी होते हैं… तुम मुझे सलीम के नाम से जानते हो, ये ग़लती है… मैं वो कपकपी हूँ जो एक कुंवारी लड़की के जिस्म पर तारी होती है। जब वो ग़ुर्बत से तंग आकर पहली दफ़ा एवान-ए-गुनाह की तरफ़ क़दम बढ़ाने लगे… आओ हम सब काँपें! “तुम हंसते हो, मगर नहीं तुम्हें मुझे ज़रूर सुनना होगा… मैं एक ग़ोताखोर हूँ। क़ुदरत ने मुझे तारीक समुंदर की गहराईयों में डूबो दिया कि मैं कुछ ढूंढ कर लाऊं… मैं एक बेबहा मोती लाया हूँ… वो सच्चाई है… इस तलाश में मैंने ग़ुर्बत देखी है, गरस्नगी बर्दाश्त की है। लोगों की नफ़रत से दो-चार हुआ हूँ।
“जाड़े में ग़रीबों की रगों में ख़ून को मुंजमिद होते देखा है, नौजवान लड़कियों को इशरतकदों की ज़ीनत बढ़ाते देखा है इसलिए कि वो मजबूर थीं… अब मैं यही कुछ तुम्हारे मुँह पर क़ै कर देना चाहता हूँ कि तुम्हें तस्वीर-ए-ज़िंदगी का तारीक पहलू नज़र आ जाये। इंसानियत एक दिल है। हर शख़्स के पहलू में एक ही क़िस्म का दिल मौजूद है। अगर तुम्हारे बूट ग़रीब मज़दूरों के नंगे सीनों पर ठोकरें लगाते हैं। अगर तुम अपने शहवानी जज़्बात की भड़कती हुई आग किसी हमसाया नादार लड़की की इस्मतदरी से ठंडी करते हो।
अगर तुम्हारी ग़फ़लत से हज़ारहा यतीम बच्चे गहवारा-ए-जहालत में पल कर जेलों को आबाद करते हैं। अगर तुम्हारा दिल काजल के मानिंद स्याह है तो ये तुम्हारा क़ुसूर नहीं। ऐवान-ए-मुआशरत ही कुछ ऐसे ढब पर उस्तुवार किया गया है कि उसकी हर छत अपनी हमसाया छत को दाबे हुए है… हर ईंट दूसरी ईंट को।
जानते हो, मौजूदा निज़ाम के क्या मानी हैं? ये कि लोगों के सीनों को जिहालतकदा बनाए। इंसानी तलज़्ज़ुज़ की कश्ती हो और हवस की मौजों में बहा दे, जवान लड़कियों की इस्मत छीन कर उन्हें ऐवान-ए-तिजारत में खुले बंदों हुस्न-फ़रोशी पर मजबूर कर दे, ग़रीबों का ख़ून चूस कर उन्हें जली हुई राख के मानिंद क़ब्र की मिट्टी में यकसाँ करदे… क्या इसी को तुम तहज़ीब का नाम देते हो… भयानक क़स्साबी! तारीक शैतनियत!
आह, अगर तुम सिर्फ़ वो देख सको जिसका मैंने मुशाहिदा किया है! ऐसे बहुत से लोग हैं जो कब्रनुमा झोंपड़ों में ज़िंदगी के सांस पूरे कर रहे हैं। तुम्हारी नज़रों के सामने ऐसे अफ़राद मौजूद हैं जो मौत के मुँह में जी रहे हैं। ऐसी लड़कियां हैं, जो बारह साल की उम्र में इस्मत फ़रोशी शुरू करती हैं और बीस साल की उम्र में क़ब्र की सर्दी से लिपट जाती हैं।
मगर तुम… हाँ तुम, जो अपने लिबास की तराश के मुतअल्लिक़ घंटों ग़ौर करते रहते हो। ये नहीं देखते, बल्कि उलटा ग़रीबों से छीन कर उमरा की दौलतों में इज़ाफ़ा करते हो। मज़दूर से लेकर काहिल के हवाले कर देते हो। डिग्री पहने इंसान का लिबास उतार कर हरीर पोश के सुपुर्द कर देते हो। तुम गुरबा के ग़ैर मुख़्ततिम मसाइब पर हंसते हो। मगर तुम्हें ये मालूम नहीं कि अगर दरख़्त का निचला हिस्सा लाग़र मुर्दा हो रहा है तो किसी रोज़ वो बालाई हिस्से के बोझ को बर्दाश्त न करते हुए गिर पड़ेगा।” यहां तक बोल कर सलीम ख़ामोश हो गया और ठंडी चाय को आहिस्ता आहिस्ता पीने लगा।
तक़रीर के दौरान में मैं सह्रज़दा आदमी की तरह चुप चुप बैठा उसके मुँह से निकले हुए अल्फ़ाज़ जो बारिश की तरह बरस रहे थे, बग़ौर सुनता रहा। मैं सख़्त हैरान था कि वो सलीम जो आज से कुछ अर्सा पहले बिल्कुल ख़ामोश हुआ करता था, इतनी तवील तक़रीर क्योंकर जारी रख सका है। इसके इलावा ख़यालात किस क़दर हक़ पर मब्नी थे और आवाज़ में कितना असर था… मैं अभी उसकी तक़रीर के मुतअल्लिक़ कुछ सोच ही रहा था कि वो फिर बोला, “ख़ानदान के ख़ानदान शहर के ये नहंग निगल जाते हैं। अवाम के अख़लाक़ क़वानीन से मस्ख़ किए जाते हैं। लोगों के ज़ख़्म जुर्मानों से कुरेदे जाते हैं। टैक्सों के ज़रिये दामन-ए-ग़ुर्बत कतरा जाता है।
“तबाह शुदा ज़ेहनियत जिहालत की तारीकी स्याह बना देती है। हर तरफ़ हालत-ए-नज़ा के सांस की लर्ज़ां आवाज़ें, उर्यानी, गुनाह और फ़रेब है। मगर दावा ये है कि अवाम अम्न की ज़िंदगी बसर कर रहे हैं… क्या इसके ये मानी नहीं हैं कि हमारी आँखों पर स्याह पट्टी बांधी जा रही है। “हमारे कानों में पिघला हुआ सीसा उतारा जा रहा है। हमारे जिस्म मसाइब के कूड़े से बेहिस बनाए जा रहे हैं। ताकि हम न देख सकें, न सुन सकें और न महसूस कर सकें!… इंसान जिसे बुलंदियों पर परवाज़ करना था। क्या उसके बाल-ओ-पर नोच कर उसे ज़मीन पर रेंगने के लिए मजबूर नहीं किया जा रहा?.
“क्या उमरा की नज़र फ़रेब इमारतें मज़दूरों के गोश्त-पोस्त से तैयार नहीं की जातीं? क्या अवाम के मकतूब-ए-हयात पर जराइम की मोहर सब्त नहीं की जाती? क्या मजलिसी बदन की रगों में बदी का ख़ून मोजज़न नहीं है। क्या जम्हूर की ज़िंदगी कशमकश-ए-पैहम, अनथक मेहनत और क़ुव्वत-ए-बर्दाश्त का मुरक्कब नहीं है? बताओ बताओ, बताते क्यों नहीं?” “दुरुस्त है,” मेरे मुँह से बेइख़्तियार निकल गया। “तो फिर इसका ईलाज करना तुम्हारा फ़र्ज़ है… क्या तुम कोई तरीक़ा नहीं बता सकते कि इस इंसानी तज़लील को क्योंकर रोका जा सकता है… मगर आह! तुम्हें मालूम नहीं, मुझे ख़ुद मालूम नहीं!”
थोड़ी देर के बाद वो मेरा हाथ पकड़ कर राज़दाराना लहजे में यूं कहने लगा, “अब्बास! अवाम सख़्त तकलीफ़ बर्दाश्त कर रहे हैं। बा’ज़ औक़ात जब कभी मैं किसी सोख़्ता हाल इंसान के सीने से आह बुलंद होते देखता हूँ तो मुझे अंदेशा होता है कि कहीं शहर न जल जाये! अच्छा अब मैं जाता हूँ, तुम लाहौर वापस कब जा रहे हो?” ये कह कर वो उठा और टोपी सँभाल कर बाहर चलने लगा। “ठहरो! मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ… कहाँ जाओगे अब?” उसे यकलख़्त कहीं जाने के लिए तैयार देख कर मैंने उसे फ़ौरन ही कहा।
“मगर मैं अकेला जाना चाहता हूँ… किसी बाग़ में जाऊंगा।” मैं ख़ामोश हो गया और वो होटल से निकल कर बाज़ार के हुजूम में गुम हो गया, इस गुफ़्तुगू के चौथे रोज़ मुझे लाहौर में इत्तिला मिली कि सलीम ने मेरे जाने के बाद बाज़ारों में दीवानावार शोर बरपा करना शुरू कर दिया था। इसलिए उसे पागलख़ाने में दाख़िल कर लिया गया है।
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