Hindi Story Anjaam Bakhair By Saadat Hasan Manto

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बटवारे के बाद जब फ़िर्का-वाराना फ़सादात शिद्दत इख़्तियार कर गए और जगह जगह हिंदुओं और मुसलमानों के ख़ून से ज़मीन रंगी जाने लगी तो नसीम अख़्तर जो दिल्ली की नौ-ख़ेज़ तवाइफ़ थी अपनी बूढ़ी माँ से कहा, “चलो माँ, यहां से चलें।” बूढ़ी नायिका ने अपने पोपले मुँह में पानदान से छालिया के बारीक बारीक टुकड़े डालते हुए उससे पूछा, “कहाँ जाऐंगे बेटा?” “पाकिस्तान।” ये कहकर वो अपने उस्ताद ख़ानसाहब अच्छन ख़ान से मुख़ातिब हुई।

“ख़ानसाहब, आपका क्या ख़याल है, यहां रहना अब ख़तरे से ख़ाली नहीं।” ख़ानसाहब ने नसीम अख़्तर की हाँ में हाँ मिलाई, “तुम कहती हो, मगर बाई जी को मना लो तो सब चलेंगे।” नसीम अख़्तर ने अपनी माँ से बहतेरा कहा। “कि चलो अब यहां हिंदुओं का राज होगा। कोई मुसलमान बाक़ी नहीं छोड़ेंगे।” बुढ़िया ने कहा, “तो क्या हुआ। हमारा धंदा तो हिंदुओं की बदौलत ही चलता है और तुम्हारे चाहने वाले भी सबके सब हिंदू ही हैं, मुसलमानों में रखा ही क्या है” “ऐसा न कहो। उनका मज़हब और हमारा मज़हब एक है। क़ाइद-ए-आज़म ने इतनी मेहनत से मुसलमानों के लिए पाकिस्तान बनाया है, हमें अब वहीं रहना चाहिए।”

मांडू मीरासी ने अफ़ीम के नशे में अपना सर हिलाया और ग़नूदगी भरी आवाज़ में कहा, “छोटी बाई। अल्लाह सलामत रखे तुम्हें, क्या बात कही है। मैं तो अभी चलने के लिए तैयार हूँ, मेरी क़ब्र भी बनाओ तो रूह ख़ुश रहेगी।” दूसरे मीरासी थे वो भी तैयार होगए लेकिन बड़ी बाई दिल्ली छोड़ना नहीं चाहती थी। बाला-ख़ाने पर उसी का हुक्म चलता था। इसलिए सब ख़ामोश हो गए। बड़ी बाई ने सेठ गोबिंद प्रकाश की कोठी पर आदमी भेजा और उसको बुला कर कहा, “मेरी बच्ची आजकल बहुत डरी हुई है, पाकिस्तान जाना चाहती थी। मगर मैंने समझाया। वहां क्या धरा है। यहां आप ऐसे मेहरबान सेठ लोग मौजूद हैं वहां जा कर हम उपले थापेंगे, आप एक करम कीजिए।”

सेठ बड़ी बाई की बातें सुन रहा था मगर उसका दिमाग़ कुछ और ही सोच रहा था। एक दम चौंक कर उसने बड़ी बाई से पूछा, “तू क्या चाहती है” “हमारे कोठे के नीचे दो-तीन हिंदुओं वाले सिपाहियों का पहरा खड़ा कर दीजिए ताकि बच्ची का सहम दूर हो।” सेठ गोबिंद प्रकाश ने कहा, “ये कोई मुश्किल नहीं। मैं अभी जा कर सुपरिंटेंडेंट पुलिस से मिलता हूँ शाम से पहले पहले सिपाही मौजूद होंगे।” नसीम अख़्तर की माँ ने सेठ को बहुत दुआएँ दीं। जब वो जाने लगा तो उसने कहा, “हम आज अपनी बाई नसीम अख्तर का मुजरा सुनने आयेंगे।”

बुढ़िया ने उठ कर ताज़ीमन कहा, “हाय जम जम आईए, आपका अपना घर है। बच्ची को आप अपनी कनीज़ समझिए, खाना यहीं खाईएगा।” “नहीं मैं आज कल परहेज़ी खाना खा रहा हूँ।” ये कह कर वो अपनी तोंद पर हाथ फेरता चला गया। शाम को नसीम की माँ ने चाँदनियां बदलवाईं, गाव तकियों पर नए ग़िलाफ़ चढ़ाए, ज़्यादा रोशनी के बल्ब लगवाए, सेठ के लिए आला क़िस्म के सिगरेटों का डिब्बा मंगवाने भेजा। थोड़ी ही देर के बाद नौकर हवास-बाख़्ता हाँपता-काँपता वापस आ गया। उसके मुँह से एक बात नहीं निकलती थी। आख़िर जब वो कुछ देर के बाद सँभला तो उसने बताया कि “चौक में पाँच-छः सिख्खों ने एक मुसलमान ख़्वांचा-फ़रोश को किरपाणों से उसकी आँखों के सामने टुकड़े टुकड़े कर डाला है। जब उसने ये देखा तो सर पर पांव रख कर भागा और यहां आन के दम लिया।”

नसीम अख़्तर ये ख़बर सुन कर बेहोश होगई। बड़ी मुश्किलों से ख़ानसाहब अच्छन ख़ान उसे होश में लाए मगर वो बहुत देर तक निढाल रही और ख़ामोश ख़ला में देखती रही। आख़िर उसकी माँ ने कहा, “खूनखराबे होते ही रहते हैं, क्या इससे पहले क़त्ल नहीं होते थे।” दम दिलासा देने के बाद नसीम अख़्तर सँभल गई तो उसकी माँ ने उससे बड़े दुलार और प्यार से कहा,“उठो मेरी बच्ची, जाओ पिशवाज़ पहनो, सेठ आते ही होंगे।”

नसीम ने बादल-ए-नख़्वास्ता पिशवाज़ पहनी सोलह सिंघार किए और मस्नद पर बैठ गई। उसका जी भारी भारी था। उसको ऐसा महसूस होता था कि उस मक़्तूल ख़्वांचा-फ़रोश का सारा ख़ून उसके दिल-ओ-दिमाग़ में जम गया है उसका दिल अभी तक धड़क रहा था, वो चाहती थी कि ज़र्क़-बर्क़ पिशवाज़ की बजाय सादा शलवार-क़मीस पहन ले और अपनी माँ से हाथ जोड़ कर बल्कि उसके पांव पड़ कर कहे कि “ख़ुदा के लिए मेरी बात सुनो और भाग चलो यहां से, मेरा दिल गवाही देता है कि हम पर कोई न कोई आफ़त आने वाली है।”

बुढ़िया ने झुँझला कर कहा, “हम पर क्यों आफ़त आने लगी, हमने किसी का क्या बिगाड़ा है?” नसीम ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया, “उस ग़रीब ख़्वांचा-फ़रोश ने किसी का क्या बिगाड़ा था जो ज़ालिमों ने उसके टुकड़े टुकड़े कर डाले। बिगाड़ने वाले बच जाते हैं। मारे जाते हैं वो जिन्होंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा होता।” “तुम्हारा दिमाग़ ख़राब होगया है।” “ऐसे हालात में किस का दिमाग़ दुरुस्त रह सकता है। चारों तरफ़ ख़ून की नदियां बह रही हैं।” ये कह कर वो उठी बालकोनी में खड़ी हो गई और नीचे बाज़ार में देखने लगी। उसे बिजली के खंबे के पास चार आदमी खड़े दिखाई दिए जिनके पास बंदूक़ें थीं। उसने ख़ान साहब ख़ान को बुलाया और वो आदमी दिखाए, “ऐसा लगता है कि वही सिपाही हैं जिनको भेजने का वादा सेठ कर गया था।”

ख़ानसाहब अच्छन खां उन आदमियों को अपनी चुंधी आंखों से बग़ौर देखा, “नहीं यह सिपाही नहीं,सिपाहियों के तो वर्दी होती है। मुझे तो गुंडे मालूम होते हैं।” नसीम अख़्तर का कलेजा धक से रह गया, “गुंडे।” “अल्लाह बेहतर जानता है। कुछ कहा नहीं जा सकता। लो ये तुम्हारे कोठे की तरफ़ आ रहे हैं। देखो नसीम, तुम किसी बहाने से ऊपर कोठे पर चली जाओ, मैं तुम्हारे पीछे आता हूँ। मुझे दाल में काला नज़र आता है।” नसीम अख़्तर चुपके से बाहर निकली और अपनी माँ से नज़र बचा कर ऊपर की मंज़िल पर चली गई। थोड़ी देर के बाद ख़ानसाहब अच्छन ख़ान अपनी चुंधी आँखें झपकाता ऊपर आया और जल्दी से दरवाज़ा बंद कर के कुंडी चढ़ा दी।

नसीम अख़्तर जिसका दिल जैसे डूब रहा था, ख़ानसाहब से पूछा, “क्या बात है?” “वही जो मैंने समझा था, तुम्हारे मुतअल्लिक़ पूछ रहे थे कहते थे। सेठ गोबिंद प्रकाश ने कार भेजी है और बुलाया है।” “तुम्हारी माँ बड़ी ख़ुश हुई बड़ी मेहरबानी है उनकी। मैं देखती हूँ कहाँ है शायद ग़ुसलख़ाने में हो। इतनी देर में मैं तैयार हो जाऊं।” उन गुंडों में से एक ने कहा, “तुम्हें क्या शहद लगा कर चाटेंगे। बैठी रहो, जहां बैठी हो। ख़बरदार जो तुम यहां से हिलीं, हम ख़ुद तुम्हारी बेटी को ढूंढ निकालेंगे।” मैंने जब ये बातें सुनीं और उन गुंडों के बिगड़े हुए तेवर देखे तो खिसकता खिसकता यहां पहुंच गया।

नसीम अख़्तर हवास बाख़्ता थी। “अब क्या किया जाये?” ख़ान ने अपना सर खुजलाया और जवाब दिया, “देखो मैं कोई तरकीब सोचता हूँ, बस यहां से निकल भागना चाहिए।” “और माँ?” “उस के मुतअल्लिक़ मैं कुछ नहीं कह सकता। उसको अल्लाह के हवाले कर के ख़ुद बाहर निकलना चाहिए।” ऊपर चारपाई पर दो चादरें पड़ी हुई थीं। ख़ानसाहब ने उनको गांठ दे कर रस्सा सा बनाया और मज़बूती से एक कुंडे के साथ बांध कर दूसरी तरफ़ लटका दिया। नीचे लांड्री की छत थी, वहां तक अगर वो पहुंच जाएं तो आगे रास्ता साफ़ था। लांड्री की छत की सीढ़ियां दूसरी तरफ़ थीं, उसके ज़रिये से वो तवेले में पहुंच जाते और वहां साईस से जो मुसलमान था ताँगा लेते और स्टेशन का रुख़ करते।

नसीम अख़्तर ने बड़ी बहादुरी दिखाई। आराम आराम से नीचे उतर कर लांड्री की छत तक पहुंच गई। ख़ानसाहब अच्छन ख़ान भी बहिफ़ाज़त तमाम उतर आए। अब वो तवेले में थे। साईस इत्तिफ़ाक़ से तांगे में घोड़ा जोत रहा था। दोनों उसमें बैठे और स्टेशन का रुख़ किया, मगर रास्ते में उनको मिल्ट्री का ट्रक मिल गया। उसमें मुसल्लह फ़ौजी मुसलमान थे जो हिन्दुओं के ख़तरनाक मुहल्लों से मुसलमानों को निकाल निकाल कर महफ़ूज़ मुक़ामात पर पहुंचा रहे थे, जो पाकिस्तान जाना चाहते उनको स्पेशल ट्रेनों में जगह दिलवा देते।

ताँगा से उतर कर नसीम अख़तर और उसका उस्ताद ट्रक में बैठे और चंद मिनटों में स्टेशन पर पहुंच गए। स्पेशल ट्रेन इत्तिफ़ाक़ से तैयार थी, उसमें उनको अच्छी जगह मिल गई और वो बख़ैरीयत लाहौर पहुंच गए। यहां वो क़रीब-क़रीब एक महीने तक वालटन कैंप में रहे। निहायत कसमपुर्सी की हालत में, इसके बाद वो शहर चले आए। नसीम अख़्तर के पास काफ़ी ज़ेवर था जो उसने उस रात पहना हुआ था जब सेठ गोबिंद प्रकाश उसका मुजरा सुनने आरहा था। ये उसने उतार कर ख़ानसाहब अच्छन ख़ान के हवाले कर दिया था।

उन ज़ेवरों में से कुछ बेच कर उन्होंने होटल में रहना शुरू कर दिया लेकिन मकान की तलाश जारी रही। आख़िर बदिक़्क़त-ए-तमाम हीरा मंडी में एक मकान मिल गया जो अच्छा ख़ासा था। अब ख़ानसाहब अच्छन ख़ान ने नसीम अख़तर से कहा, “गद्दे और चांदनियाँ वग़ैरा ख़रीद लें और तुम बिसमिल्लाह कर के मुजरा शुरू कर दो।”

नसीम ने कहा, “नहीं ख़ानसाहब मेरा जी उकता गया है, मैं तो इस मकान में भी रहना पसंद नहीं करती। किसी शरीफ़ मुहल्ले में कोई छोटा सा मकान तलाश कीजिए ताकि मैं वहां उठ जाऊं, मैं अब ख़ामोश ज़िंदगी बसर करना चाहती हूँ।” ख़ानसाहब को ये सुन कर बड़ी हैरत हुई, “क्या हो गया है तुम्हें” “बस जी उचाट हो गया है। मैं इस ज़िंदगी से किनारा-कशी इख़्तियार करना चाहती हूँ। दुआ कीजिए ख़ुदा मुझे साबित क़दम रखे।” ये कहते हुए नसीम की आँखों में आँसू आगए। ख़ानसाहब ने उसको बहुत तरग़ीब दी पर वो टस से मस न हुई। एक दिन उसने अपने उस्ताद से साफ़ कह दिया कि वो “शादी कर लेना चाहती है, अगर किसी ने उसको क़बूल न किया तो वो कुंवारी रहेगी।”

ख़ानसाहब बहुत हैरान था कि नसीम में ये तबदीली कैसे आई। फ़सादात तो इसका बाइस नहीं हो सकते। फिर क्या वजह थी कि वो पेशा तर्क करने पर तुली हुई थी और शादी करके शरीफ़ाना ज़िंदगी बसर करना चाहती थी। जब वो उसे समझा समझा कर थक गया तो उसे एक मुहल्ले में जहां शुरफ़ा रहते थे एक छोटा सा मकान ले दिया और ख़ुद हीरा मंडी की एक मालदार तवाइफ़ को तालीम देने लगा। नसीम ने थोड़े से बर्तन ख़रीदे एक चारपाई और बिस्तर वग़ैरा भी। एक छोटा लड़का नौकर रख लिया और सुकून की ज़िंदगी बसर करने लगी पांचों नमाज़ें पढ़ती। रोज़े आए तो उसने सारे के सारे रखे।

एक दिन वो ग़ुसलख़ाने में नहा रही थी कि सब कुछ भूल कर अपनी सुरीली आवाज़ में गाने लगी। उसके हाँ एक और औरत का आना-जाना था। नसीम अख़्तर को मालूम नहीं था कि ये औरत शरीफ़ों के मुहल्ले की बहुत बड़ी फाफा कुटनी है। शरीफ़ों के मुहल्ले में कई घर तबाह-ओ-बर्बाद कर चुकी है। कई लड़कियों की इस्मत औने-पौने दामों बिकवा चुकी है। कई नौजवानों को ग़लत रास्ते पर लगा कर अपना उल्लू सीधा करती रही है।

जब उस औरत ने जिसका नाम जन्नते है नसीम की सुरीली और मँझी हुई आवाज़ सुनी तो उसको मअन ये ख़याल आया कि लड़की जिसका आगा है न पीछा, बड़ी मार्के की तवाइफ़ बन सकती है, चुनांचे उसने उस पर डोरे डालने शुरू कर दिए। उसको उसने कई सब्ज़ बाग़ दिखाए मगर वो उसके क़ाबू में न आई। आख़िर उसने एक रोज़ उसको गले लगाया और चट-चट उसकी बलाऐं लेना शुरू कर दीं, “जीती रहो बेटा। मैं तुम्हारा इम्तिहान ले रही थी, तुम इसमें सोलह आने पूरी उतरी हो।”

नसीम अख़्तर उसके फ़रेब में आगई एक दिन उसको यहां तक बता दिया कि “वो शादी करना चाहती है क्योंकि एक यतीम कुंवारी लड़की का अकेले रहना ख़तरे से ख़ाली नहीं होता।” जन्नते को मौक़ा हाथ आया। उसने नसीम से कहा, “बेटा ये क्या मुश्किल है। मैंने यहां शादियां कराई हैं सबकी सब कामयाब रही हैं। अल्लाह ने चाहा तो तुम्हारे हस्ब-ए-मंशा मियां मिल जाएगा जो तुम्हारे पांव धो धो कर पिएगा।” जन्नते कई फ़र्ज़ी रिश्ते लाई मगर उसने उनकी कोई ज़्यादा तारीफ़ न की। आख़िर में वो एक रिश्ता लाई जो उसके कहने के मुताबिक़ फ़िरिश्ता सीरत और साहिब-ए-जायदाद था। नसीम मान गई तारीख़ मुक़र्रर की गई और उसकी शादी अंजाम पा गई।

नसीम अख़्तर ख़ुश थी कि उसका मियां बहुत अच्छा है उसकी हर आसाइश का ख़याल रखता है लेकिन उस दिन उसके होश-ओ-हवास गुम होगए जब उसको दूसरे कमरे से औरतों की आवाज़ें सुनाई दीं। दरवाज़े में से झांक कर उसने देखा कि उसका शौहर दो बूढ़ी तवाइफ़ों से उसके मुतअल्लिक़ बातें कर रहा है, जन्नते भी पास बैठी थी। सब मिल कर उसका सौदा तय कर रहे थे। उसकी समझ में न आया क्या करे और क्या न करे? बहुत देर रोती सोचती रही, आख़िर उठी और अपनी पिशवाज़ निकाल कर पहनी और बाहर निकल कर सीधी अपने उस्ताद अच्छन ख़ान के पास पहुंची और मुजरे के साथ साथ पेशा भी शुरू कर दिया, एक इंतिक़ामी क़िस्म के जज़्बे के साथ वो खेलने लगी।

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