संपूर्ण रामायण कथा बालकाण्ड : विश्वामित्र का आगमन, ऋषि विश्वामित्र का आगमन, विश्वामित्र आगमन, विश्वामित्र ने राम को मांगा, विश्वामित्र का आश्रम कहां था, विश्वामित्र कौन थे, मेनका और ऋषि विश्वामित्र की प्रेम कहानी (Ramayan Balakand- Vishwamitra Ka Aagman, Vishwamitra Aagman, Vishwamitra in Ramayana, Story of Rishi Vishwamitra, Vishwamitra Kaun the, Vishwamitra Katha in Hindi, Swarg Ki Apsara Menaka and Vishwamitra Love Story in Hindi)
विश्वामित्र का आगमन, ऋषि विश्वामित्र का आगमन
अयोध्यापति महाराज दशरथ के दरबार में यथोचित आसन पर गुरु वशिष्ठ, मन्त्रीगण और दरबारीगण बैठे थे। अयोध्यानरेश ने गुरु वशिष्ठ से कहा, हे गुरुदेव! जीवन तो क्षणभंगुर है और मैं वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होते जा रहा हूँ। राम, भरत, लक्षम्ण और शत्रुघ्न चारों ही राजकुमार अब वयस्क भी हो चुके हैं। मेरी इच्छा है कि इस शरीर को त्यागने के पहले राजकुमारों का विवाह देख लूँ। अतः आपसे निवेदन है कि इन राजकुमारों के लिये योग्य कन्याओं की खोज करवायें। महाराज दशरथ की बात पूरी होते ही द्वारपाल ने ऋषि विश्वामित्र के आगमन की सूचना दी। स्वयं राजा दशरथ ने द्वार तक जाकर विश्वामित्र की अभ्यर्थना की और आदरपूर्वक उन्हें दरबार के अन्दर ले आये तथा गुरु वशिष्ठ के पास ही आसन देकर उनका यथोचित सत्कार किया।
कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् राजा दशरथ ने विनम्र वाणी में ऋषि विश्वामित्र से कहा, हे मुनिश्रेष्ठ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ तथा आपके चरणों की पवित्र धूलि से यह राजदरबार और सम्पूर्ण अयोध्यापुरी धन्य हो गई। अब कृपा करके आप अपने आने का प्रयोजन बताइए। किसी भी प्रकार की आपकी सेवा करके मैं स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली समझूँगा।
राजा के विनयपूर्ण वचनों को सुनकर मुनि विश्वामित्र बोले, हे राजन्! आपने अपने कुल की मर्यादा के अनुरूप ही वचन कहे हैं। इक्ष्वाकु वंश के राजाओं की श्रद्धा भक्ति गौ, ब्राह्मण और ऋषि-मुनियों के प्रति सदैव ही रही है। मैं आपके पास एक विशेष प्रयोजन से आया हूँ, समझिये कि कुछ माँगने के लिये आया हूँ। यदि आप मुझे वांछित वस्तु देने का वचन दें तो मैं अपनी माँग आपके सामने प्रस्तुत करू। आप के वचन न देने की दशा में मैं बिना कुछ माँगे ही वापस लौट जाऊँगा।
महाराज दशरथ ने कहा, हे ब्रह्मर्षि! आप निःसंकोच अपनी माँग रखें। सम्पूर्ण विश्व जानता है कि रघुकुल के राजाओं का वचन ही उनकी प्रतिज्ञा होती है। आप माँग तो मैं अपना शीश काट कर भी आपके चरणों में रख सकता हूँ। उनके इन वचनों से आश्वस्त ऋषि विश्वामित्र बोले, राजन्! मैं अपने आश्रम में एक यज्ञ कर रहा हूँ। इस यज्ञ के पूर्णाहुति के समय मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस आकर रक्त, माँस आदि अपवित्र वस्तुएँ यज्ञ वेदी में फेंक देते हैं। इस प्रकार यज्ञ पूर्ण नहीं हो पाता। ऐसा वे अनेक बार कर चुके हैं। मैं उन्हें अपने तेज से श्राप देकर नष्ट भी नहीं कर सकता क्योंकि यज्ञ करते समय क्रोध करना वर्जित है।
मैं जानता हूँ कि आप मर्यादा का पालन करने वाले, ऋषि मुनियों के हितैषी एवं प्रजावत्सल राजा हैं। मैं आपसे आपके ज्येष्ठ पुत्र राम को माँगने के लिये आया हूँ ताकि वह मेरे साथ जाकर राक्षसों से मेरे यज्ञ की रक्षा कर सके और मेरा यज्ञानुष्ठान निर्विघ्न पूरा हो सके। मुझे पता है कि राम आसानी के साथ उन दोनों का संहार कर सकते हैं। अतः केवल दस दिनों के लिये राम को मुझे दे दीजिये। कार्य पूर्ण होते ही मैं उन्हें सकुशल आप के पास वापस पहुँचा दूँगा।
विश्वामित्र की बात सुनकर राजा दशरथ को अत्यन्त विषाद हुआ। ऐसा लगने लगा कि अभी वे मूर्छित हो जायेंगे। फिर स्वयं को संभाल कर उन्होंने कहा, मुनिवर! राम अभी बालक है। राक्षसों का सामना करना उसके लिये सम्भव नहीं होगा। आपके यज्ञ की रक्षा करने के लिये मैं स्वयं ही जाने को तैयार हूँ। विश्वामित्र बोले, राजन्! आप तनिक भी सन्देह न करें कि राम उनका सामना नहीं कर सकते। मैंने अपने योगबल से उनकी शक्तियों का अनुमान लगा लिया है। आप निःशंक होकर राम को मेरे साथ भेज दीजिये।
इस पर राजा दशरथ ने उत्तर दिया, हे मुनिश्रेष्ठ! राम ने अभी तक किसी राक्षस के माया प्रपंचों को नहीं देखा है और उसे इस प्रकार के युद्ध का अनुभव भी नहीं है। जब से उसने जन्म लिया है, मैंने उसे अपनी आँखों के सामने से कभी ओझल भी होने नहीं दिया है। उसके वियोग से मेरे प्राण निकल जावेंगे। आपसे विनय है कि कृपा करके मुझे ससैन्य चलने की आज्ञा दें।
पुत्रमोह से ग्रसित होकर राजा दशरथ को अपनी प्रतिज्ञा से विचलित होते देख ऋषि विश्वामित्र आवेश में आ गये। उन्होंने कहा, राजन्! मैं नहीं जानता था कि रघुकुल में अब प्रतिज्ञा पालन करने की परम्परा समाप्त हो गई है। यदि जानता होता तो मैं कदापि नहीं आता। लो मैं अब चला जाता हूँ। बात समाप्त होते होते उनका मुख क्रोध से लाल हो गया।
विश्वामित्र को इस प्रकार क्रुद्ध होते देख कर दरबारी एवं मन्त्रीगण भयभीत हो गये और किसी प्रकार के अनिष्ट की कल्पना से वे काँप उठे। गुरु वशिष्ठ ने राजा को समझाया, हे राजन्! पुत्र के मोह में ग्रसित होकर रघुकुल की मर्यादा, प्रतिज्ञा पालन और सत्यनिष्ठा को कलंकित मत कीजिये। मैं आपको परामर्श देता हूँ कि आप राम के बालक होने की बात को भूल कर एवं निःशंक होकर राम को मुनिराज के साथ भेज दीजिये। महामुनि अत्यन्त विद्वान, नीतिनिपुण और अस्त्र-शस्त्र के ज्ञाता हैं। मुनिवर के साथ जाने से राम का किसी प्रकार से भी अहित नहीं हो सकता उल्टे वे इनके साथ रह कर शस्त्र और शास्त्र विद्याओं में अत्यधिक निपुण हो जायेंगे तथा उनका कल्याण ही होगा।
गुरु वशिष्ठ के वचनों से आश्वस्त होकर राजा दशरथ ने राम को बुला भेजा। राम के साथ साथ लक्ष्मण भी वहाँ चले आये। राजा दशरथ ने राम को ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने की आज्ञा दी। पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके राम के मुनिवर के साथ जाने के लिये तैयार हो जाने पर लक्ष्मण ने भी ऋषि विश्वामित्र से साथ चलने के लिये प्रार्थना की और अपने पिता से भी राम के साथ जाने के लिये अनुमति माँगी। अनुमति मिल जाने पर राम और लक्ष्मण सभी गुरुजनों से आशीर्वाद ले कर ऋषि विश्वामित्र के साथ चल पड़े।
समस्त अयोध्यावासियों ने देख कि मन्द धीर गति से जाते हुये मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के पीछे पीछे कंधों पर धनुष और तरकस में बाण रखे दोनों भाई राम और लक्ष्मण ऐसे लग रहे थे मानों ब्रह्मा जी के पीछे दोनों अश्विनी कुमार चले जा रहें हों। अद्भुत् कांति से युक्त दोनों भाई गोह की त्वचा से बने दस्ताने पहने हुये थे, हाथों में धनुष और कटि में तीक्ष्ण धार वाली कृपाणें शोभायमान हो रहीं थीं। ऐसा प्रतीत होता था मानो स्वयं शौर्य ही शरीर धारण करके चले जा रहे हों।
लता विटपों के मध्य से होते हुये छः कोस लम्बा मार्ग पार करके वे पवित्र सरयू नदी के तट पर पहुँचे। मुनि विश्वामित्र ने स्नेहयुक्त मधुर वाणी में कहा, हे वत्स! अब तुम लोग सरयू के पवित्र जल से आचमन स्नानादि करके अपनी थकान दूर कर लो, फिर मैं तुम्हें प्रशिक्षण दूँगा। सर्वप्रथम मैं तुम्हें बला और अतिबला नामक विद्याएँ सिखाऊँगा। इन विद्याओं के विषय में राम के द्वारा जिज्ञासा प्रकट करने पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, ये दोनों ही विद्याएँ असाधारण हैं। इन विद्याओं में पारंगत व्यक्तियों की गिनती संसार के श्रेष्ठ पुरुषों में होती है। विद्वानों ने इन्हें समस्त विद्याओं की जननी बताया है। इन विद्याओं को प्राप्त करके तुम भूख और प्यास पर विजय पा जाओगे। इन तेजोमय विद्याओं की सृष्टि स्वयं ब्रह्मा जी ने की है। इन विद्याओं को पाने का अधिकारी समझ कर मैं तुम्हें इन्हें प्रदान कर रहा हूँ।
राम और लक्ष्मण के स्नानादि से निवृत होने के पश्चात् विश्वामित्र जी ने उन्हें इन विद्याओं की दीक्षा दी। इन विद्याओं के प्राप्त हो जाने पर उनके मुख मण्डल पर अद्भुत् कान्ति आ गई। तीनों ने सरयू तट पर ही विश्राम किया। गुरु की सेवा करने के पश्चात् दोनों भाई तृण शैयाओं पर सो गये।
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विश्वामित्र कौन थे?
विश्वामित्र कान्यकुब्ज के पुरुवंशी महाराज गाधि के पुत्र थे. विश्वामित्र वैदिक काल के [ऋषि] (योगी) थे। ऋषि विश्वामित्र बड़े ही प्रतापी और तेजस्वी महापुरुष थे। ऋषि धर्म ग्रहण करने के पूर्व वे बड़े पराक्रमी और प्रजावत्सल नरेश थे ! ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है।
विश्वामित्र जिस वन में यज्ञ कर रहे थे उस वन का नाम क्या था?
रामायण में विश्वामित्र जिस वन में यज्ञ कर रहे थे, उस वन का नाम सुंदर वन था. विश्वामित्र राजा दशरथ से अनुरोध किया कि वह राम और लक्ष्मण को अपने साथ सुंदर वन ले जाना चाहते हैं, क्योंकि सुंदर वन में ताड़का नाम की राक्षसी रहती थी. वह ऋषियों के यज्ञ को पूरा नहीं होने देती थी.
विश्वामित्र की पत्नी का क्या नाम था?
विश्वामित्र की पत्नी का क्या नाम मेनका था, जो स्वर्गलोक की अप्सरा थीं. मेनका से विश्वामित्र को एक सुन्दर कन्या प्राप्त हुई जिसका नाम शकुंतला रखा गया।
यहां पढ़िए स्वर्ग की अप्सरा मेनका और ऋषि विश्वामित्र की प्रेम कहानी (Swarg ki Apsara Menaka and Vishwamitra love story in hindi)
भयानक वन में एकांत में बैठे ऋषि विश्वामित्र तपस्या में लीन थे। पृथ्वी अपनी गति से घूम रही थी लेकिन विश्वामित्र अपनी तपस्या में इस तरह समर्पित थे कि उन्हें बाहर की दुनिया की कोई खबर नही थी। धीरे-धीरे उनके तप के प्रभाव से स्वर्ग में इंद्र का सिंहासन डोलने लगा।
नारद मुनि से विश्वामित्र के बारे में सुनकर इंद्र हुए चिंतित- नारद मुनि ने देवराज इंद्र को बताया कि पृथ्वीलोक में एक ऋषि वन में घोर तपस्या में लीन हैं। उनकी तपस्या में किसी भी विघ्न से कोई असर नहीं पड़ रहा है। यह सुनकर इंद्र को अपने इंद्रासन यानी इंद्रलोक की सत्ता जाने का भय सताने लगा।
इंद्र ने मेनका को धरती पर जाने का आदेश दिया- इंद्र ने स्वर्ग की सबसे खूबसूरत अप्सरा मेनका को बुलाया और उससे धरती पर जाने का आदेश दिया। इंद्रको पूरा विश्वास था कि विश्वामित्र मेनका की खूबसूरती में ऐसे खो जाएंगे कि अपनी तपस्या छोड़ देंगे।
विश्वामित्र की तपस्या भंग करना आसान नहीं था- कई कई सालों से तपस्या में बैठे विश्वामित्र का शरीर पत्थर की तरह कठोर हो चुका था। उन पर मेनका की उपस्थिति या खूबसूरती का कोई असर नहीं पड़ा। वह काम को अपने वश में कर चुके थे।
कामदेव ने अपने तीरों से विश्वामित्र पर निशाना साधा- मेनका में वे सभी गुण थे जो मृत्युलोक की एक नारी में होने चाहिए। इसके अलावा सुंदरता की मूरत अप्सरा मेनका अपने आप में ही आकर्षण का केन्द्र थी लेकिन ऋषि के तप को भंग करना आसान कार्य नहीं था। कामदेव ने भी विश्वामित्र पर अपने तीर चलाए और इस योजना में मेनका और इंद्र का साथ दिया।
कामदेव के तीरों का जादू विश्वामित्र पर चल गया- आखिरकार कामदेव के कामुक तीरों का जादू ऋषि विश्वामित्र पर चल गया। वह मेनका के रूप और सौंदर्य की ओर ऐसे आकर्षित हुए कि तपस्या से उठ खड़े हुए। विश्वामित्र के हृदय में मेनका के लिए प्रेम के अंकुर फूटने लगे।
मेनका के मन में भी विश्वामित्र के प्रति प्रेम पनपने लगा- अप्सरा मेनका जिस योजना के साथ धरती पर आई थी, वह काम तो सफल हो गया था। ऋषि की तपस्या भंग हो चुकी थी लेकिन अब वह भी मन में उनके प्रति प्रेम का अनुभव करने लगी थी। मेनका ने अपने बारे में ऋषि को कुछ नहीं बताया, उसे उनके क्रोध से डर लगता था। कुछ समय बाद दोनों ने शादी कर ली।
मेनका ने एक पुत्री को जन्म दिया- मेनका को यह भी डर था कि अभी अगर वह विश्वामित्र का साथ छोड़कर गई तो वह दोबारा तपस्या में बैठ सकते हैं। उनके साथ गृहस्थ आश्रम बिताने के कुछ वर्षों बाद मेनका ने एक पुत्री को जन्म दिया। अब संन्यासी विश्वामित्र पूरी तरह से गृहस्थ बन चुके थे।
इंद्र ने मेनका से कहा, स्वर्ग वापस चलो- मेनका अपनी नन्ही पुत्री के साथ खेल रही थी कि तभी देवराज इंद्र प्रकट हुए। देवराज ने मेनका को याद दिलाया कि वह कोई साधारण स्त्री नहीं बल्कि स्वर्ग की अप्सरा है। इंद्र ने कहा कि अब धरती पर उसका काम खत्म हो चुका है इसलिए वह स्वर्ग लौट आए।
इंद्र की बात सुनकर मेनका विलाप करने लगी- मेनका अपनी पुत्री और पति को छोड़कर वापस नहीं जाना चाहती थी। वह विलाप करने लगी। इंद्र ने मेनका से कहा, ‘अगर तुम स्वर्ग नहीं लौटी तो मैं तुम्हें शिला बना दूंगा।’
मेनका ने विश्वामित्र को बताया अपना सच- मेनका ने इसके बाद ऋषि विश्वामित्र को बताया कि वह स्वर्गलोक की अप्सरा है और उनकी तपस्या भंग करने के लिए देवताओं ने उन्हें धरती पर भेजा था। यह सुनकर विश्वामित्र बहुत दुखी हुए। मेनका ने अपनी पुत्री को वहीं छोड़कर उनसे विदा ले ली। विश्वामित्र ने उस कन्या को जंगल में एक ऋषि के आश्रम में छोड़ दिया। बाद में वही कन्या शकुंतला नाम से जानी गई।
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