संपूर्ण रामायण कथा अयोध्याकाण्ड: राम वनवास, राम को 14 वर्ष का वनवास, राम के वनवास जाने का कारण, राम 14 वर्ष के लिए वनवास क्यों गए, केकई ने राम को 14 वर्ष का वनवास क्यों दिया, माता कौशल्या से विदा, सीता और लक्ष्मण का अनुग्रह, वनगमन पूर्व राम के द्वारा दान, पिता के अन्तिम दर्शन, वन के लिये प्रस्थान (Ayodhyakand: Ram Ko 14 Varsh Ka Vanvas Kyu Mila, Ram Ji Ka Vanvas, Ram Ko Vanvas Kisne Bheja, Ram Van Kyo Gaye, Kekai Ne Ram Ko Vanvas Kyon Bheja, Mata Kaushalya Se Vida, Ram Lakshman Aur Sita Vanvas)
राम का वनवास – अयोध्याकाण्ड
राम ने अपने पिता दशरथ एवं माता कैकेयी के चरणस्पर्श किये। राम को देखकर महाराज ने एक दीर्घ श्वास और केवल हे राम! कहा फिर अत्यधिक निराश होने के कारण चुप हो गये। उनके नेत्रों में अश्रु भर आए। विनम्र स्वर में राम ने कैकेयी से पूछा, माता! पिताजी की ऐसी दशा का क्या कारण है? कहीं वे मुझसे अप्रसन्न तो नहीं हैं? यदि वे मुझसे अप्रसन्न हैं तो मेरा क्षणमात्र भी जीना व्यर्थ है।
कैकेयी बोलीं, वत्स! महाराज तुमसे अप्रसन्न तो हो ही नहीं सकते। किन्तु इनके हृदय में एक विचार आया है जो कि तुम्हारे विरुद्ध है। इसीलिये ये तुमसे संकोचवश कह नहीं पा रहे हैं। देवासुर संग्राम के समय इन्होंने मुझे दो वर देने का वचन दिया था। अवसर पाकर आज मैंने इनसे वे दोनों वर माँग लिये हैं। अब तुम्हारे पिता को अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है। यदि तुम प्रतिज्ञा करोगे कि जो कुछ मैं कहूँगी, उसका तुम अवश्य पालन करोगे तो मैं तुम्हें उन वरदानों से अवगत करा सकती हूँ।
राम बोले, हे माता! पिता की आज्ञा से मैं अपने प्राणों की भी आहुति दे सकता हूँ। मैं आपके चरणों की सौगन्ध खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपके वचनों का अवश्य पालन करूँगा। राम की प्रतिज्ञा से सन्तुष्ट होकर कैकेयी ने कहा, वत्स! मैंने पहले वर से भरत के लिये अयोध्या का राज्य और दूसरे से तुम्हारे लिये चौदह वर्ष का वनवास माँगा है। अतः अब तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तत्काल वक्कल धारण करके वन को प्रस्थान करो। तुम्हारे मोह के कारण ही महाराज दुःखी हो रहे हैं इसलिए तुम्हारे वन को प्रस्थान के पश्चात् ही भरत का राज्याभिषेक होगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम अपनी प्रतिज्ञा का पालन करके अपने पिता को पापरूपी सागर से अवश्य मुक्ति दिलाओगे।
राम ने दुःख और शोक से रहित होकर कैकेयी के वचनों को सुना और मधुर मुस्कान के साथ बोले, माता! बस इस छोटी सी बात के लिये ही आप और पिताजी इतने परेशान हैं? मैं तत्काल वन को चला जाता हूँ। यही मेरी सत्य प्रतिज्ञा है। महाराज दशरथ राम और कैकेयी के इस संवाद को सुन रहे थे। इसे सुनकर वे एक बार फिर मूर्छित हो गये। राम ने मूर्छित पिता और कैकेयी के चरणों में मस्तक नवाया और चुपचाप उस प्रकोष्ठ से बाहर चले गये।
माता कौशल्या से विदा – अयोध्याकाण्ड
अपने पिता एवं माता कैकेयी के प्रकोष्ठ से राम अपनी माता कौशल्या के पास पहुँचे। अनुज लक्ष्मण वहाँ पर पहले से ही उपस्थित थे। राम ने माता का चरणस्पर्श किया और कहा, हे माता! माता कैकेयी के द्वारा दो वर माँगने पर पिताजी ने भाई भरत को अयोध्या का राज्य और मुझे चौदह वर्ष का वनवास दिया है। अतः मैं वन के लिये प्रस्थान कर रहा हूँ। विदा होने के पूर्व आप मुझे आशीर्वाद दीजिये।
राम द्वारा कहे गए इन हृदय विदारक वचनों को सुनकर कौशल्या मूर्छित हो गईं। राम ने उनका यथोचित उपचार किया और मूर्छा भंग होने पर वे विलाप करने लगीँ।
उनका विलाप सुन कर लक्ष्मण बोले, माता! भैया राम तो सद गुरुजनों का सम्मान तथा उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि मेरे देवता तुल्य भाई को किस अपराध में यह दण्ड दिया गया है? ऐसा प्रतीत होता है कि वृद्धावस्था ने पिताजी की बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया है। उचित यही है कि बड़े भैया उनकी इस अनुचित आज्ञा का पालन न करें और निष्कंटक राज्य करें। भैया राम के विरुद्ध सिर उठाने वालों को मैं तत्काल कुचल दूँगा। राम का अपराध क्या है? उनकी नम्रता और सहनशीलता? मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि राम के राजा बनने में भरत या उनके पक्षपाती कंटक बनेंगे तो मैं उन्हें उसी क्षण यमलोक भेज दूँगा। मैं भी उसी प्रकार आपके दुखों को दूर कर दूँगा जिस प्रकार से सूर्य अन्धकार को मिटा देता है।
लक्ष्मण के शब्दों से माता कौशल्या को ढांढस मिला और उन्होंने कहा, पुत्र राम! तुम्हारे छोटे भाई लक्ष्मण का कथन सत्य है। तुम मुझे इस प्रकार बिलखता छोड़कर वन के लिये प्रस्थान नहीं कर सकते। यदि पिता की आज्ञा का पालन करना तुम्हारा धर्म है तो माता की आज्ञा का पालन करना भी तुम्हारा धर्म ही है। मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि अयोध्या में रहकर मेरी सेवा करो।
इस पर माता को धैर्य बँधाते हुये राम बोले, माता! आप इतनी दुर्बल कैसे हो गईं? ये आज आप कैसे वचन कह रही हैं? आपने ही तो मुझे बचपन से पिता की आज्ञा का पालन करने की शिक्षा दी है। अब क्या मेरी सुख सुविधा के लिये अपनी ही दी हुई शिक्षा को झुठलायेंगी? एक पत्नी के नाते भी आपका कर्तव्य है कि आप अपने पति की इच्छापूर्ति में बाधक न बनें। आप तो जानती ही हैं कि चाहे सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी अपने अटल नियमों से टल जायें, पर राम के लिये पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना कदापि सम्भव नहीं है। मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मुझे वन जाने की आज्ञा प्रदान करें ताकि मुझे यह सन्तोष रहे कि मैंने माता और पिता दोनों ही की आज्ञा का पालन किया है।
फिर वे लक्ष्मण से सम्बोधित हुये और कहा, लक्ष्मण! तुम्हारे साहस, पराक्रम, शौर्य और वीरता पर मुझे गर्व है। मैं जानता हूँ कि तुम मुझसे अत्यंत स्नेह करते हो। किन्तु हे सौमित्र! धर्म का स्थान सबसे ऊपर है। पिता की आज्ञा की अवहेलना करके मुझे पाप, नरक और अपयश का भागी बनना पड़ेगा। इसलिये हे भाई! तुम क्रोध और क्षोभ का परित्याग करो और मेरे वन गमन में बाधक मत बनो। राम के दृढ़ निश्चय को देखकर अपने आँसुओं को पोंछती हुई कौशल्या बोलीं, वत्स! यद्यपि तुम्हें वन जाने की आज्ञा देते हुये मेरा हृदय चूर-चूर हो रहा है किन्तु यदि मुझे भी अपने साथ ले चलने की प्रतिज्ञा करो तो मैं तुम्हें वन जाने की आज्ञा दे सकती हूँ।
राम ने संयमपूर्वक कहा, माता! पिताजी इस समय अत्यन्त दुःखी हैं और उन्हें आपके प्रेमपूर्ण सहारे की आवश्यकता है। ऐसे समय में यदि आप भी उन्हें छोड़ कर चली जायेंगी तो उनकी मृत्यु में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रह जायेगा। मेरी आपसे प्रार्थना है कि उन्हें मृत्यु के मुख में छोड़कर आप पाप का भागी न बनें। उनके जीवित रहते तक उनकी सेवा करना आपका पावन कर्तव्य है। आप मोह को त्याग दें और मुझे वन जाने की आज्ञा दें। मुझे प्रसन्नतापूर्वक विदा करें, मैं वचन देता हूँ कि चौदह वर्ष की अवधि बीतते ही मैं लौटकर आपके दर्शन करूँगा।
धर्मपरायण राम के युक्तियुक्त वचनों को सुनकर अश्रुपूरित माता कौशल्या ने कहा, अच्छा वत्स! मैं तुम्हें वनगमन की आज्ञा प्रदान करती हूँ। परमात्मा तुम्हारे वनगमन को मंगलमय करें।
फिर माता ने तत्काल ब्राह्मणों से हवन कराया और राम को हृदय से आशीर्वाद देते हुये विदा किया।
सीता और लक्ष्मण का अनुग्रह – अयोध्याकाण्ड
माता कौशल्या से अनुमति प्राप्त करने तथा विदा लेने के पश्चात् राम जनकनन्दिनी सीता के कक्ष में पहुँचे। उस समय वे राजसी चिह्नों से पूर्णतः विहीन थे। उन्हें राजसी चिह्नों से विहीन देख कर सीता ने पूछा, हे आर्यपुत्र! आज आपके राज्याभिषेक का दिन पर भी आप राजसी चिह्नों से विहीन क्यों हैं?
राम ने गंभीर किन्तु शान्त वाणी में सीता को समस्त घटनाओं विषय में बताया और कहा, प्रिये! मैं तुमसे विदा माँगने आया हूँ क्योंकि मैं तत्काल ही वक्कल धारण करके वन के लिये प्रस्थान करना चाहता। मेरी चाहता हूँ कि मेरे जाने के बाद तुम अपने मृदु स्वभाव तथा सेवा-सुश्रूषा से माता-पिता तथा भरत सहित समस्त परिजनों को प्रसन्न और सन्तुष्ट रखना। अब तक तुम मेरी प्रत्येक बात श्रद्धापूर्वक मानती आई हो और मुझे विश्वास है कि आगे भी मेरी इच्छानुसार तुम यहाँ रहकर अपने कर्तव्य का पालन करोगी।
सीता बोलीं, प्राणनाथ! शास्त्रों बताते हैं कि पत्नी अर्द्धांगिनी होती है। यदि आपको वनवास की आज्ञा मिली है तो इसका अर्थ है कि मुझे भी वनवास की आज्ञा मिली है। कोई विधान नहीं कहता कि पुरुष का आधा अंग वन में रहे और आधा अंग घर में। हे नाथ! स्त्री की गति तो उसके पति के साथ ही होती है, इसलिये मैं भी आपके साथ वन चलूँगी। आपके साथ रहकर वहाँ मैं आपके चरणों के सेवा करके अपना कर्तव्य निबाहूँगी। पति की सेवा करके पत्नी को जो अपूर्व सुख प्राप्त होता है है वह सुख लोक और परलोक के सभी सुखों से बड़ा होता है। पत्नी के लिये पति ही परमेश्वर होता है। यदि आप कन्द-मूल-फलादि से अपनी उदर पूर्ति करेंगे तो मैं भी अपनी क्षुधा वैसे ही शांत करूँगी। आपसे अलग होकर स्वर्ग का सुख-वैभव भी मैं स्वीकार नहीं कर सकती। यदि आप मेरी इस विनय और प्रार्थना की उपेक्षा करके मुझे अयोध्या में छोड़ जायेंगे आपके वन के लिये प्रस्थान करते ही मैं अपना प्राणत्याग दूँगी। यही मेरी प्रतिज्ञा है।
राम को वन में होने वाले कष्टों को ध्यान था इसीलिए वे अपने साथ सीता को वन में नहीं ले जाना चाहते थे। वे उन्हें समझाने का प्रयत्न करने लगे किन्तु जितना वे प्रयत्न करते थे सीता का हठ उतना ही बढ़ते जाता था। किसी भी प्रकार से समझाने बुझाने का प्रयास करने पर वे अनेक प्रकार के शास्त्र सम्मत तर्क करने लगतीं और उनके प्रयास को विफल करती जातीं। जनकनन्दिनी की इस दृढ़ता के समक्ष राम का प्रत्येक प्रयास असफल हो गया और अन्त में उन्हें सीता को अपने साथ वन ले जाने की आज्ञा देने के लिये विवश होना पड़ा।
सीता की तरह ही लक्ष्मण ने भी राम के साथ वन में जाने के लिये बहुत अनुग्रह किया। राम ने बहुत प्रकार से समझाया किन्तु लक्ष्मण उनके साथ जाने के विचार पर दृढ़ रहे। परिणामस्वरूप राम को लक्ष्मण की दृढ़ता, स्नेह तथा अनुग्रह के सामने भी झुकना पड़ा और लक्ष्मण को भी साथ जाने की अनुमति देनी ही पड़ी। सीता और लक्ष्मण ने कौशल्या तथा सुमित्रा दोनों माताओं से आज्ञा लेने बाद, अनुनय विनय करके महाराज दशरथ से भी वन जाने की अनुमति देने के लिये मना लिया। इतना करने के पश्चात् लक्ष्मण शीघ्र आचार्य के पास पहुँचे और उनसे समस्त अस्त्र-शस्त्रादि लेकर राम के पास उपस्थित हो गये। लक्ष्मण के आने पर राम ने कहा, हे सौमित्र! वन के लिये प्रस्थान करने के पूर्व मैं अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति ब्राह्मणों, दास दासियों तथा याचकों में वितरित करना चाहता हूँ इसलिये तुम गुरु वशिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र को बुला लाओ।
वनगमन पूर्व राम के द्वारा दान – अयोध्याकाण्ड
बड़े भाई राम की आज्ञानुसार लक्ष्मण गुरु वशिष्ठ के पुत्र सुयज्ञ को अपने साथ ले आये। राम और सीता ने अत्यंत श्रद्धा के साथ उनकी प्रदक्षिणा की। इसके पश्चात् उन्होंने अपने स्वर्ण कुण्डल, बाजूबन्द, कड़े, मालाएँ तथा रत्नजटित अन्य आभूषणों को उन्हें देते हुये कहा, हे मित्र! जनकनन्दिनी सीता भी मेरे साथ वन को जा रही हैं। इसलिये ये अपने कंकण, मुक्तमाला-किंकणी, हीरे, मोती, रत्नादि समस्त आभूषण आपकी पत्नी को दान करना चाहती हैं। आप इन आभूषणों को सीता की ओर से उन्हें आदर तथा नम्रता के साथ समर्पित कर देना। मेरी यह स्वर्णजटित शैया अब मेरे लिये किसी काम का नहीं है अतः इसे भी आप ले जाइये। मेरे मामा ने अत्यंत स्नेह के साथ मुझे यह हाथी दिया था, इसे भी सहस्त्र स्वर्णमुद्राओं के साथ आप स्वीकार करें।
राम के वनगमन के विषय में ज्ञात होने पर सुयज्ञ के नेत्रों अश्रु भर आये। सजल नेत्रों के साथ राम के द्वारा प्रदान की गई वस्तुओं को उन्होंने ग्रहण किया और आशीर्वाद दिया, हे राम! तुम चिरजीवी होओ। तुम्हारा चौदह वर्ष का वनवास तुम्हारे लिये निष्कंटक और कीर्तिदायक हो। वनवास की अवधि समाप्त होने पर लौटने पर तुम्हें अयोध्या का राज्य पुनः प्राप्त हो।
इस प्रकार आशीर्वाद देकर गुरुपुत्र सुयज्ञ विदा हुये। उसके बाद राम ने अपने सेवकों को, जो कि राम के वनवास से दुखी होकर रो रहे थे, बहुत सारा धन दान में दिया और सान्त्वना देते हुये बोले, तुम लोग यहीं रहकर महाराज, माता कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी, भरत, शत्रुघ्न एवं अन्य गुरुजनों की तन मन लगाकर सेवा करना। सदैव इस बात का ध्यान रखना कि उन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो।
फिर राम ने अपनी समस्त व्यक्तिगत सम्पत्ति को मंगवाकर सीता के हाथों से उसे गरीब, दुःखी, दीन-दरिद्रों में बँटवा दिया।
राम और सीता के द्वारा मुक्त हस्त से दान दिए जाने की चर्चा सारे नगर में दावानल की भाँति फैल गई। उन दिनों अयोध्या के समीपवर्ती एक ग्राम में गर्गगोत्री त्रिजटा नामक एक तपस्वी ब्राह्मण निवास करता था। उनकी बहुत सी सन्तानें थीं और वह अत्यन्त दरिद्र था। उसे अपनी गृहस्थी का पालन पोषण करने में अत्यंत कठिनाई होती थी। राम के द्वारा किये जाने वाले दान की चर्चा सुनकर उसकी पत्नी ने उनसे से कहा, हे स्वामी! आपको भी ज्ञात हुआ होगा कि अयोध्या के ज्येष्ठ राजकुमार श्री रामचन्द्रजी अपना सर्वस्व दान में वितरित कर रहे हैं। आप भी उनके पास जाकर याचना करें। हमारी निर्धनता और दरिद्रता से तथा आपकी याचना से द्रवित होकर दयालु राम हम पर भी अवश्य ही दया करेंगे और इस दरिद्रता से हमारा उद्धार कर देंगे।
तपस्वी त्रिजटा याचना में रुचि नहीं रखते थे। किन्तु पत्नी के बार-बार प्रेरित किये जाने पर विवश होकर वे श्री राम के दरबार की ओर चल पड़े। वे शीघ्रातिशीघ्र एक के बाद एक पाँच ड्यौढ़ियाँ पार करके राम के समक्ष जा पहुँचे। उनकी तपस्याजनित तेज और ओज प्रभावित राम बोले, हे तपस्वी! हे ब्राह्मण देवता!! आपका हृदय तीव्र गति से स्पंदित हो रहा है और शुभ्रभाल पर स्वेद कण झलक रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आप बड़ी दूर से तीव्र गति के साथ चले आ रहे हैं। आपकी वेषभूषा आपके धन का अभाव का परिचाय देता है।
अतः आपने अपने हाथ में जो दण्ड रखा है उसे आप अपनी पूर्ण शक्ति के साथ फेंकिये। यह दण्ड जहाँ पर जाकर गिरेगा, आपके खड़े होने से उस स्थान तक जितनी गौएँ खड़ी हो सकेंगी, मैं आपको अर्पित कर दूँगा और उन गौओं के भरण पोषण के लिये भी पर्याप्त साधन जुटा दूँगा। इस आदेश को सुनकर त्रिजटा ने पूरी शक्ति के साथ दण्ड फेंका। दण्ड सरयू नदी के दूसरी पार जाकर गिरा। राम ने उसके बल की सराहना की तथा उसे अपनी प्रतिज्ञानुसार गौएँ दान में दीं। उनको विदा करने के पूर्व स्वर्ण, मोती, मुद्राएँ, वस्त्रादि भी दान में दिया। इस प्रकार अपनी असंख्य धनराशि का दान कर सबको सन्तुष्ट करने के पश्चात् वे सीता और लक्ष्मण के साथ पिता के दर्शनों के लिये चले गये।
पिता के अन्तिम दर्शन – अयोध्याकाण्ड
सुमन्त राजा दशरथ के कक्ष में पहुँचे। उन्होंने देखा कि महाराज पुत्र-वियोग की आशंका से व्याकुल हैं। वे पानी से बाहर निकाल दी गई मछली की तरह तड़प रहे थे। सुमन्त ने उनसे हाथ जोड़ कर निवेदन किया, महाराज! आपके ज्येष्ठ पुत्र धर्मात्मा राम सीता और लक्ष्मण के साथ आपके दर्शनों की कामना लिये द्वार पर प्रतीक्षा कर रहे हैं। माताओं एवं अन्य बन्धु-बान्धवों भेंट करने के बाद वे अब आपके दर्शन हेतु आये हुये हैं। उन्हें भीतर आने की आज्ञा दें।
महाराज दशरथ ने धैर्य धारण करते हुए कहा, हे मन्त्रिवर! राम के भीतर आने से पहले आप सभी रानियों समस्त परिजनों को यहाँ बुला लाइये। यह तो निश्चित हो चुका है कि राम वनगमन करेंगे ही। मुझे यह भी ज्ञात है कि राम के वियोग में मेरी मृत्यु भी अवश्यसंभावी है। अतः मैं चाहता हूँ कि इन दोनों महान घटनाओं को देखने हेतु मेरा समस्त परिवार यहाँ उपस्थित रहे। सुमन्त ने महाराज की आज्ञानुसार सभी रानियों तथा परिजनों को वहाँ बुलवा लिया। उसके पश्चात् राम, सीता तथा लक्ष्मण को भी महाराज के पास ले आये।
हाथ जोड़े हुये राम वहाँ पर उपस्थित अपने पिता और माताओं की ओर बढ़े। राम को इस प्रकार अपनी ओर आता देख महाराज दशरथ उन्हें हृदय से लगाने की अभिलाषा से अपने आसन से उठ खड़े हुये। किंतु अत्यधिक शोक तथा दुर्बल होने के कारण वे केवल एक पग बढ़ाते ही मूर्छित होकर गिर पड़े। पिता की ऐसी दशा देखकर राम और लक्ष्मण ने तत्काल उन्हें सहारा देकर पलंग पर लिटा दिया। महाराज की मूर्छा भंग होने पर राम ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा, हे पिता, आप ही हम सबके स्वामी हैं। कृपा करके आप धैर्य धारण करें और हम तीनों को आशीर्वाद दें कि हम वन में चौदह वर्ष की अवधि व्यतीत करने के पश्चात् पुनः आपके दर्शन करें।
महाराज दशरथ ने आर्द्र स्वर में कहा, पुत्र! तुम्हें वनों में भटकने के लिये भेजने की मेरी कदापि इच्छा नहीं है किन्तु मैं विवश हूँ। अब मैं इससे अधिक क्या कह सकता हूँ कि जाओ, तुम्हारे वनवास का काल कल्याणकारी हो। ईश्वर सदैव तुम्हारी रक्षा करें। मुझे इस बात की भी आशा नहीं है कि तुम्हारे वापस आने तक मैं जीवित रह पाउंगा फिर भी मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि तुम्हारे लौटने पर मैं तुम्हें पुनः देख पाऊँ।
वहाँ पर उपस्थित गुरु वशिष्ठ, महामन्त्री सुमन्त आदि वरिष्ठजनों ने एक बार फिर से कैकेयी को समझाने का प्रयास किया कि वह अपना वर वापस ले ले किंतु कैकेयी अपने इरादों पर अडिग रही। महाराज दशरथ की इच्छा थी कि राम के साथ चतुरंगिणी सेना और अन्न-धन का कोष भेजने की व्यस्था हो किन्तु राम ने विनयपूर्वक उनकी इस इच्छा को अस्वीकार कर दिया। अन्त में महाराज ने सुमन्त को आदेश दिया, हे मन्त्रिवर! आप स्वयं उत्तम घोड़ों से जुता हुआ रथ ले आयें और इन सबको देश की सीमा से बाहर तक छोड़ें। इतना कहते ही कर राजा विह्वल हो कर रोने लगे। सुमन्त तत्काल ही महाराज की आज्ञा का पालन करने के लिये निकल पड़े।
वन के लिये प्रस्थान – अयोध्याकाण्ड
जैसे कि महाराज ने आज्ञा दी थी, सुमन्त रथ ले आये। राम, सीता और लक्ष्मण ने वहाँ पर उपस्थित परिजनों तथा जनसमुदाय का यथोचित अभिवादन किया और रथ पर बैठकर चलने को उद्यत हुये। सुमन्त के द्वारा रथ हाँकना आरम्भ करते ही अयोध्या के लाखों नागरिकों ने हा राम! हा राम!! कहते हुये उस रथ के पीछे दौड़ना शुरू कर दिया। जब रथ की गति तेज हो गई और निवासी रथ के साथ-साथ दौड़ पाने में असमर्थ हो गये तो वे उच्च स्वर में कहने लगे, रथ रोको, हम राम के दर्शन करना चाहते हैं। भगवान जाने अब हमें फिर कब हम इनके दर्शन हो पायेंगे।
राजा दशरथ भी कैकेयी के प्रकोष्ठ से निकल करहे राम! हे राम!! कहते हुये विक्षिप्त की भाँति रथ के पीछे दौड़ रहे थे। हाँफते हुये महाराज को रथ के पीछे दौड़ते देखकर सुमन्त ने रथ रोका और बोले, हे पृथ्वीपति! रुक जाइये। इस प्रकार राम, सीता और लक्ष्मण के पीछे मत दौड़िये। ऐसा करना पाप है। आपकी आज्ञा से ही तो राम वनगमन कर रहे हैं, इसलिये उन्हें रोकना सर्वथा अनुचित तथा व्यर्थ है।
सुमन्त के वचन सुन महाराज वहीं रुक गये। रथ तीव्र गति से आगे बढ़ गया किंतु प्रजाजन रोते बिलखते उसके पीछे ही दौड़ते रहे।
चित्रलिखित से खड़े महाराज उस रथ को तब तक एकटक निहारते रहे जब तक रथ की धूलि दृष्टिगत होती रही। धूलि का दिखना बन्द हो जाने पर वे वहीं हा राम! हा लक्ष्मण!! कहकर भूमि पर गिर पड़े और मूर्छित हो गये। मन्त्रियों ने तत्काल उन्हें उठाकर एक स्थान पर लिटाया। मूर्छा भंग होने पर मृतप्राय से महाराज अस्फुट स्वर में कहने लगे, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मैं सबसे बड़ा अभागा व्यक्ति हूँ जिसके दो-दो पुत्र एक साथ वृद्ध पिता को बिलखता छोड़कर वन को चले गये। अब मेरा जीवन व्यर्थ है। फिर वे मन्त्रियों से बोले, मैं महारानी कौसल्या के महल में जाना चाहता हूँ। मेरा शेष जीवन वहीं व्यतीत होगा। अब वहाँ के अतिरिक्त मुझे अन्यत्र कहीं भी शान्ति मिलना असम्भव है।
राम और लक्ष्मण के वियोग के संतप्त महाराज कौसल्या के महल में पुनः मूर्छित हो गये। उनकी इस दशा को देखकर महारानी कौसल्या विलाप करने लगीं। कौसल्या के विलाप को सुनकर महारानी सुमित्रा वहाँ आ गईं और उन्हें अनेक प्रकार से समझाकर शान्त किया। फिर दोनों रानियाँ महाराज दशरथ की मूर्छा दूर करने का प्रयास करने लगीं।
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- सुन्दरकाण्ड: मेधनाद हनुमान युद्ध, लंका में हनुमान जी और मेघनाद का भयंकर युद्ध, मेघनाद ने हनुमान पर की बाणों की वर्षा
- सुन्दरकाण्ड: रावण के दरबार में हनुमान, रावण हनुमान संवाद, हनुमान-रावण की लड़ाई, लंका दहन, हनुमान जी द्वारा लंका दहन, हनुमान ने सोने की लंका में लगाई आग
- सुन्दरकाण्ड: माता सीता का संदेश देना, हनुमान के द्वारा राम सीता का संदेश, हनुमान ने राम को दिया माता सीता का संदेश
- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): समुद्र पार करने की चिन्ता, वानर सेना का प्रस्थान, वानर सेना का सेनापति कौन था, वानर सेना रामायण, वानर सेना का गठन
- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): लंका में राक्षसी मन्त्रणा, विभीषण ने रावण को किस प्रकार समझाया, विभीषण का निष्कासन, विभीषण का श्री राम की शरण में आना
- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): सेतु बन्धन, राम सेतु पुल, क्यों नहीं डूबे रामसेतु के पत्थर, राम सेतु का निर्माण कैसे हुआ, नल-नील द्वारा पुल बाँधना
- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): सीता के साथ छल, रावण का छल, रावण ने छल से किया माता सीता का हरण Sampoorna Ramayan Yuddha Kand (Lanka Kand)
- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): अंगद रावण दरबार में, अंगद ने तोड़ा रावण का घमंड, रावण की सभा में अंगद-रावण संवाद, रावण की सभा में अंगद का पैर जमाना
- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): राम लक्ष्मण बन्धन में, नागपाश में राम लक्ष्मण, धूम्राक्ष और वज्रदंष्ट्र का वध, राक्षस सेनापति धूम्राक्ष का वध, अकम्पन का वध, प्रहस्त का वध
- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): रावण कुम्भकर्ण संवाद, कुम्भकर्ण वध, कुंभकरण का वध किसने किया, कुम्भकर्ण की कहानी Sampoorna Ramayan Yuddha Kand (Lanka Kand)
- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): त्रिशिरा, अतिकाय आदि का वध, अतिकाय का वध, मायासीता का वध, रावण पुत्र मेघनाद (Sampoorna Ramayan Yuddha Kand (Lanka Kand)
- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): लक्ष्मण मेघनाद युद्ध कथा, मेघनाथ लक्ष्मण का अंतिम युद्ध, मेघनाद वध, मेघनाथ को कौन मार सकता था? लक्ष्मण ने मेघनाद को कैसे मारा
- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): लक्ष्मण मूर्छित, मेघनाद ने ब्रह्म शक्ति से लक्ष्मण को किया मूर्छित, लक्ष्मण मूर्छित होने पर राम विलाप, संजीवनी बूटी लेकर आए हनुमान
- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): रावण का युद्ध के लिये प्रस्थान, श्रीराम-रावण का युद्ध, राम और रावण के बीच युद्ध, रावण वध, मन्दोदरी का विलाप
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- युद्धकाण्ड (लंकाकाण्ड): भरत मिलाप, राम और भरत का मिलन, राम भरत संवाद, राम का राज्याभिषेक Sampoorna Ramayan Yuddha Kand (Lanka Kand)
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