संपूर्ण रामायण कथा अयोध्याकाण्ड: कैकेयी का कोपभवन में जाना, कैकेयी कोपभवन, कैकेयी क्रंदन, राजा दशरथ ने क्यों दिए कैकेयी को दो वरदान, कैकेयी द्वारा वरों की प्राप्ति, भरत को सिंहासन और प्रभु राम को वनवास, रामायण में मंथरा का रोल (Sampurna Ramayan Katha Ayodhya Kand- Kaikeyi in Kop Bhavan, Kekai Kop Bhavan in Ramayana, Kop Bhavan Meaning, Kop Bhawan Kya Hai, Raja Dashrath Ne Kekai Ko Kya Vardaan Diya, Kekai Ki Dasi Ka Kya Naam Tha, Kekai Ke Putra Ka Naam)
कैकेयी का कोपभवन में जाना, राजा दशरथ ने क्यों दिए कैकेयी को दो वरदान
राम के राजतिलक का शुभ समाचार अयोध्या के घर-घर में पहुँच गया। पूरी नगरी में प्रसन्नता की लहर फैल गई। घर-घर में मंगल मनाया जाने लगा। स्त्रियाँ मधुर स्वर में रातभर मंगलगान करती रहीं। सूर्योदय होने पर नगरवासी अपने-अपने घरों को ध्वाजा-पताका, वन्दनवार आदि से सजाने लगे। हाट बाजारों को भाँति भाँति के सुगन्धित एवं रंग-बिरंगे पुष्पों से सजाया गया। गवैये, नट, नर्तक आदि अपने आश्चर्यजनक करतब दिखाकर नगरवासियों का मनोरंजन करने लगे। स्थान स्थान में कदली-स्तम्भों के द्वार बनाये गए। ऐसा प्रतीत होने लगा कि अयोध्या नगरी नववधू के समान ऋंगार कर राम के रूप में वर के आगमन की प्रतीक्षा कर रही है।
किन्तु राम के राजतिलक का समाचार सुनकर एवं नगर की इस अद्भुत् श्रृंगार को देखकर रानी कैकेयी कि प्रिय दासी मंथरा के हृदय को असहनीय आघात लगा। वह सोचने लगी कि यदि कौशल्या का पुत्र राजा बन जायेगा तो कौशल्या को राजमाता का पद प्राप्त हो जायेगा और कौशल्या की स्थिति अन्य रानियों की स्थिति से श्रेष्ठ हो जायेगी। ऐसी स्थिति में उसकी दासियाँ भी स्वयं को मुझसे श्रेष्ठ समझने लगेंगीं। वर्तमान में कैकेयी राजा की सर्वाधिक प्रिय रानी है और इसी कारण से महारानी कैकेयी का ही राजमहल पर शासन चलता है। कैकेयी की दासी होने का श्रेय प्राप्त होने के कारण राजप्रसाद की अन्य दासियाँ मेरा सम्मान करती हैं। यदि कौशल्या राजमाता बन जायेगी तो मेरा यह स्थान मुझसे छिन जायेगा। मैं यह सब कुछ सहन नहीं कर सकती। अतः इस विषय में अवश्य ही मुझे कुछ करना चाहिये।
ऐसा विचार करके मंथरा ने अपने प्रासाद में लेटी हुई कैकेयी के पास जाकर कहा, महारानी! आप सो रही हैं? यह समय क्या सोने का है? क्या आपको पता है कि कल राम का युवराज के रूप में अभिषेक होने वाला है?
मंथरा के मुख से राम के राजतिलक का समाचार सुनकर कैकेयी को अत्यंत प्रसन्नता हुई। समाचार सुनाने की खुशी में कैकेयी ने मंथरा को पुरस्कारस्वरूप एक बहुमूल्य आभूषण दिया और कहा, मंथरे! तू अत्यन्त प्रिय समाचार ले कर आई है। तू तो जानती ही है कि राम मुझे बहुत प्रिय है। इस समाचार को सुनाने के लिये तू यदि और भी जो कुछ माँगेगी तो मैं वह भी तुझे दूँगी।
कैकेयी के वचनों को सुन कर मंथरा अत्यन्त क्रोधित हो गई। उसकाका तन-बदन जल-भुन गया। पुरस्कार में दिये गये आभूषण को फेंकते हुये वो बोली, महारानी आप बहुत नासमझ हैं। स्मरण रखिये कि सौत का बेटा शत्रु के जैसा होता है। राम का अभिषेक होने पर कौशल्या को राजमाता का पद मिल जायेगा और आपकी पदवी उसकी दासी के जैसी हो जायेगी। आपका पुत्र भरत भी राम का दास हो जायेगा। भरत के दास हो जाने पर पर आपकी बहू को भी एक दासी की ही पदवी मिलेगी।
यह सुनकर कैकेयी ने कहा, मंथरा राम महाराज के ज्येष्ठ पुत्र हैं और प्रजा में अत्यन्त लोकप्रिय हैं। अपने सद्गुणों के कारण वे सभी भाइयों से श्रेष्ठ भी हैं। राम और भरत भी एक दूसरे को भिन्न नहीं मानते क्योंकि उनके बीच अत्यधिक प्रेम है। राम अपने सभी भाइयों को अपने ही समान समझते हैं इसलिये राम को राज्य मिलना भरत को राज्य मिलने के जैसा ही है।
यह सब सुनकर मंथरा और भी दुःखी हो गई। वह बोली, किन्तु महारानी! आप यह नहीं समझ रही हैं कि राम के बाद राम के पुत्र को ही अयोध्या का राजसिंहासन प्राप्त होगा तथा भरत को राज परम्परा से अलग होना पड़ जायेगा। यह भी हो सकता है कि राज्य मिल जाने पर राम भरत को राज्य से निर्वासित कर दें या यमलोक ही भेज दें। अपने पुत्र के अनिष्ट की आशंका की बात सुनकर कैकेयी का हृदय विचलित हो उठा। उसने मंथरा से पूछा, ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिये?
मंथरा ने उत्तर दिया, आपको स्मरण होगा कि एक बार देवासुर संग्राम के समय महाराज दशरथ आपको साथ लेकर युद्ध में इन्द्र की सहायता करने के लिये गये थे। उस युद्ध में असुरों के अस्त्र-शस्त्रों से महाराज दशरथ का शरीर जर्जर हो गया था और वे मूर्छित हो गये थे। उस समय सारथी बन कर आपने उनकी रक्षा की थी। आपकी उस सेवा के बदले में उन्होंने आपको दो वरदान दो वरदान प्रदान किया था जिसे कि आपने आज तक नहीं माँगा है। अब आप एक वर से भरत का राज्याभिषेक और दूसरे वर से राम के लिये चौदह वर्ष तक का वनवास माँग कर अपना मनोरथ सिद्ध कर लीजिये। शीघ्रातिशीघ्र आप मलिन वस्त्र धारण कर कोपभवन में चले जाइये। महाराज आपको बहुत अधिक चाहते हैं इसलिए वे अवश्य ही आपको मनाने का प्रयत्न करेंगे और आपके द्वारा माँगने पर उन दोनों वरों को देने के लिये तैयार हो जायेंगे। किन्तु स्मरण रखें कि वर माँगने के पूर्व उनसे वचन अवश्य ले लें जिससे कि वे उन वरदानों को देने के लिये बाध्य हो जायें। मंथरा के कथन के अनुसार कैकेयी कोपभवन में जाकर लेट गई।
क्या है कोप भवन, रामायण में माता कैकेयी शोक के लिए कोप भवन में ही क्यों गई ?
कोप भवन उस भवन का नाम है जिसमें जाकर महारानी कैकेयी ने राजा दशरथ के प्रति क्रोध दिखाया था। राजा के मनाने पर वह तभी मानी जब पहले से माँगे हुए वर की पूर्ति के लिए राजा राम को चौदह वर्ष का वनवास देने और भरत का राज्याभिषेक कराने के लिए तैयार हो गये। यह घटना रामायण में आयी है और इस नाते कोपभवन प्रसिद्ध है।
इस भवन का नाम कोपभवन क्यों पड़ा इस सम्बन्ध में दो मत प्रकट किये जा सकते हैं। एक तो यह कि रानियों के रूठने और क्रोध व्यक्त करने के लिए यह भवन बनाया गया था। दूसरा मत यह हो सकता है कि कैकेयी के उस भवन में जाकर क्रोध करने की घटना के कारण इस भवन का यह नाम पड़ गया। यह भी हो सकता है कि पहले भी किसी रानी के इस प्रकार क्रोध करने की घटना हुई हो इस कारण कैकेयी से पहले ही इस भवन का नाम कोपभवन पड़ गया हो। अधिक तार्किक दूसरा मत ही प्रकट होता है। यह लगता है कि कैकेयी अपना क्रोध दिखाने के लिए अपना महल छोड़कर एक ऐसे महल में चली गयी थी जिसमें सामान्यतः राजपरिवार के लोग बहुत कम जाते थे। राजा समझ गये कि वह उनसे नाराज होकर गयी है और उन्होंने जाकर उसे मनाया। राम के वनवास और राजा दशरथ की मृत्यु का कारण होने से यह घटना इतनी प्रसिद्ध हुई कि यह भवन ही कोपभवन कहा जाने लगा।
राजा दशरथ ने कैकेयी को दो वरदान दिए थे, कैकेयी द्वारा वरों की प्राप्ति
उल्लासित महाराज दशरथ ने शीघ्रातिशीघ्र राजकार्यों को सम्पन्न किया और राम के राजतिलक का शुभ समाचार सुनाने के लिये अपनी सबसे प्रिय रानी कैकेयी के प्रासाद में पहुँचे। कैकेयी को अपने महल में न पाकर राजा दशरथ ने उसके विषय में एक दासी से पूछा। दासी से ज्ञात हुआ कि रुष्ट होकर महारानी कैकेयी कोपभवन में गई हैं। महाराज चिन्तित हो गए। उन्होंने कोपभवन में जाकर देखा कि उनकी प्राणप्रिया मलिन वस्त्र धारण किये, केश बिखराये, भूमि पर अस्त-व्यस्त पड़ी है। उनकी इस अवस्था को देखकर आश्चर्यचकित राजा दशरथ ने कहा, प्राणेश्वरी! मुझसे ऐसा क्या अनिष्ट हुआ है कि क्रुद्ध होकर तुम कोपभवन में आई हो? यदि तुम किसी बात से दुःखी हो तो मुझे बताओ। मैं तुम्हारे कष्ट का निवारण अवश्य करूँगा।
महाराज के इस प्रकार मनुहार करने पर कैकेयी बोलीं, प्रणनाथ! मेरी एक अभिलाषा है। किन्तु यदि आप उसे पूरी करने की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करेंगे तभी मैं आपको अपनी अभिलाषा के विषय में बताउँगी।
महाराज दशरथ ने मुस्कुराते हुये कहा, केवल इतनी सी बात के लिये तुम कोपभवन में चली आईं हो? मुझे बताओ, तुम्हारी क्या इच्छा है। मैं तत्काल उसे पूरा करता हूँ।
इस पर कैकेयी बोली, महाराज! पहले आप सौगन्ध लीजिये कि आप मेरी अभिलाषा अवश्य पूरी करेंगे।
इस पर महाराजा दशरथ ने कहा, हे प्राणप्रिये! इस संसार में मुझे राम से अधिक प्रिय और कोई नहीं है। मैं राम की ही सौगन्ध लेकर वचन देता हूँ कि तुम्हारी जो भी मनोकामना होगी, उसे मैं तत्काल पूरी करूँगा।
महाराज सौगन्ध लेने से आश्वस्त हो जाने पर कैकेयी बोली, आपको स्मरण होगा कि देवासुर संग्राम के समय आपके मूर्छित हो जाने पर मैंने आपकी रक्षा की थी और प्रसन्न होकर आपने मुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी। उन दोनों वरों को मैं आज माँगना चाहती हूँ। पहला वर तो मुझे यह दें कि आप राम के स्थान पर मेरे पुत्र भरत का राजतिलक करें और दूसरा वर मैं यह माँगती हूँ कि राम को चौदह वर्ष के लिये वन जाने की आज्ञा दें। मेरी इच्छा है कि आज ही राम वल्कल पहनकर वनवासियों की भाँति वन के लिये प्रस्थान करे। अब आप अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें क्योंकि आप सूर्यवंशी हैं और सूर्यवंश में अपनी प्रतिज्ञा का पालन प्राणों की बलि देकर भी किया जाता है।
कैकेयी के इन वचनों को सुनकर राजा दशरथ का हृदय चूर-चूर हो गया। उन्हे असह्य पीड़ा हुई और वे मूर्छित होकर गिर पड़े। कुछ काल बाद जब उनकी मूर्छा भंग हुई तो वे क्रोध और वेदना से काँपते हुये बोले, रे कुलघातिनी! न जाने मुझसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ है जिसका तूने इतना भयंकर प्रतिशोध लिया है। पतिते! नीच! राम तो तुझ पर कौशल्या से भी अधिक श्रद्धा रखता है। फिर भी तू उसका जीवन नष्ट करने के लिये कटिबद्ध हो गई है। प्रजा को अत्यन्त प्रिय राम को बिना किसी अपराध के मैं भला कैसे निर्वासित कर सकता हूँ? तू अच्छी तरह से जानती है कि मैं अपने प्राण त्याग सकता हूँ किन्तु राम का वियोग नहीं सह सकता। मैं तुझसे विनती करता हूँ कि राम के वनवास की बात के बदले तू कुछ और माँग ले। मैं तुझे विश्वास दिलाता हूँ कि मैं तेरी माँग अवश्य पूरी करूँगा।
महाराज दशरथ के इन दीन वचनों को सुनकर कैकेयी तनिक भी द्रवित नहीं हुई। वह बोली, राजन्! ऐसा कहकर आप अपने वचन से हट रहे हैं। यह आपको शोभा नहीं देता। आप सूर्यवंशी हैं, अपनी प्रतिज्ञा पूरी कीजिये। प्रतिज्ञा से हटकर स्वयं को और सूर्यवंश को कलंकित मत कीजिये। आपके द्वारा अपना वचन नहीं निभाये जाने पर मैं तत्काल आपके सम्मुख ही विष पीकर अपने प्राण त्याग दूँगी। यदि ऐसा हुआ तो आप प्रतिज्ञा भंग करने के साथ ही साथ स्त्री-हत्या के भी दोषी हो जायेंगे। अतः उचित यही है कि आप अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें।
राजा दशरथ बारम्बार मूर्छित होते रहे और मूर्छा समाप्त होने पर कातर भाव से कैकेयी को मनाने का प्रयत्न करते रहे। इस प्रकार पूरी रात बीत गई। अम्बर में उषा की लालिमा फैलने लगी जिसे देखकर कैकेयी ने उग्ररूप धारण कर लिया और कहा, राजन्! आप व्यर्थ ही समय व्यतीत कर रहे हैं। उचित यही है कि आप तत्काल राम को वन जाने की आज्ञा दीजिये और भरत के राजतिलक की घोषणा करवाइये।
सूर्योदय हो जाने पर गुरु वशिष्ठ मन्त्रियों के साथ राजप्रासाद के द्वार पर पहुँचे और महामन्त्री सुमन्त को महाराज के पास जाकर अपने आगमन की सूचना देने के लिये कहा। कैकेयी एवं दशरथ के संवाद से अनजान सुमन्त ने महाराज के पास जाकर कहा, हे राजाधिराज! रात्रि का समापन हो गया है और गुरु वशिष्ठ का आगमन भी हो चुका है। अतएव आप शैया त्याग कर गुरु वशिष्ठ के पास चलिये।
सुमन्त के इन वचनो को सुनकर महाराज दशरथ को पुनः असह्य वेदना का अनुभव हुआ तथा वे फिर से
मूर्छित हो गये। उनके इस प्रकार मूर्छित होने पर कुटिल कैकेयी बोली, हे महामन्त्री! अपने प्रिय पुत्र के राज्याभिषेक के उल्लास के कारण महाराज रात भर सो नहीं सके हैं। उन्हें अभी-अभी ही तन्द्रा आई है। महाराज निद्रा से जागते ही राम को कुछ आवश्यक निर्देश देना चाहते हैं। तुम शीघ्र जाकर राम को यहीं बुला लाओ। कैकेयी के आदेशानुसार सुमन्त रामचन्द्र को उनके महल से बुला लाये।
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