Biography of Meera Bai

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मीरा बाई की जीवनी
इस लेख में हम आप को कृष्ण की एक ऐसी भक्त के बारें में बताने जा रहें है जो उनकी भक्ति में जोगन बन गई थी. उनका नाम है मीरा बाई जो एक मध्यकालीन हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और कृष्ण भक्त थीं. वे भक्ति आन्दोलन के सबसे लोकप्रिय भक्ति-संतों में एक थीं. भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित उनके भजन आज भी उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं और श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं. मीरा का जन्म राजस्थान के एक राजघराने में हुआ था. मीरा बाई के जीवन के बारे में तमाम पौराणिक कथाएँ और किवदंतियां प्रचलित हैं. ये सभी किवदंतियां मीराबाई के बहादुरी की कहानियां कहती हैं और उनके कृष्ण प्रेम और भक्ति को दर्शाती हैं. इनके माध्यम से यह भी पता चलता है की किस प्रकार से मीराबाई ने सामाजिक और पारिवारिक दस्तूरों का बहादुरी से मुकाबला किया और कृष्ण को अपना पति मानकर उनकी भक्ति में लीन हो गयीं. उनके ससुराल पक्ष ने उनकी कृष्ण भक्ति को राजघराने के अनुकूल नहीं माना और समय-समय पर उनपर अत्याचार किये.

जैसा कि आप सब जानते ही है कि भारतीय परंपरा में भगवान् कृष्ण के गुणगान में लिखी गई हजारों भक्तिपरक कविताओं का सम्बन्ध मीरा के साथ जोड़ा जाता है पर विद्वान ऐसा मानते हैं कि इनमें से कुछ कवितायेँ ही मीरा द्वारा रचित थीं बाकी की कविताओं की रचना 18वीं शताब्दी में हुई प्रतीत होती है. ऐसी ढेरों कवितायेँ जिन्हें मीराबाई द्वारा रचित माना जाता है, दरअसल उनके प्रसंशकों द्वारा लिखी मालूम पड़ती हैं. ये कवितायेँ भजन कहलाती हैं और उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं.

पूरा नाम: – मीरा बाई
जन्म स्थान: – मेड़ता, राजस्थान
जन्म: – 1498 ईं
मृत्यु: – 1547 ई
पद/कार्य: – कवियित्री, महान कृष्ण भक्त

वहीं मीराबाई का जीवन आधुनिक युग में कई फिल्मों, साहित्य और कॉमिक्स का विषय रहा है.

मीरा बाई का प्रारंभिक जीवन
बात करें मीराबाई के जीवन से जुड़ी बातों के बारें में तो उनसे सम्बंधित कोई भी विश्वसनीय ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हैं. विद्वानों ने साहित्य और दूसरे स्रोतों से मीराबाई के जीवन के बारे में प्रकाश डालने की कोशिश की है. इन दस्तावेजों के अनुसार मीरा का जन्म राजस्थान के मेड़ता में सन 1498 में एक राजपरिवार में हुआ था.

बता दें कि उनके पिता रतन सिंह राठोड़ एक छोटे से राजपूत रियासत के शासक थे. वे अपनी माता-पिता की इकलौती संतान थीं और जब वे छोटी बच्ची थीं तभी उनकी माता का निधन हो गया था. उन्हें संगीत, धर्म, राजनीति और प्राशासन जैसे विषयों की शिक्षा दी गयी. मीरा का लालन-पालन उनके दादा के देख-रेख में हुआ जो भगवान् विष्णु के गंभीर उपासक थे और एक योद्धा होने के साथ-साथ भक्त-हृदय भी थे और साधु-संतों का आना-जाना इनके यहाँ लगा ही रहता था. इस प्रकार मीरा बचपन से ही साधु-संतों और धार्मिक लोगों के सम्पर्क में आती रहीं.

मीरा बाई का विवाह
मीरा का विवाह राणा सांगा के पुत्र और मेवाड़ के राजकुमार भोज राज के साथ सन 1516 में संपन्न हुआ. उनके पति भोज राज दिल्ली सल्तनत के शाशकों के साथ एक संघर्ष में सन 1518 में घायल हो गए और इसी कारण सन 1521 में उनकी मृत्यु हो गयी. उनके पति के मृत्यु के कुछ वर्षों के अन्दर ही उनके पिता और श्वसुर भी मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के साथ युद्ध में मारे गए.

ऐसा कहा जाता है कि उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु के बाद मीरा को उनके पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया किन्तु वे इसके लिए तैयार नही हुईं और धीरे-धीरे वे संसार से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं.

मीरा बाई की कृष्ण भक्ति
पति के मृत्यु के बाद इनकी भक्ति दिनों-दिन बढ़ती गई. मीरा अक्सर मंदिरों में जाकर कृष्णभक्तों के सामने कृष्ण की मूर्ति के सामने नाचती रहती थीं. मीराबाई की कृष्णभक्ति और इस प्रकार से नाचना और गाना उनके पति के परिवार को अच्छा नहीं लगा जिसके वजह से कई बार उन्हें विष देकर मारने की कोशिश की गई.

ऐसा माना जाता है कि सन्‌ 1533 के आसपास मीरा को राव बीरमदेव ने मेड़ता बुला लिया और मीरा के चित्तौड़ त्याग के अगले साल ही सन्‌ 1534 में गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर लिया. इस युद्ध में चितौड़ के शासक विक्रमादित्य मारे गए तथा सैकड़ों महिलाओं ने जौहर किया. इसके पश्चात सन्‌ 1538 में जोधपुर के शासक राव मालदेव ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया जिसके बाद बीरमदेव ने भागकर अजमेर में शरण ली और मीरा बाई ब्रज की तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ीं. सन्‌ 1539 में मीरा बाई वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिलीं. वृंदावन में कुछ साल निवास करने के बाद मीराबाई सन्‌ 1546 के आस-पास द्वारका चली गईं.

तत्कालीन समाज में मीराबाई को एक विद्रोही माना गया क्योंकि उनके धार्मिक क्रिया-कलाप किसी राजकुमारी और विधवा के लिए स्थापित परंपरागत नियमों के अनुकूल नहीं थे. वह अपना अधिकांश समय कृष्ण के मंदिर और साधु-संतों व तीर्थ यात्रियों से मिलने तथा भक्ति पदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं.

मीरा बाई की रचनाएं
भगवान् श्रीकृष्ण के गुणगान में रचित सैकड़ों भजन को मीराबाई के साथ जोड़ा देखा जाता है. लेकिन विद्वानों का मत इससे अलग है. ज्यादातर विद्वान का मत है की मीराबाई ने इनमें से कुछ भजन का ही रचना की थी.

बाकी की रचनायें उनके प्रसंशकों द्वारा रचित जान पड़ती है. उनकी काव्य रचना में उनकी आत्मा का रुदन और हास्य दोनो समाहित है. मीरा बाई ने ब्रजभाषा और राजस्थानी में स्फुट पद की ही रचना की.

इस पद की संख्या दो सौ से पाँच सौ के बीच मानी जाती है. मीरा बाई की रचना में माधुर्य भाव की प्रधनता दिखती हैं. उन्होंने कृष्ण की भक्ति प्रीतम और पति के रूप में की और हमेशा उन्हें पाने की कामना की.

कुछ विद्वान के अनुसार मीरा बाई के चार प्रमुख रचना मानी जाती है.
1- गीतगोविंद टीका,
2- राग गोविंद,
3- राग सोरठ
4- नरसी का मायरा.

मीरा बाई के पद के कुछ अंश
हरि आप हरो जन री भीर. द्रोपदी री लाज राखी, आप बढ़ायो चीर. भगत कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर.
बूढ़तो गजराज राख्यो, काटी कुञ्जर पीर. दासी मीरा लाल गिरधर, हरो म्हारी भीर॥
चाकरी में दरसण पास्यू, सुमरण पास्यू खरची. भाव भगती जागीरी पास्यू, तीनूं बाता सरसी.
मोर मुगट पीताम्बर सौहे, गल वैजंती माला. बिंदरावन में धेनु चरावे, मोहन मुरली वाला.

मीरा बाई के पद और दोहे के अंश
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो. वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु कृपा करि अपनायो. पायो जी मैंने राम रतन धन पायो.
जी पाई जग में सभी खोवायो. पायो जी मैंने राम रतन धन पायो. खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो. पायो जी मैंने राम रतन धन पायो.
सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो. मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो, पायो जी मैंने राम रतन धन पायो.

मीरा बाई की मृत्यु
ऐसा माना जाता है कि बहुत दिनों तक वृन्दावन में रहने के बाद मीरा द्वारिका चली गईं जहाँ सन 1560 में वे भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गईं.

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