अपराध , कानून और उम्र - नाबालिग कानून

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अपराध कानून और उम्र, सोलह वर्ष की आयु वाला युवक को क्या कहते हैं
पिछले साल करीब चौदह फीसद नाबालिग आरोपी ही सुधारगृह भेजे गए। जबकि भारतीय दंड संहिता के तहत पकड़े गए लगभग चौहत्तर फीसद नाबालिग आरोपी सोलह से अठारह वर्ष के थे। कुछ लोगों की दलील है कि किशोर न्याय कानून के मद्देनजर किशोर आयु-सीमा अठारह वर्ष से घटा कर सोलह वर्ष करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि सजा सख्त करने के बजाय किशोर अपराधियों के सुधार पर जोर होना चाहिए। लेकिन लंबित विधेयक में किशोर उम्र-सीमा घटाने का प्रावधान केवल संगीन अपराधों की बाबत किया गया है। हमारा संविधान जब बच्चों को चौदह साल का होने पर काम करने की इजाजत देता है, तो संगीन आपराधिक मामलों में किशोर आयु-सीमा सोलह वर्ष करना तर्कसंगत ही कहा जाएगा। परिस्थितियों का तकाजा तो है ही।

राज्यसभा में किशोर न्याय विधेयक 2015 को पारित कर दिया गया। लोकसभा में मई 2015 में यह विधेयक पहले ही पारित हो गया था। राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए इसे भेजा गया है, तत्पश्चात इसकी अधिसूचना जारी हो जाएगी।
दिसंबर 2012 में दिल्ली में ‘निर्भया’ हत्याकांड के बाद नाबालिगों को कड़ी सजा की मांग एक तबके ने उठाई और इस पूरे मामले में उठे जनांदोलन के बाद गठित जस्टिस जेएस वर्मा आयोग ने भारतीय दंड संहिता में महिलाओं से अभद्र व्यवहार तथा दुष्कर्म की व्यापक परिभाषा तथा सजा में बदलाव के कड़े प्रावधानों की सिफारिश की। उनके पास सुझाव आए कि नाबालिग की उम्र 18 वर्ष से 16 वर्ष की जाए, लेकिन आयोग ने ऐसे सभी सुझावों को नकार दिया और साथ ही कहा कि ऐसा करना न्यायोचित नहीं है।

देश में बाल अपराध के संदर्भ में सबसे पहला कानून 1850 में आया, जब प्रशिक्षु कानून में लिखा गया कि 10-18 वर्ष के दोषियों को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाएगा। 1897 में इस संदर्भ में रिफॉर्मेट्री स्कूल अधिनियम आया। ब्रिटिश सरकार के काल में 1920 में 10 से 18 साल के बच्चों को वयस्कों की जेल में रखा जाता था। 1960 में बाल अधिकार अधिनियम आया तथा जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 1986 में आया। इसमें किशोर की उम्र 16 वर्ष तय की गई थी।

1992 में अंतरराष्ट्रीय बाल समझौते को भारत सरकार ने मंजूर किया था। इस समझौते के तहत अपना दायित्व पूरा करते हुए जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 आया। इस कानून के तहत किशोर की उम्र 18 वर्ष की थी। 2015 में राजग की ही सरकार ने इसे फिर बदला। जुवेनाइल जस्टिस विधेयक के अनुसार गंभीर अपराध के मामलों में कोई भी बालक, जिसकी उम्र 16 वर्ष से अधिक हो, उसके संबंध में एक बोर्ड फैसला लेगा। यही बोर्ड इस प्रकार के अपराध करने के संदर्भ में बालक की शारीरिक और मानसिक क्षमताओं की प्रारंभिक जांच करेगा तथा ऐसे अपराध के परिणाम समझने की क्षमताओं तथा वो परिस्थितियां, जिसमें अपराध हुआ है कि पड़ताल करेगा।

मनोचिकित्सकों की राय लेकर आदेश दे सकता है कि ऐसे बच्चे का मुकदमा वयस्क के रूप में चलाया जाए। बोर्ड ही किशोर का मामला सामान्य अदालत में चलाने के निर्देश दे सकता है। 21 की उम्र तक यदि वह दोषी सिद्ध होता है, तो उसे वयस्कों की जेल में भेजा जा सकता है।
आंकड़ों के अनुसार बच्चों की अपराधों में संलिप्तता केवल 1.2 फीसद है। 2004 में लगभग 42 करोड़ बालकों में से 19229 बच्चे गिरफ्तार किए गए तथा 2014 में 44 करोड़ बालकों में से 33562 गिरफ्तार हुए।

गंभीर अपराध से अभिप्राय उन अपराधों से है, जिनकी सजा 7 वर्ष की कैद से अधिक है। इसमें हत्या, अपहरण, डकैती तथा दुष्कर्म शामिल है। गंभीर अपराध पर कड़ी सजा के सिद्धांत से प्रेरित मौजूदा विधेयक के प्रावधान इस तथ्य को नकारते हैं कि अपराध पर रोक सजा की सुनिश्चितता से ही लगाई जा सकती है, न कि सजा की कठोरता से।

संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौता पत्र के तहत 18 वर्ष से कम की उम्र के बालक को किशोर माना जाएगा। 1992 में देश में इसका अनुमोदन किया गया। दुनिया के दूसरे देशों और अमेरिका तथा ब्रिटेन में किशोर की उम्र 18 वर्ष है। दोनों ही देशों के कानून के अनुसार यदि किशोर न्याय बोर्ड यह सही समझता है तभी गंभीर अपराध के मामलों में वयस्क के तौर पर ही मुकदमा चलेगा। ब्रिटेन में यदि नाबालिग के साथ वयस्क भी आरोपी है तो मुकदमा वयस्क की अदालत में चलाया जाएगा। इन दोनों देशों में नाबालिग की अधिकतम सजा उम्रकैद है।

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