Dev Deepawali Kartik purnima 2019

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कार्तिक पूर्णिमा के दिन क्यों मनाते हैं देव दीपावली
कार्तिक पूर्णिमा (Kartik Purnima) सभी पूर्णिमाओं में श्रेष्ठ मानी जाती है। मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव ने देवलोक पर हाहाकार मचाने वाले त्रिपुरासुर नाम के राक्षस का संहार किया था। कहा जाता है कि इस खुशी में देवताओं ने दिवाली मनाई और काशी के घाट पर गंगा में दीपदान किया। तभी से कार्तिक की पूर्णिमा के दिन दीपदान किया जाता है। यह भी मान्यता है कि लक्ष्मी नारायण की पूजा आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान विष्णु चार मास के लिए योग निद्रा में लीन होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। भगवान विष्णु के योग निद्रा से जागरण से प्रसन्न होकर समस्त देवी-देवताओं ने पूर्णिमा को लक्ष्मी-नारायण की महाआरती कर दीप प्रज्वलित किए। यह दिन देवताओं की दीपावली है। इस दिन दीप दान और व्रत-पूजा आदि कर देवों की दीपावली में शामिल होते हैं। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इसी दिन भगवान विष्णु ने मतस्यावतार लिया था।

हर साल लोग कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव दीपावली (Dev Deepawali) मनाते हैं। इस दिन गंगा समेत अन्य् पवित्र नदियों में स्नान करना पुण्यकारी माना जाता है। इस दिन लोग सुबह सवेरे स्नान कर भगवान लक्ष्मी नारायण और भगवान शिव की अराधना करते हैं। देव दीपावली के दिन भगवान शिव और गंगा माता की पूजा की जाती है। संध्या के समय में गंगा आरती होती है। देव दीपावली के संदर्भ में दो पौराणिक कथाएं मिलती हैं। इसमें एक कथा महर्षि विश्वामित्र तथा दूसरी भगवान शिव से जुड़ी है। आइए पढ़ते हैं उन कथाओं को।

देव दीपावली पौराणिक कथाएं / कार्तिक पूर्णिमा पौराणिक कथाएं
1. देव दीपावली की पहली कथा
यह कथा महर्षि विश्वामित्र से जुड़ी है। पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार विश्वामित्र जी ने देवताओं की सत्ता को चुनौती दे दी। उन्होंने अपने तप के बल से त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया। यह देखकर देवता अचंभित रह गए। विश्वामित्र जी ने ऐसा करके उनको एक प्रकार से चुनौती दे दी थी। इस पर देवता त्रिशंकु को वापस पृथ्वी पर भेजने लगे, जिसे विश्वामित्र ने अपना अपमान समझा। उनको यह हार स्वीकार नहीं थी।
तब उन्होंने अपने तपोबल से उसे हवा में ही रोक दिया और नई स्वर्ग तथा सृष्टि की रचना प्रारंभ कर दी। इससे देवता भयभीत हो गए। उन्होंने अपनी गलती की क्षमायाचना तथा विश्वामित्र को मनाने के लिए उनकी स्तुति प्रारंभ कर दी। अंतत: देवता सफल हुए और विश्वामित्र उनकी प्रार्थना से प्रसन्न हो गए। उन्होंने दूसरे स्वर्ग और सृष्टि की रचना बंद कर दी। इससे सभी देवता प्रसन्न हुए और उस दिन उन्होंने दिवाली मनाई, जिसे देव दीपावली कहा गया।

2. देव दीपावली की दूसरी कथा / कार्तिक पूर्णिमा का कथा (Kartik Purnima Katha)
पौराणिक कथा के अनुसार तारकासुर नाम का एक राक्षस था। उसके तीन पुत्र थे – तारकक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली। भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिक ने तारकासुर का वध किया। अपने पिता की हत्या की खबर सुन तीनों पुत्र बहुत दुखी हुए। तीनों ने मिलकर ब्रह्माजी से वरदान मांगने के लिए घोर तपस्या की। ब्रह्मजी तीनों की तपस्या से प्रसन्न हुए और बोले कि मांगों क्या वरदान मांगना चाहते हो। तीनों ने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने को कहा।
तीनों ने मिलकर फिर सोचा और इस बार ब्रह्माजी से तीन अलग नगरों का निर्माण करवाने के लिए कहा, जिसमें सभी बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में घूमा जा सके। एक हज़ार साल बाद जब हम मिलें और हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाएं, और जो देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो, वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया।

तीनों वरदान पाकर बहुत खुश हुए। ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। तारकक्ष के लिए सोने का, कमला के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे का नगर बनाया गया। तीनों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। इंद्र देवता इन तीनों राक्षसों से भयभीत हुए और भगवान शंकर की शरण में गए। इंद्र की बात सुन भगवान शिव ने इन दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया।
इस दिव्य रथ की हर एक चीज़ देवताओं से बनीं। चंद्रमा और सूर्य से पहिए बने। इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के चाल घोड़े बनें। हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बनें। भगवान शिव खुद बाण बनें और बाण की नोक बने अग्निदेव। इस दिव्य रथ पर सवार हुए खुद भगवान शिव।
भगवानों से बनें इस रथ और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जैसे ही ये तीनों (त्रिपुरासुर) रथ एक सीध में आए, भगवान शिव ने बाण छोड़ तीनों का नाश कर दिया। इसी वध के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा जाने लगा। यह वध कार्तिक मास की पूर्णिमा को हुआ, इसीलिए इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से भी जाना जाने लगा।

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