ये बच्चे हिंदी कहानी, Ye Bachche Hindi Kahani, इस्मत चुग़ताई की कहानी ये बच्चे, Ismat Chughtai Ki Kahani Ye Bachche, ये बच्चे हिंदी स्टोरी, ये बच्चे इस्मत चुग़ताई, Ye Bachche Story, Ye Bachche Ismat Chughtai Hindi Story, Ye Bachche By Ismat Chughtai, ये बच्चे कहानी, Ye Bachche Kahani
ये बच्चे हिंदी कहानी, इस्मत चुग़ताई की कहानी ये बच्चे
Ye Bache by Ismat Chughtai- एक ज़माना था जब मेरा ख़्याल था कि दुनिया में बच्चे के सबसे बड़े दुश्मन उस के माँ बाप और भाई बंद होते हैं। वो उस के दिल की बात समझने की कोशिश नहीं करते। बे-जा ज़बर-दस्तियों से उसकी उभरती हुई ताक़तों को कुचल देते हैं। यही वजह है कि जब बड़े हो जाते हैं तो बजाय मुकम्मल इन्सान बनने के चोर, डाकू और उचक्के बन जाते हैं। जभी तो हमारा देश तरक़्क़ी नहीं कर पाता।
लेकिन ख़ुद माँ बनने के बाद मेरे ख़्यालात ने एक दम से पल्टा खाया और यक़ीन हो गया कि आजकल के बच्चे ही कुछ ज़रूरत से ज़्यादा हटीले, बेचैन और मुँह-ज़ोर पैदा हो रहे हैं। उनकी तामीर में ही कोई ख़राबी पैदा हो जाती है जो उन्हें जंगली बना देती है। अगर सलीक़े से बच्चे पैदा किए जाएं तो हमारे देश के दिलद्दर दूर हो जाएंगे।
इसी सिलसिले में मैंने साईकोलॉजी से मदद लेनी चाही और जी भर कर तहलील नफ़सी कर डाली। मगर बेकार क्योंकि मुझे जल्द ही मा’लूम हो गया कि ये जिस पगडंडी पर मैं बहक कर चली आई हूँ, ’ये कुछ भी नहीं’ की दुनिया के बीचों बीच ख़त्म हो जाती है। मेरे दोनों ख़्याल ग़लत थे, ना माओं का क़ुसूर है ना बेचारे बच्चों का। क़ुसूर सारा है इस तरीक़ा-ए-ज़िंदगी का जो एक मख़सूस निज़ाम ने हमारी जानों पर लागू कर रखा है जिसने माँ और बच्चे का रिश्ता भी तोड़-मरोड़ कर एक कारोबारी शय बना दिया है। अव्वल तो बच्चे के ख़्याल ही से एक माँ लरज़ उठती है। जिस्मानी कोफ़्त के डर से नहीं, इस डर से कि घर में एक और खाने वाला मुँह बढ़ा। एक और जिस्म ढाँकने की फ़िक्र बढ़ी। फिर अगर लड़का है तो ख़ैर खुदा न करे लड़की है तो एक और तावान भुगतने को तैयार हो जाइए। उसकी शादी ब्याह की फ़िक्र।
लोग कहते हैं कि अदीबों को अदब से सरोकार रखना चाहिए और ख़्वाह-मख़्वाह सरकार से ना उलझना चाहिए, तो भई यहां किसे सरकार से दस्त-ओ-गरीबां होने का शौक़ है। अब इसमें हमारा क्या क़ुसूर कि ज़िंदगी के हर मोड़ पर सरकार से मुड़भेड़ हो जाती है। कित्ता ही दिल को समझाएँ, अब यक़ीन नहीं आता कि हमारी मुसीबतों के बढ़ाने में देवी-देवता या तक़दीर का हाथ है। हम अब पहचान चुके हैं कि किस का हाथ है जिसने अपने भयानक शिकंजे में हमारी ज़िंदगी की ज़रूरीयात को दबोच रखा है। वो मुनाफा-खोरों… चोर-बाज़ारियों का हाथ जो हमारी सरकार की लगामें थामे है और जिसके इशारों पर हमारे ऊपर फ़ील-ए-मस्त हमले करता है और हम ये सब कुछ इसलिए समझ गए हैं कि हमारे सामने रूस की शानदार मिसाल है। जहां का निज़ाम मज़दूरों और किसानों का है जो उन्होंने बरसों की मेहनतों और क़ुर्बानियों के बाद ख़ुद अपने लिए तामीर किया है। रूस में बच्चा जंजाल नहीं, मुल्क का एक ताक़तवर बाज़ू है, मुल्क की दौलत है, जहां पैदाइश से पहले ही माँ की तख़लीक़ी अज़मतों को मर्हबा कह कर आने वाले मेहमान की आओ-भगत शुरू हो जाती है। उससे बार-बरदारी के काम नहीं लिए जाते बल्कि उस की सेहत को और बढ़ाने के लिए हल्के-हल्के दिल-चस्प काम लिए जाते हैं। उसके लिए बाक़ायदा ख़ास ख़ुराक का राशन मुक़र्रर हो जाता है।जब ज़माना क़रीब हो जाता है तो उसे अच्छे ज़च्चा-ख़ाना में भेज दिया जाता है जहां वो बड़े सुकून-ओ-आराम से जन्म देती है। ग़ुलाम मुल्कों में ज़च्चाएं फ़ौरन ही मेहनत मज़दूरी पर मजबूर हो जाती हैं। जिसकी वजह से अपनी रही सही ताक़त खो बैठती हैं।
मगर रूस में जब तक ज़च्चा को डाक्टर इस क़ाबिल नहीं समझते नर्सिंग होम में ही रहती हैं। जब मुकम्मल तौर पर चाक़-ओ-चौबंद हो जाती है तब वो काम पर लौटती है। यहां वो बच्चे को कमर पर लाद कर नहीं लाती जैसे हमारी मेहनत-कश औरतों को करना पड़ता है कि दूध पीते बच्चे को सड़क के किनारे रेत… धूल में डाल कर ख़ुद-काम पर जुट जाती हैं। रूस के सुनहरे देश में बच्चों के घर में जहाँ मुहब्बत करने वाली नर्सें और मश्शाक़ डाक्टर उनकी देख-भाल करते हैं। दिन-भर बच्चे वहां बड़े आराम से रहते हैं, शाम को माएं उन्हें अपने घर ले आती हैं। हमारे यहां दूसरे से तीसरे बच्चे के आने की ख़बर से ही माँ बाप के होश उड़ जाते हैं। पहले तो महल्ले टोले ही की फ़न-कार’रवाइयां उस को अल्टीमेटम देने की कोशिश करती हैं जिसकी वजह से मुल्क मैं हज़ारों औरतें मौत के घाट उतर जाती हैं, या सदा की रोगी बन जाती हैं। मगर रूस में ज़र-ख़ेज़ होने को जुर्म या गुनाह नहीं समझा जाता,बल्कि जैसे अच्छे फल फूल पैदा करने पर काश्त-कार की शोहरत होती है, उसी तरह ज़्यादा बच्चों वाली माँ को तमग़ा या इनाम मिलते हैं। वहां ये सारे बच्चे माँ की छाती पर मूंग दलने को पिले नहीं रहते न महल्ले टोले का नातिक़ा बंद करने को उचक्कों के गिरोह मज़बूत करते हैं बल्कि उनके लिए भी घर होते हैं। जहां उनकी ता’लीम-ओ-तर्बीयत का पूरा ख़्याल रखा जाता है। यूं तो अमरीका और इंग्लिस्तान में भी ऐसे बोर्डिंग मौजूद हैं जहां बच्चों को रखा जाता है। मगर हम देखते हैं कि इन मुल्कों के बच्चे छोटी सी उम्र में ही निहायत गंदी आदतों के शिकार हो जाते हैं। अमरीका के मुफ़क्किर बड़ी फ़िक्र में हैं कि ये बच्चे इतने गुमराह क्यों पैदा हो रहे हैं और वो बैठ बैठ कर नफ़सियाती तवज्जीहें ढूंढ रहे हैं हालाँकि बात सीधी-सादी है। अमरीका के बच्चे वहां के सामराजी निज़ाम की पैदावार हैं। जो वालदैन तिजारती मंडियों और सियासी स्टेज पर कर रहे हैं, बच्चे वही स्कूलों और कॉलिजों में कर रहे हैं, वही लूट मार, वही मुँह ज़ोरी और ग़ुंडा गर्दी… आज वो ग़ुंडों के सरदार हैं। कल उन्हें फर्मों और मिलों का मालिक बन कर उसी खेल को हक़ीक़त बनाना है, वही रंग-ए-नस्ल की तफ़रीक़, एटम-बम की धमकियां इन खेलों में रची नज़र आती हैं। इन मुल्कों को तो फ़ख़र करना चाहिए कि उनकी आइन्दा नसलें इतनी होनहार पैदा हो रही हैं तो फिर ये हैरत और ता’स्सुफ़ कैसा? इस फ़िज़ा में पलने वाले बच्चों पर कोई ता’लीम कोई तर्बीयत असर ना डाल सकेगी। सबसे बड़ी तर्बीयत अमल है और रूस की गर्वनमैंट का अमल वहां के अवाम में झलकता है। हर रूसी बच्चा इस अमल का अक्स लेकर ज़िंदगी में क़दम रखता है। इसके इलावा बच्चों के लिए वहां अलैहदा सिनेमा घर, थियटर और लाइब्रेरियां हैं। जहां उन्हें खेल ही खेल में मेहनत-कश और मुफ़ीद इन्सान बनने की ता’लीम दी जाती है। तबीयत के रुझान को देखकर उस का आइंदा फ़र्ज़-ए-ज़िंदगी मुक़र्रर किया जाता है। वहां उन्हें बताया जाता है कि एक मेहनत-कश, एक फ़नकार वो ख़्वाह किसी मुल्क और किसी रंग और नसल का हो सारी दुनिया की दौलत है। और उसकी अपनी दौलत है और अपने मुल्क के लिए दौलत ख़रीद कर नहीं ख़ुद अपने क़ुव्वत-ए-बाज़ू से पैदा की जाती है। बच्चों को मिलों में भारी काम नहीं दिए जाते ताकि उनकी बढ़वार ना मारी जाये।
वो माएं जिनके बच्चे दिन रात उन घरों में रहते हैं, अपने काम से लौट कर वहां जाती हैं और वहां अपने ही नहीं हज़ारों और बच्चों को कलेजे से लगाकर ममता ठंडी कर सकती हैं। रूस के दुश्मन कहते हैं कि इज्तेमाई ज़िंदगी ने घरेलू ज़िंदगी को फ़ना कर दिया है। इन अहमक़ों को कौन समझाए कि रूस में एक बाँझ को भी बच्चे गोद लेने की ज़रूरत नहीं, मुल्क के सारे बच्चे ही उस के बच्चे हैं, सारा मुल़्क ही एक ख़ानदान है जहां ना बच्चों की कमी हो सकती है ना माँ बाप की।
मगर हमारे मुल्क में हमारी सरकार की राय है कि शकर के दाने गिन गिन कर माएं बच्चों को जन्म दें, ना ज़रूरत से ज़्यादा बच्चे पैदा होंगे ना शकर की कमी पड़ेगी। क्योंकि अब ये डर हो गया है कि कम्यूनिस्ट माँ के पेट ही में बच्चे के कान में सरकार के ख़िलाफ़ भड़काने वाली बातें फूंक देते हैं। जभी तो आजकल के बच्चे जन्म से शकर-ओ-दूध के लिए मुँह फाड़े पैदा होते हैं।
इसी लिए हमारी मेहरबान सरकार ने “अनाज उगाओ” की स्कीम से ज़्यादा ज़ोर-ओ-शोर से “बच्चा ना उगाओ” की स्कीम चालू करने की ठान ली है। ऐसे मुल्क में अगर कोई ढीट बच्चा आन ही टपकता है तो वो एक मुसीबत समझा जाता है। लोग कहते हैं बच्चे आँख का नूर दिल का सुरूर होते हैं। होते होंगे, मगर हमारी आँखें तो आँखों के इस नूर को नाकाफ़ी और ग़लत ख़ुराक की वजह से बुझते दिए की तरह काँपता देखती हैं जिस बच्चे को देखते दुनिया-भर के रोग जान को चिमटे नज़र आते हैं। ख़ून की कमी की शिकायत तो आम होती है जिसकी वजह से आए दिन बीमारीयों का शिकार होते रहते हैं। अस्पतालों में नन्हे नन्हे मुरझाए हुए फूल हज़ारों की तादाद में क्यों खड़े रहते हैं? सड़कों पर लाखों मासूम हाथ हमारी तरफ़ भीक के लिए फैले नज़र आते हैं, और हमारा ज़मीर इस तमांचे से तिलमिला कर रह जाता है। जिस उम्र में रूस के बच्चे खेल कूद कर सेहत बनाते हैं हमारे बच्चे रोज़ी की फ़िक्र में परेशान फ़ुट-पाथ पर पाटिया लिए बैठने में गुज़ार देते हैं, रूस में चौदह पंद्रह बरस की लड़कीयां यूनीवर्सिटी की डिग्री की तैयारी करती हैं। हमारे मुल्क की इस उम्र की ज़्यादा-तर लड़कीयां फ़िल्मी गीत गुनगुना कर साजन को पुकारने में गुज़ार देती हैं।
रूस में हर बच्चे को मुफ़्त ता’लीम दी जाती है बल्कि जब्रिया ता’लीम दी जाती है, और हमारे मुल्क के तालिब-इल्म उल्टी जब्रिया ता’लीम हासिल करना चाहते हैं तो उन पर लाठी चार्ज होते हैं, गोलीयां चलती हैं और उन्हें सज़ाएं दी जाती हैं,स्कूल में दाख़िल ही नहीं किया जाता। अब तो नाम निहाद ता’लीम के दरवाज़े भी बंद होते जा रहे हैं। हमारी गवर्नमेंट इल्म को हिमाक़त समझ कर फ़ीस बढ़ाती जा रही है। ज़ाहिर है जहां पेट की आग बुझाने ही से फ़ुर्सत नहीं मिलती वहां ता’लीम के लिए ख़र्चा कहाँ से आए? दूसरे हमारे नेताओं का ख़्याल है कि ता’लीम हासिल करने के बाद लोग मेहनत से जी चुराने लगते हैं मगर हम जानते हैं कि हमारे नेता ता’लीम से क्यों डरते हैं क्योंकि वो जानते हैं कि बा-शऊर इन्सान का ख़ून आसानी से नहीं चूसा जा सकता। पढ़ लिख कर वो अगर अमरीकी ब्लॉक की ता’लीम के दायरे तक महदूद रहे तब तो ख़ैरियत है मगर मुश्किल ये है कि वो रूस की ता’लीम पर भी नज़र डालने लगते हैं जो उसे मशीन में पिसने, हलों में जोते जाने और कारख़ानों में नाकाफ़ी मुआवज़े पर जुटे रहने के ख़िलाफ़ बग़ावत पर उभारती है। हिन्दोस्तान की माएँ जब रूसी बच्चों की तरफ़ देखती हैं तो वो अपने लालों के लिए भी वही सहूलतें मांगने लगती हैं जो उन्हें मयस्सर नहीं।
जभी तो हुकूमत के दुश्मनों के कैंप में जा शामिल हो जाती हैं। मगर हमारी ममता महदूद नहीं। हमें रूस के बच्चों से प्यार है, वहां की ख़ुश-नसीब माओं से प्यार है, वो ख़्वाह किसी मुल़्क रंग और नस्ल के बच्चे हों। दुनिया के बच्चे, दुनिया की माओं के बच्चे हैं। वो हमारे बच्चे हैं। इन पर ये मंडलाते हुए गिद्ध छापा ना मार पाएँगे। हम दुनिया के बच्चों के लिए, इन्सानियत के मुस्तक़बिल के लिए हर मकरूह ताक़त से मुक़ाबला करेंगे। हमने जो कुछ अपनी ज़िंदगी में खोया अपने बच्चों की ज़िंदगी में पाने की कोशिश करेंगे। हम उनके लिए उनका मुस्तक़बिल पुर-अम्न और रौशन बनाने के लिए अपनी जान की बाज़ी भी लगा देंगे।
मुबारक है वो मुल्क जहां बच्चा सच्चे मायनों में आँखों का नूर और दिल का सुरूर है। मुबारक है वो मुल्क जो इन्सानियत का मुहाफ़िज़ है। जहां औरत माँ बन कर पछताती नहीं बल्कि निस्वानियत को चार चांद लगाती है और फ़ख़्र के साथ अपनी कोख की दौलत को फलता फूलता देखती है।
आज रूस की बत्तीसवीं साल-गिरह के मौक़े पर हम अहद करते हैं कि रूस के अज़ाइम को मश’अल-ए-राह बना कर हम अपने बच्चों का मुस्तक़बिल भी उतना ही रोशन उतना ही शानदार बनाएंगे जैसा रूसी बच्चों का है। हमारी ये जंग हमारे बच्चों की ख़ातिर है उनकी हिफ़ाज़त के लिए हम तमाम फ़ाशिस्त ताक़तों से लड़ेंगे।
ये बच्चे हिंदी कहानी, Ye Bachche Hindi Kahani, इस्मत चुग़ताई की कहानी ये बच्चे, Ismat Chughtai Ki Kahani Ye Bachche, ये बच्चे हिंदी स्टोरी, ये बच्चे इस्मत चुग़ताई, Ye Bachche Story, Ye Bachche Ismat Chughtai Hindi Story, Ye Bachche By Ismat Chughtai, ये बच्चे कहानी, Ye Bachche Kahani
ये भी पढ़े –