Overcoat by Ghulam Abbas

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ग़ुलाम अब्बास की कहानी ओवरकोट, Ghulam Abbas Ki Kahani Over Coat
Overcoat by Ghulam Abbas- जनवरी की एक शाम को एक ख़ुशपोश नौजवान डेविस रोड से गुज़र कर माल रोड पर पहुँचा और चेरिंग क्रास का रुख़ कर के ख़रामाँ ख़रामाँ पटरी पर चलने लगा। ये नौजवान अपनी तराश ख़राश से ख़ासा फ़ैशनेबल मालूम होता था। लंबी लंबी क़लमें, चमकते हुए बाल, बारीक बारीक मूंछें गोया सुरमे की सलाई से बनाई गई हूँ। बादामी रंग का गर्म ओवर कोट पहने हुए जिसके काज में शरबती रंग के गुलाब का एकाध खिला फूल अटका हुआ, सर पर सब्ज़ फ़्लैट हैट एक ख़ास अंदाज़ से टेढ़ी रखी हुई, सफ़ेद सिल्क का गुलूबंद गले के गिर्द लिपटा हुआ, एक हाथ कोट की जेब में, दूसरे में बेद की एक छोटी छड़ी पकड़े हुए जिसे कभी कभी मज़े में आ के घुमाने लगता था।

ये हफ़्ते की शाम थी। भरपूर जाड़े का ज़माना। सर्द और तुंद हवा किसी तेज़ धार की तरह जिस्म पर आ के लगती थी मगर उस नौजवान पर उसका कुछ असर मालूम नहीं होता था और लोग ख़ुद को गर्म करने के लिए तेज़ क़दम उठा रहे थे मगर उसे उसकी ज़रूरत न थी जैसे इस कड़कड़ाते जाड़े में उसे टहलने में बड़ा मज़ा आ रहा हो।

उसकी चाल ढाल से ऐसा बांकपन टपकता था कि तांगे वाले दूर ही से देख कर सरपट घोड़ा दौड़ाते हुए उसकी तरफ़ लपकते मगर वो छड़ी के इशारे से नहीं कर देता। एक ख़ाली टैक्सी भी उसे देख कर रुकी मगर उसने “नो थैंक यू” कह कर उसे भी टाल दिया।

जैसे जैसे वो मॉल के ज़्यादा बा-रौनक हिस्से की तरफ़ पहुँचता जाता था, उसकी चोंचाली बढ़ती जाती थी। वो मुँह से सीटी बजा के रक़्स की एक अंग्रेज़ी धुन निकालने लगा। उसके साथ ही उसके पाँव भी थिरकते हुए उठने लगे। एक दफ़ा जब आस पास कोई नहीं था तो यकबारगी कुछ ऐसा जोश आया कि उसने दौड़ कर झूट मूट बल देने की कोशिश की, गोया क्रिकेट का खेल हो रहा हो। रास्ते में वो सड़क आई जो लरैंस गार्डन की तरफ़ जाती थी मगर उस वक़्त शाम के धुंदलके और सख़्त कोहरे में उस बाग़ पर कुछ ऐसी उदासी बरस रही थी कि उसने उधर का रुख़ न किया और सीधा चेरिंग क्रास की तरफ़ चलता रहा।

मलिका के बुत के क़रीब पहुँच कर उसकी हरकात-व-सकनात में किसी क़दर मतानत आ गई। उसने अपना रूमाल निकाला जिसे जेब में रखने की बजाय उसने कोट की बाएं आस्तीन में उड़ेस रखा था और हल्के हल्के चेहरे पर फेरा, ताकि कुछ गर्द जम गई हो तो उतर जाए। पास घास के एक टुकड़े पर कुछ अंग्रेज़ बच्चे बड़ी सी गेंद से खेल रहे थे। वो रुक गया और बड़ी दिलचस्पी से उनका खेल देखने लगा। बच्चे कुछ देर तक तो उसकी परवाह किए बगै़र खेल में मसरूफ़ रहे मगर जब वो बराबर तके ही चला गया तो वो रफ़्ता रफ़्ता शर्माने से लगे और फिर अचानक गेंद सँभाल कर हंसते हुए एक दूसरे के पीछे भागते हुए घास के उस टुकड़े ही से चले गए।

नौजवान की नज़र सीमेंट की एक ख़ाली बेंच पर पड़ी और वो उस पर आ के बैठ गया। उस वक़्त शाम के अंधेरे के साथ साथ सर्दी और भी बढ़ती जा रही थी। उसकी ये शिद्दत ना-ख़ुशगवार न थी बल्कि लज़्ज़त परस्ती की तर्ग़ीब देती थी। शहर के ऐशपसंद तब्क़े का तो कहना ही क्या वो तो इस सर्दी में ज़्यादा ही खुल खेलता है। तन्हाई में बसर करने वाले भी इस सर्दी से वरग़लाए जाते हैं और वो अपने अपने कोनों खद्दरों से निकल कर महफ़िलों और मजमाओं में जाने की सोचने लगते हैं ताकि जिस्मों का क़र्ब हासिल हो। हुसूल-ए-लज़्ज़त की यही जुस्तुजू लोगों को माल पर खींच लाई थी और वो हस्ब-ए-तौफ़ीक़ रेस्तोरानों, काफ़ी हाउसों, रक़्स गाहों, सिनेमाओं और तफ़रीह के दूसरे मक़ामों पर महज़ूज़ हो रहे थे।

माल रोड पर मोटरों, तांगों और बाई-साईकिलों का तांता बंधा हुआ तो था ही पटरी पर चलने वालों की भी कसरत थी। अलावा अज़ीं सड़क की दो रवैय्या दुकानों में ख़रीद-व-फ़रोख़्त का बाज़ार भी गर्म था। जिन कम नसीबों को न तफ़रीह-ए-तबा की इस्तिताअ’त थी न ख़रीद-व-फ़रोख़्त की, वो दूर ही से खड़े-खड़े इन तफ़रीह गाहों और दुकानों की रंगा रंग रौशनियों से जी बहला रहे थे।

नौजवान सीमेंट की बेंच पर बैठा अपने सामने से गुज़रते हुए ज़न-व-मर्द को ग़ौर से देख रहा था। उसकी नज़र उनके चेहरों से कहीं ज़्यादा उनके लिबास पर पड़ती थी। उनमें हर वज़ा और हर क़ुमाश के लोग थे। बड़े बड़े ताजिर, सरकारी अफ़्सर, लीडर, फ़नकार, कॉलेजों के तलबा और तालिबात, नर्सें, अख़्बारों के नुमाइंदे, दफ़्तरों के बाबू। ज़्यादा तर लोग ओवर कोट पहने हुए थे। हर क़िस्म के ओवर कोट, क़रा क़ुली के बेशक़ीमत ओवर कोट से लेकर ख़ाली पट्टी के पुराने फ़ौजी ओवर कोट तक जिसे नीलाम में ख़रीदा गया था।

नौजवान का अपना ओवर कोट था तो ख़ासा पुराना मगर उसका कपड़ा ख़ूब बढ़िया था फिर वो सिला हुआ भी किसी माहिर दर्ज़ी का था। उसको देखने से मालूम होता था कि उसकी बहुत देख भाल की जाती है। कालर ख़ूब जमा हुआ था। बाहों की क्रीज़ बड़ी नुमायाँ, सिलवट कहीं नाम को नहीं। बटन सींग के बड़े बड़े चमकते हुए। नौजवान उसमें बहुत मगन मालूम होता था।

एक लड़का पान बीड़ी सिगरेट का सन्दूकचा गले में डाले सामने से गुज़रा। नौजवान ने आवाज़ दी,
“पान वाला!”
“जनाब!”
“दस का चेंज है?”
“है तो नहीं। ला दूँगा। क्या लेंगे आप?”
“नोट ले के भाग गया तो?”
“अजी वाह। कोई चोर उचक्का हूँ जो भाग जाऊँगा। एतिबार न हो तो मेरे साथ चलिए। लेंगे क्या आप?”
“नहीं नहीं, हम ख़ुद चेंज लाएगा। लो ये इकन्नी निकल आई। एक सिगरेट दे दो और चले जाओ।”
लड़के के जाने के बाद मज़े मज़े से सिगरेट के कश लगाने लगा। वो वैसे ही बहुत ख़ुश नज़र आता था। सिगरेट के धुएँ ने उस पर सुरूर की कैफ़ियत तारी कर दी।
एक छोटी सी सफ़ेद रंग बिल्ली सर्दी में ठिठुरी हुई बेंच के नीचे उसके क़दमों में आ कर मियाऊँ-मियाऊँ करने लगी। उसने पुचकारा तो उछल कर बेंच पर आ चढ़ी। उसने प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरा और कहा,”पूअर लिटिल सोल।”

इसके बाद वो बेंच से उठ खड़ा हुआ और सड़क को पार कर के उस तरफ़ चला जिधर सिनेमा की रंग बिरंगी रोशनियाँ झिलमिला रही थीं। तमाशा शुरू हो चुका था। बरामदे में भीड़ न थी। सिर्फ़ चंद लोग थे जो आने वाली फिल्मों की तस्वीरों का जाएज़ा ले रहे थे। ये तस्वीरें छोटे बड़े कई बोर्डों पर चस्पाँ थीं। उनमें कहानी के चीदा चीदा मनाज़िर दिखाए गए थे।

तीन नौजवान ऐंग्लो इंडियन लड़कियाँ उन तस्वीरों को ज़ौक़-व-शौक़ से देख रही थीं। एक ख़ास शान-ए-इस्ति़ग़ना के साथ मगर सिन्फ़-ए-नाज़ुक का पूरा पूरा एहतिराम मल्हूज़ रखते हुए वो भी उनके साथ साथ मगर मुनासिब फ़ासले से उन तस्वीरों को देखता रहा। लड़कियाँ आपस में हंसी मज़ाक़ की बातें भी करती जाती थीं और फ़िल्म पर राय-ज़नी भी। इतने में एक लड़की ने, जो अपनी साथ वालियों से ज़्यादा हसीन भी थी और शोख़ भी, दूसरी लड़की के कान में कुछ कहा जिसे सुन कर उसने एक क़हक़हा लगाया और फिर वो तीनों हंसती हुई बाहर निकल गईं। नौजवान ने उसका कुछ असर क़ुबूल न किया और थोड़ी देर के बाद वो ख़ुद भी सिनेमा की इमारत से बाहर निकल आया।

अब सात बज चुके थे और वो मॉल की पटरी पर फिर पहले की तरह मटर गश्त करता हुआ चला जा रहा था। एक रेस्तोराँ में ऑर्केस्ट्रा बज रहा था। अंदर से कहीं ज़्यादा बाहर लोगों का हुजूम था। उन में ज़्यादा तर मोटरों के ड्राईवर, कोचवान, फल बेचने वाले, जो अपना माल बेच के ख़ाली टोकरे लिए खड़े थे। कुछ राहगीर जो चलते चलते ठहर गए थे। कुछ मज़दूरी पेशा लोग थे और कुछ गदागर। ये अंदर वालों से कहीं ज़्यादा गाने के रसिया मालूम होते थे क्योंकि वो गुल गपाड़ा नहीं मचा रहे थे बल्कि ख़ामोशी से नग़्मा सुन रहे थे। हालाँकि धुन और साज़ अजनबी थे। नौजवान पल भर के लिए रुका और फिर आगे बढ़ गया।

थोड़ी दूर चल के उसे अंग्रेज़ी मौसीक़ी की एक बड़ी सी दुकान नज़र आई और वो बिलातकल्लुफ़ अन्दर चला गया। हर तरफ़ शीशे की अलमारियों में तरह तरह के अंग्रेज़ी साज़ रखे हुए थे। एक लंबी मेज़ पर मग़्रिबी मौसीक़ी की दो वर्की किताबें चुनी थीं। ये नए चलनतर गाने थे। सर-ए-वर्क़ ख़ूबसूरत रंगदार मगर धुनें घटिया। एक छिछलती हुई नज़र उन पर डाली फिर वहाँ से हट आया और साज़ों की तरफ़ मुतवज्जे हो गया। एक हिस्पानवी गिटार पर, जो एक खूँटी से टंगी हुई थी, नाक़िदाना नज़र डाली और उसके साथ क़ीमत का जो टिकट लटक रहा था उसे पढ़ा। उससे ज़रा हट कर एक बड़ा जर्मन प्यानो रखा हुआ था। उसका कोर उठा के उंगलियों से बअज़ पर्दों को टटोला और फिर कवर बंद कर दिया।

प्यानो की आवाज़ सुन कर दुकान का एक कारिंदा उसकी तरफ़ बढ़ा।
“गुड इवनिंग सर। कोई ख़िदमत?”
“नहीं शुक्रिया। हाँ इस महीने की ग्रामोफोन रेकॉर्डों की फ़हरिस्त दे दीजिए।”
फ़हरिस्त ले के ओवर कोट की जेब में डाली। दुकान से बाहर निकल आया और फिर चलना शुरू कर दिया। रास्ते में एक छोटा सा बुक स्टाल पड़ा। नौजवान यहाँ भी रुका। कई ताज़ा रिसालों के वर्क़ उल्टे। रिसाला जहाँ से उठाता बड़ी एहतियात से वहीं रख देता। और आगे बढ़ा तो क़ालीनों की एक दुकान ने उसकी तवज्जा को जज़्ब किया। मालिक-ए-दुकान ने जो एक लंबा सा चुग़ा पहने और सर पर कुलाह रखे था। गर्मजोशी से उसकी आव भगत की।

“ज़रा ये ईरानी क़ालीन देखना चाहता हूँ। उतारिए नहीं यहीं देख लूँगा। क्या क़ीमत है इसकी?
“चौदह सौ तीस रुपये है।”
नौजवान ने अपनी भंवों को सिकड़ा जिसका मतलब था, “ओहो इतनी।”
दुकानदार ने कहा, “आप पसंद कर लीजिए। हम जितनी भी रियायत कर सकते हैं कर देंगे।”
“शुक्रिया लेकिन इस वक़्त तो में सिर्फ़ एक नज़र देखने आया हूँ।”
“शौक़ से देखिए। आप ही की दुकान है।”
वो तीन मिनट के बाद उस दुकान से भी निकल आया। उसके ओवर कोट के काज में शरबती रंग के गुलाब का जो अध-खिला फूल अटका हुआ था, वो उस वक़्त काज से कुछ ज़्यादा बाहर निकल आया था। जब वो उसको ठीक कर रहा था तो उसके होंटों पर एक ख़फ़ीफ़ और पुर-असरार मुस्कुराहट नुमूदार हुई और उसने फिर अपनी मटर गश्त शुरू कर दी।

अब वो हाईकोर्ट की इमारतों के सामने से गुज़र रहा था। इतना कुछ चल लेने के बाद उसकी फ़ित्री चोंचाली में कुछ फ़र्क़ नहीं आया। न तकान महसूस हुई थी न उकताहट। यहाँ पटरी पर चलने वालों की टोलियाँ कुछ छट सी गई थीं और मैं उनमें काफ़ी फ़िसल रहने लगा था। उसने अपनी बेद की छड़ी को एक उंगली पर घुमाने की कोशिश की मगर कामयाबी न हुई और छड़ी ज़मीन पर गिर पड़ी, “ओह सोरी” कह कर ज़मीन पर झुका और छड़ी को उठा लिया।

इस अस्ना में एक नौजवान जोड़ा जो उसके पीछे पीछे चला आ रहा था उसके पास से गुज़र कर आगे निकल आया। लड़का दराज़ क़ामत था और सियाह कॉडराए की पतलून और ज़िप वाली चमड़े की जैकेट पहने था और लड़की सफ़ेद साटन की घेरदार शलवार और सब्ज़ रंग का का कोट। वो भारी भरकम सी थी। उसके बालों में एक लंबा सा सियाह चट्टा गुंधा हुआ था जो उसके कमर से नीचा था। लड़की के चलने से उस चटले का फुंदना उछलता कूदता पै दर पै उसके फ़र्बा जिस्म से टकराता था। नौजवान के लिए जो अब उनके पीछे पीछे आ रहा था ये नज़ारा ख़ासा जाज़िब-ए-नज़र था। वो जोड़ा कुछ देर तक तो ख़ामोश चलता रहा। इसके बाद लड़के ने कुछ कहा जिसके जवाब में लड़की अचानक चमक कर बोली,

हरगिज़ नहीं। हरगिज़ नहीं। हरगिज़ नहीं।
“सुनो मेरा कहना मानो,” लड़के ने नसीहत के अंदाज़ में कहा, “डाक्टर मेरा दोस्त है। किसी को कानों कान ख़बर न होगी।”
“नहीं, नहीं, नहीं।”
“मैं कहता हूँ तुम्हें ज़रा तकलीफ़ न होगी।”
लड़की ने कुछ जवाब न दिया।
“तुम्हारे बाप को कितना रंज होगा। ज़रा उनकी इज़्ज़त का भी तो ख़याल करो।”
“चुप रहो वर्ना मैं पागल हो जाऊँगी।”
नौजवान ने शाम से अब तक अपनी मटर गश्त के दौरान में जितनी इंसानी शक्लें देखी थीं उनमें से किसी ने भी उसकी तवज्जा को अपनी तरफ़ मुनअतिफ़ नहीं किया था। फ़िल-हक़ीक़त उनमें कोई जाज़बियत थी ही नहीं। या फिर वो अपने हाल में ऐसा मस्त था कि किसी दूसरे से उसे सरोकार ही न था मगर उस दिलचस्प जोड़े ने जिसमें किसी अफ़साने के किरदारों की सी अदा थी, जैसे यकबारगी उसके दिल को मोह लिया था और उसे हद दर्जा मुश्ताक़ बना दिया कि वो उनकी और भी बातें सुने और हो सके तो क़रीब से उनकी शक्लें भी देख लें।

उस वक़्त वो तीनों बड़े डाकखाने के चौराहे के पास पहुँच गए थे। लड़का और लड़की पल भर को रुके और फिर सड़क पार कर के मैक्लोड रोड पर चल पड़े। नौजवान माल रोड पर ही ठहरा रहा। शायद वो समझता था कि फ़िलफ़ौर उनके पीछे गया तो मुम्किन है उन्हें शुब्हा हो जाए कि उनका तआक़ुब किया जा रहा है। इसलिए उसे कुछ लम्हे रुक जाना चाहिए।

जब वो लोग कोई सौ गज़ आगे निकल गए तो उसने लपक कर उनका पीछा करना चाहा मगर अभी उसने आधी ही सड़क पार की होगी कि ईंटों से भरी हुई एक लारी पीछे से बगूले की तरह आई और उसे रौंदती हुई मैक्लोड रोड की तरफ़ निकल गई। लारी के ड्राईवर ने नौजवान की चीख़ सुन कर पल भर के लिए गाड़ी की रफ़्तार कम की। फिर वो समझ गया कि कोई लारी की लपेट में आ गया और वो रात के अंधेरे से फ़ायदा उठाते हुए लारी को ले भागा। दो तीन राहगीर जो इस हादिसे को देख रहे थे शोर मचाने लगे कि नंबर देखो नंबर देखो मगर लारी हवा हो चुकी थी।

इतने में कई और लोग जमा हो गए। ट्रैफ़िक का एक इन्सपेक्टर जो मोटर साइकिल पर जा रहा था रुक गया। नौजवान की दोनों टांगें बिल्कुल कुचली गई थीं। बहुत सा ख़ून निकल चुका था और वो सिसक रहा था।

फ़ौरन एक कार को रोका गया और उसे जैसे तैसे उसमें डाल कर बड़े हस्पताल रवाना कर दिया गया। जिस वक़्त वो हस्पताल पहुंचा तो उसमें अभी रमक़ भर जान बाक़ी थी। इस हस्पताल के शोबा-ए-हादिसात में अस्सिटेंट सर्जन मिस्टर ख़ान और दो नौउम्र नर्सें मिस शहनाज़ और मिस गुल ड्यूटी पर थीं। जिस वक़्त उसे स्ट्रेचर पर डाल के ऑप्रेशन रुम में ले जाया जा रहा था तो उन नर्सों की नज़र उस पर पड़ी। उसका बादामी रंग का ओवर कोट अभी तक उसके जिस्म पर था और सफ़ेद सिल्क का मफ़लर गले में लिपटा हुआ था। उसके कपड़ों पर जा बजा ख़ून के बड़े बड़े धब्बे थे। किसी ने अज़ राह-ए-दर्दमंदी उसकी सब्ज़ फ़्लैट हैट उठा के उसके सीने पर रख दी थी ताकि कोई उड़ा न ले जाए।

शहनाज़ ने गुल से कहा:
“किसी भले घर का मालूम होता है बेचारा।”
गुल दबी आवाज़ में बोली,”ख़ूब बन ठन के निकला था बेचारा हफ़्ते की शाम मनाने।”
“ड्राइवर पकड़ा गया या नहीं?”
“नहीं भाग गया।”
“कितने अफ़सोस की बात है।”
ऑप्रेशन रुम में अस्सिटेंट सर्जन और और नर्सें चेहरों पर जर्राही के नक़ाब चढ़ाए जिन्होंने उनकी आँखों से नीचे के सारे हिस्से को छुपा रखा था, उसकी देख भाल में मस्रूफ़ थे। उसे संग-ए-मर-मर की मेज़ पर लिटा दिया गया। उसने सर में जो तेज़ ख़ुशबूदार तेल डाल रखा था, उसकी कुछ महक अभी तक बाक़ी थी। पट्टियाँ अभी तक जमी हुई थीं। हादसे से उसकी दोनों टांगें तो टूट चुकी थीं मगर सर की मांग नहीं बिगड़ने पाई थी।

अब उसके कपड़े उतारे जा रहे थे। सब से पहले सफ़ेद सिल्क गुलूबंद उसके गले से उतारा गया। अचानक नर्स शहनाज़ और नर्स गुल ने बयक-वक़्त एक दूसरे की तरफ़ देखा। इससे ज़्यादा वो कर भी क्या सकती थीं। चेहरे जो दिली कैफ़ियात का आइना होते हैं, जर्राही के नक़ाब तले छुपे हुए थे और ज़बानें बंद।

नौजवान के गुलूबंद के नीचे नेक-टाई और कालर क्या सिरे से क़मीस ही नहीं थी… ओवर कोट उतारा गया तो नीचे से एक बोसीदा ऊनी स्वेटर निकला जिसमें जा बजा बड़े बड़े सूराख़ थे। उन सूराखों से स्वेटर से भी ज़्यादा बोसीदा और मैला कुचैला एक बनियान नज़र आ रहा था। नौजवान सिल्क के गुलूबंद को कुछ इस ढब से गले पर लपेटे रखता था कि उसका सारा सीना छुपा रहता था। उसके जिस्म पर मैल की तहें भी ख़ूब चढ़ी हुई थीं। ज़ाहिर होता था कि वो कम से कम पिछले दो महीने से नहीं नहाया अलबत्ता गर्दन ख़ूब साफ़ थी और उस पर हल्का हल्का पॉडर लगा हुआ था। स्वेटर और बनियान के बाद पतलून की बारी आई और शहनाज़ और गुल की नज़रें फिर बयक-वक़्त उठीं। पतलून को पेटी के बजाए एक पुरानी धज्जी से जो शायद कभी नेक-टाई रही होगी ख़ूब कस के बांधा गया था। बटन और बकसुवे ग़ायब थे। दोनों घुटनों पर से कपड़ा मसक गया था और कई जगह खोंचें लगी थीं मगर चूँकि ये हिस्से ओवर कोट के नीचे रहते थे इसलिए लोगों की उन पर नज़र नहीं पड़ती थी। अब बूट और जुराबों की बारी आई और एक मर्तबा फिर मिस शहनाज़ और मिस गुल की आँखें चार हुईं। बूट तो पुराने होने के बावजूद ख़ूब चमक रहे थे मगर एक पाँव की जुराब दूसरे पाँव की जुराब से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ थी। फिर दोनों जुराबें फटी हुई भी थीं, इस क़दर कि उनमें से नौजवान की मैली मैली एड़ियाँ नज़र आ रही थीं। बिलाशुब्हा उस वक़्त तक वो दम तोड़ चुका था। उसका जिस्म संग-ए-मर-मर की मेज़ पर बेजान पड़ा था। उसका चेहरा जो पहले छत की सम्त था। कपड़े उतारने में दीवार की तरफ़ मुड़ गया। मालूम होता था कि जिस्म और उसके साथ रूह की ब्रहंगी ने उसे ख़जल कर दिया है और वो अपने हम जिंसों से आँखें चुरा रहा है।

उसके ओवर कोट की मुख़्तलिफ़ जेबों से जो चीज़ें बरामद हुईं वो ये थीं:
एक छोटी सी सियाह कंघी, एक रूमाल, साढे़ छः आने, एक बुझा हुआ सिगरेट, एक छोटी सी डायरी जिसमें नाम और पते लिखे थे। नए ग्रामोफोन रेकॉर्डों की एक माहाना फ़हरिस्त और कुछ इश्तिहार जो मटर गश्त के दौरान इश्तिहार बांटने वालों ने उसके हाथ में थमा दिए थे और उसने उन्हें ओवर कोट की जेब में डाल दिया था।
अफ़सोस कि उसकी बेद की छड़ी जो हादिसे के दौरान में कहीं खो गई थी उस फ़हरिस्त में शामिल न थी।

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