Bhul Bhulaiya by Ismat Chughtai

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इस्मत चुग़ताई की कहानी भूल भूलय्याँ, Ismat Chughtai Ki Kahani Bhool Bhulaiyaa
लेफ़्ट राइट, लेफ़्ट राइट! क्वीक मार्च!’ उड़ा उड़ा धम! ! फ़ौज की फ़ौज कुर्सीयों और मेज़ों की ख़ंदक़ और खाइयों में दब गई और ग़ुल पड़ा। “क्या अंधेर है। सारी कुर्सीयों का चूरा किए देते हैं। बेटी रफ़िया ज़रा मारियो तो इन मारे पीटों को।” चची नन्ही को दूध पिला रही थीं। मेरा हंसी के मारे बुरा हाल हो गया। ब-मुश्किल मजरूहीन को खींच खांच निकाला। फ़ौज का कप्तान तो बिलकुल चूहे की तरह एक आराम कुर्सी और दो स्टूलों के बीच में पिचा पड़ा था।

“आँ… आँ… सल्लू भइया ने कहा था फ़ौज-फ़ौज खेलो,” रशीद अपनी काग़ज़ की टोपी सीधी करने लगे और मन्नू अपने छिले हुए घुटने को डुब-डुबाती हुई आँखों से घूर घूर कर बिसूर रहे थे। अच्छन, चचा जान के कोट में से बाहर निकलने के लिए फड़-फड़ा रहे थे और उनका मफ़लर बुरी तरह फांसी लगा रहा था मगर कप्तान साहब वैसे ही डटे खड़े थे।
“ये क्या हो रहा था?’ मैंने कप्तान साहब की स्याही से बनी हुई मूंछों को देखकर कहा।
“सलाह उद्दीन आज़म रिचर्ड शेरदिल पर चढ़ाई कर रहा था। मन्नु को हंसी आ गई और वो लेट गया। फिर काली कुर्सी खिसक गई और बस,” कप्तान साहब निहायत एहतियात से मूँछें थपकते हुए बोले।

“अच्छा। और ये अच्छन।”
“यही तो रिचर्ड हैं और क्या, शेरदिल, ये मफ़लर देखो इनका, ये शेर दिल के बाल हैं।”
“और जनाब?” मैंने चार फुट के कप्तान को नज़रों से नापा।
“हम सलाह उद्दीन आज़म,” वो अकड़ते हुए चले।
“और भई ये मेरा कोट उतार दो स्याही लग गई तो ख़ुदा की क़सम ठोकूंगी।
“ओहो आपका कोट। बात ये है कि इसके बालों दार कालर को… तो लीजीए ना अपना कोट।”
“रफ़्फ़ो बाजी, ज़रा ये सवाल बता दीजीए,” सल्लू अपनी स्लेट मेरी नाक के पास अड़ा कर बोले।
“ना भई, मैं इस वक़्त सी रही हूँ ज़रा।”
“फिर हम आपको सीने भी नहीं देते।” सल्लू ने मेरे पैरों में गुद-गुदीयाँ करना शुरू कीं।
मैंने पैर समेट लिए तो वो मेरी कमर में सर उड़ा कर लेट गया और बकना शुरू किया, “फट जाये अल्लाह करे। झर झर हो जाए ये कुरता। सवाल तो बताती नहीं लेके कफ़न सिए जा रही हैं अपना।”

“चल यहां से पाजी वरना सूई उतार दूंगी।” और वो वहां से हटकर मेरी एलबम उलट-पलट करने लगा।
“ये कौन हैं चुड़ैल जैसी… काली माई… और ये… ये…”
“सल्लू भइया रख दे मेरी चीज़ें।’ मैंने सोचा जिन्न है ये तो।
“तो फिर सवाल बताओ,” और वो मेरे पास घुस कर बैठ गया।
“अरे ज़रा हट कर गर्मी के मारे वैसे ही उबले जा रहे हैं।”
“तो मैं क्या करूँ,” और वो मुझसे और लिपटा।

“मेरी बाजी कैसी… हाँ गुड़िया ज़रा बता दो फिर सवाल।”
मजबूरन मैंने सवाल करना शुरू किया।
“अब ये सवाल समझ रहा है या मेरे बुंदों का मुआइना हो रहा है।” और वो जल्दी से स्लेट पर झुक गया। मैं बता रही थी और वो बेवक़ूफ़ों की तरह मेरा मुँह देख रहा था।
“उंह” में चिड़ गई। “पढ़ रहे हो या मुँह तकने आए हो, सल्लू दिक़ ना करो… वरना चची जान से कह दूँगी।”
“आपकी तस्वीर बना रहा हूँ। ये देखिए आपके होंट बोलने में ऐसे हिलते हैं जैसे… जैसे पता नहीं क्या, बस हिलते रहते हैं।” शरारत से आँखें मटकाईं।
“भाग यहां से उल्लू।” मैंने स्लेट दूर फेंक दी। वो बड़-बड़ाता हुआ अलग बैठ गया और मैं उठकर बरामदे में चली गई। थोड़ी देर बाद देखती हूँ कि चले आ रहे हैं अपना बिस्तर बोरिया सँभाले। या अल्लाह ख़ैर।

“क्यों तुम फिर आ गए यहाँ।”
“और क्या, वहां दिल जो घबराता था।” और वो मेरे पास बैठने लगा।
“सल्लू अगर तुम मानोगे नहीं तो…”
“तो… तो… ई…” उसने मुँह चिढ़ाया। “हम तुम्हारे पास बैठते हैं तो अच्छा पढ़ा जाता है।”
“अच्छा तो चुपके बैठो।”
सलाह उद्दीन मेरे चचा का इकलौता सपूत था। फूटी आँख का यही तो एक तारा था। इतनी लड़कियां पैदा हुईं कि चचा चची बौला गए, और फिर आप तशरीफ़ लाए। जनाब की उंगली देखी तो बकरे सदक़े किए जाने लगें, मन्नतें मानी जाएं, घर में कोई ज़ोर से ना बोले, जूते उतार कर चलो, बर्तन ना खड़के, लाडले की आँख खुल जाएगी। घर में इसी लिए कोई कुत्ता ना पलता, मुर्ग़ियां ना रखी जातीं कि नन्हे मियाँ की कभी नींद ना ख़राब कर दें और हम बेचारे ना लाड जानें ना लाड करें। फिर भी माँ बहनों का लाड उसे कड़वा लगने लगता था और वो सारे वक़्त मुझी से उलझता। लोगों के ‘नान वॉइलंस’ से वो तंग आगया था। यही बात थी कि वो जान जान कर मुझे छेड़ता। क्योंकि में उसे बुरी तरह डाँट देती और कभी कभी चपत भी रसीद कर देती।

लाडले पूत दुबले और सूखे तो होते ही हैं और ऊपर से पतले बाँस जैसा क़द, अम्माँ तो नज़र भर के ना देखें। उन्हें डर था कि कहीं ऊंट साहब को नज़र ना लग जाये और यहां ये कि जहां लंबी लंबी टांगें फेंकते आए और छेड़े गए। ये आदत सी हो गई थी कि कॉलेज से आए और अम्माँ को बलाऐं देकर और दादा को नब्ज़ दिखाकर सीधे मेरी जान पर नुज़ूल। क्या मजाल जो घड़ी-भर निचला बैठे या बैठने दे। बहनों को छेड़ना किसी के गुदगुदी की, किसी के गले में झोल गए, किसी के कंधे में काट लिया। मेरे पास आए और मैंने थप्पड़ दिया।

घंटों माँ बहनें बैठ कर अरमान भरे ज़िक्र किया करतीं। हर दिलचस्प और पुर-मुसर्रत बात सल्लू मियाँ की शादी के लिए उठाकर रख दी जाती।
“सल्लू की शादी में बनाऊँगी सबकी ग्वालियर की चंदेरी की साड़ियां, और भई में तो दिल्ली जाकर करूँगी सुहेल की शादी।”
“और अम्माँ उसे बुलाएंगी, लीला डेसाई को नाच के लिए,” एक बहन बोली।
“भई हम तो सेहरा वग़ैरा सब बाँधेंगे। ज़र बफ़्त की अचकन मामूँ अब्बा जैसी और…”

बहनों के लिए भाई था गोया जगमगाता हुआ हीरा मेरी अंधी आँखों में जैसे और छः सात भाई थे ये भी एक लड़ने झगड़ने, तू-तो मैं-मैं करने और बात बे बात रौब जमाने वाली एक अदना हस्ती थी, में उनके अरमान भले दिलों के भड़कते हुए जज़्बात से कुमला जाती। काश मेरे भी इतने भाईयों के बजाय एक ही होता। एक दुबला पुतला, आए दिन मरीज़ चीख़ता, लड़ाकू, कितना रोमेंटिक होता।
“बाजी ज़रा करते में ये बटन टाँक दो,” वो अपनी पतली गर्दन आगे बढ़ाकर बोला। “चट-पट टांको, मुझे मैच में जाना है…” मैं नॉवल के ऐसे हिस्से में पहुंच गई थी जहां हीरो हीरोइन के बाज़ुओं तक पहुंच चुका था। भला इस क़दर ग़ैर रूमानी काम में मेरा क्या जी लगता।

“राबिया से कहो वो टाँक देगी।”
“नहीं हम तो तुम्ही से टकवाएंगे।”
“मेरे पास सूई भी नहीं।”
वो दौड़ कर चची जान की बुक़ची उठा लाया, “लो ये सूई।”
“तागा पिरो।”
“लाओ में पिरो दूं,” चची सरोता छोड़ कर बोलीं।
“हम तो इन्हीं से टकवाएंगे, लो सूई।”
मुझे ज़िद आ गई, “राशिदा से टकवाओ।” हीरो आगे बढ़ रहा था मुझे आख़िरी दो लाइनें फिर से पढ़ना पड़ीं।
“नहीं हम तो तुम्हें से टकवाएंगे। रखो किताब इधर, वर्ना फाड़ दूंगा।”
“फाड़ी, भाग जाओ नहीं टांकते…” मैंने किताब दूसरी तरफ़ मोड़ ली उसे भी ज़िद आ गई।”
“आज या तो तुमसे बटन टकवाउंगा या अपना तुम्हारा ख़ून बहा दूंगा।”
“चल हट बड़ा वो है ना। बहाओ, ना बहाओ अपना ख़ून।”
हीरे की कनी के ख़ून बहाने के इरादे ही को देखकर बहनें लरज़ गईं। उनका बस चलता तो वो बटन की जगह अपनी आँखें टाँक देतीं।
“सल्लू लाओ मैं टाँक दूं ज़रा सी देर में,” राशिदा बोली।
“कह दिया, सलाह उद्दीन आज़म एक जो कह देते हैं वो टलती नहीं… देखो बाजी टांकती हो या…”

“या क्या?” मैंने तयोरियाँ चढ़ाईं।
“यही कि मैच देखने नहीं जाऊँगा और एक लफ़्ज़ किताब का नहीं पढ़ने दूँगा और मौक़ा मिलने पर किताब पार कर दूंगा,” मुझे हंसी आ गई।
“ओहो। लो बस तो फिर प्यारे से बच्चों की तरह टॉनिक दो।”
मैंने भी सोचा वबाल काटो। मैंने तो बटन टांकना शुरू किया और वो मुझे दिक़ करने लगा।
“देखो सल्लू मेरा हाथ हिल जाएगा तो सूई कलेजे में उतर जाएगी।”
“उतर जाने दो,” और उसने फिर गुदगुदी की।
मैंने सूई मज़ाक़ में चुभोना चाही। वो जल्दी से हटा। धक्के से ना जाने कैसे सूई की नोक चुभ गई ख़ून भी निकला और ग़ज़ब ये कि नोक ग़ायब। सुनते हैं कि सूई की नोक ख़ून में खो जाती है, दिल में जा पहुँचती है। दम निकल जाता है।

“अरे नोक,” मेरे मुँह से परेशानी में निकला।
“मेरे सीने में उतर गई और अब ख़ून में चली जाएगी। और फिर, फिर दिल में आ जाएगी लो अम्माँ-जान हम तो चले।”
चची जान को सकता हो गया मगर वो सँभलें और चीख़ें। राबिया चीख़ी और राशिदा चीख़ी। मेरा ये हाल कि मुजरिम की तरह सूई पकड़े खड़ी की खड़ी रह गई। सलाह-उद्दीन सर पकड़ कर बैठ गया और लाचारी से गिरेबान टटोलने लगा।

फिर जो हुल्लड़ मचा है तो ख़ुदा ही जानता है कि मुझ पर क्या कुछ गुज़री। डाक्टर, हकीम और नमाज़ें और मेरा दिल चाहे डूब मरूँ। आख़िर मैंने मज़ाक़ किया ही क्यों, और वो भी इस कांच के गिलास से…
क्या बताऊं कैसी पशेमानी हो रही थी। ऐक्स-रे हुआ। सारे जिस्म में सूई ढूंढ डाली मगर ख़ाक पता ना चला और भी मुसीबत।
चची जान के आँसू और राबिया, राशिदा का टहल-टहल कर दुआएं माँगना और ऊपर से सल्लू का इतरा-इतरा कर मरने की धमकियाँ देना। मेरे आँसू निकल आए। सल्लू ने मेरी तरफ़ देखा और मुस्कुराया।

“अब तो चैन आ गया है आपको।” मैंने सर झुका लिया।
“अच्छा यहां आईए। ज़रा मेरे सर में तेल थपक दीजीए।”
भला अब मुझमें हिम्मत कहाँ थी जो इनकार करूँ। चुप-चाप सर में तेल डालना शुरू किया। सल्लू फ़तह मंदाना अंदाज़ से मुझे आँखें चढ़ा-चढ़ा कर देखता और मुस्कुराता रहा।
“देखा मेरा हुक्म ना मानने का नतीजा!” वो मेरी उंगली में चुटकी नोच कर बोला। “सूई तो मेरे गिरेबान ही में रह गई थी।”
ग़ुस्से के मारे मेरा ख़ून खौल गया।
“अच्छा जाने दो। अम्माँ-जान काहे को मानेंगी। मैंने सूई फेंक भी दी।” मेरे हाथ फिर ढीले पड़ गए और वो और हंसा।
“अच्छा पाजी तुझे भी इसकी सज़ा ना मिली तो… ख़ैर।” मेरा जी चाहा उस के बाल नोच कर दूर धकेल दूं। “ख़ुदा समझे।”
“मुझे तुमसे काम करवाने में मज़ा आता है जब मैं नौकर हो जाऊंगा तो तुम्हें अपने पास रखूँगा।”
“होश में, मेरी जूती रहती है तेरे पास।”
“देख लेना। मैं तुम्हें ले लूँगा… गोद ले लूँगा… हंसती क्यों हो।” मुझे हंसी आ गई।
“और फिर तुम्हें हवाई जहाज़ में बिठाउंगा। हांआं…” वो आँखें घुमाकर बोला।

मेरे इम्तिहान के दिन आ गए थे और मैं कमरा बंद करके पढ़ा करती थी मगर सल्लू कहीं मानता था, जहां मैं पढ़ने चली और वो भी मौजूद हैं। मैंने संजीदगी से मना कर दिया कि “अगर तुमने दिक़ किया तो मैं बोर्डिंग चली जाऊँगी।” पढ़ने के ख़्याल से चचा मियाँ के घर रहना पड़ा था।
वो ख़ामोश पढ़ा करता। मगर घंटा आध घंटा बाद बेचैनी होने लगती।
“अब भाई इंटरवल होगा,” वो किताब बंद करके मेरे पास आन घुसता और दस मिनट तक वो उधम मचता कि ख़ुदा की पनाह। शरारत में उसे काटने का मर्ज़ हो गया था।
“बात ये है कि जी चाहता है कि तुम्हें खा जाऊं…” वो हंसकर दाँत पीसता।
“ख़ुद अपनी बोटियाँ चबा डालो।” मगर वो बुरी तरह लिपट जाता और बावजूद धकेलने के तंग किए जाता। कभी मुझे ग़ुस्सा आ जाता लेकिन उमूमन अगर वो कमरे में ना होता तो किसी चीज़ की कमी महसूस होती। घर की सारी चहल पहल इसी एक इन्सान के दम से थी। बच्चों को छेड़ना, बहनों को रुलाना, कभी फिर फ़ौरन लिपट कर प्यार करता और मना लेता।

इम्तिहान ख़त्म हो गए और घर जाने के ख़्याल से ख़ुशी के साथ साथ दुख भी हो रहा था।
“क्यों जा रही हो छुट्टीयों में?” वो एक दिन बोला।
“वाह… मेरी अम्माँ बेचारी अकेली हैं।”
“अकेली जैसे उन्हें बड़ी तुम्हारी परवा है।”
“हूँ, और नहीं तो तुम्हें परवा होगी।”
वो मेरे पास बैठ गया। “सच्च कहता हूँ बिज्जू… सच्च कहता हूँ तुम ना जाओ।” उसने प्यार से मेरे कंधे पर सर रख दिया और अपनी सूखी बाहें मेरे गले में हमाइल कर दीं।”

“हटो तो… ख़ैर होगी तुम्हें मेरी परवा, मगर अब तो जाऊँगी।
“मगर मैं कहता हूँ मत जाओ…” वो ज़रा हट कर बोला।
“बकवास मत करो। जाओ ज़रा किसी को भेजो मेरा सामान बांध दे।”
“और मैं कहता हूँ तुम नहीं जा सकतीं।”
“हुंह! बड़े लाट साहब होना जो रोक लोगे।”
“याद है वो सूई।” वो शरारत से मुस्कुराया।
“मक्कार हो तुम… कहीं के।”

दूसरे दिन सल्लू को बुख़ार चढ़ा। सारे घर पर जैसे आफ़ट टूट पड़ी। ज़रा सा मलेरिया और ये ऊधम मगर दम मारने की इजाज़त ना थी।
“अम्माँ-जान बिज्जू को रोक लीजीए आप से अकेले तीमारदारी ना हो सकेगी।” जैसे सूअर को बड़ी तीमारदारी की ज़रूरत थी।
“अरे मियाँ भला वो क्यों रुकेंगी, चची अम्माँ तन से बोलीं। “मैं हमीदा को तार देकर बुला लूंगी।”
“नहीं अम्माँ वो अपने बच्चे लेकर आन धमकेंगी तो और गुल मचेगा। बिज्जू तो ख़ुद रुक रही थी, स्कूल में पार्टी है, दूसरे जब हम अच्छे हो जाएंगे तो सिनेमा देखने चलेंगे।

“रुक जाओ ना क्या हर्ज है,” राबिया ने राय दी। उसे चुड़ैल को क्या पिता कि ये मक्कारी कर रहा है। बुख़ार तो इत्तिफ़ाक़ से आ गया, वर्ना वो कुछ और फ़ेल मचाता। रुकना ही पड़ा।
“सलाह उद्दीन आज़म का हुक्म,” वो शरारत से मुस्कुराया। “मेरे मूँछें निकल आएं तब तुम्हारे ऊपर असली रौब पड़ा करेगा। लाओ इसी बात पर ज़रा सी बर्फ़ कुचल कर तो खिला दो।” चची जान ने इस क़दर डरी हुई नज़रों से मेरी तरफ़ देखा कि मैं जल्दी से तौलिया में बर्फ़ तोड़ने लगी। किसी का लाडला हो तो हम क्यों भुगतें मगर वो तो भुगतना ही पड़ा।

“बिज्जू… बिज्जू…” किसी ने आहिस्ता से मुझे पुकारा।
“क्या है,” मैं डर गई।
“ज़रा सा पानी,” सल्लू ने अपने पलंग से हाथ हिलाकर कहा। मैं जल्दी से उठी। अंधेरे में थरमस टटोल कर पानी निकाला।
“अम्माँ थकी हुई हैं… बैठ जाओ।” उसने सिरहाने मुझे बिठा लिया और आहिस्ता-आहिस्ता गिलास में बर्फ़ हिलाने लगा।
उसे बुरी तरह पसीना आ रहा था और हाथ पैर काँप रहे थे। पानी पी कर वो मेरी गोद में सर रखकर लेट गया।

“बिज्जू।”
“क्या है।”
“मेरा दिल घबरा रहा है।”
“चची जान को जगाऊँ।” मैंने चाहा आराम से उसका सर तकिये पर रख दूं।
“नहीं… हिलो मत!” उसने अपने पतले-पतले हाथ मेरी कमर में डाल दिए। “दिल घबरा रहा है बिज्जू,” वो तेज़ी से गहरी-गहरी साँसें ले रहा था। मैंने अपने को छुड़ाने की कोशिश ना की और उसकी पेशानी पूछने लगी। वो और भी परेशान हो गया। उसने जल्दी जल्दी मेरा नाम लेकर बड़-बड़ाना शुरू किया। सिसकियाँ… वो सिसकियाँ भरने लगा। अजब सूखी सूखी उखड़ी हुई साँसें। मैं समझी ना जाने कम्बख़्त को सरसाम हो गया या क्या और उसे लिटाने की कोशिश करने लगी।

“बिज्जू जाओ मत… मैं मर जाउंगा।” और बुरी तरह बच्चों की तरह मुझसे लिपट गया और उसकी आँखें… ! वो जैसे… ना जाने आज मुझे उन आँखों में क्या नज़र आ रहा था। मेरा दिल बुरी तरह धड़कने लगा। वो शोख़ी से थिरकने के बजाय चढ़ी हुई और गहिरी थीं। कुछ पागल सी, कुछ अजीब। मुझे थोड़ी देर के लिए ये मा’लूम हुआ गोया अंधेरे पेचदार रास्तों में परेशान चक्कर लगा रही हूँ और कोई दरवाज़ा नहीं।

कोई क़रीब के पलंग पर कुल-बुलाया और वो जल्दी से चौंक पड़ा। “जाओ… राबिया जाग गई!” उसने ख़ौफ़-ज़दा हो कर मुझे दूर धकेल दिया। “जाओ जल्दी…” वो ख़ुद दौड़ कर चादर में छुप गया।
मैं परेशान हो गई। “या अल्लाह! क्या वाक़ई ये पागल हो रहा है। राबिया जाग गई तो क्या हुआ? मुझे चची जान पर रहम आने लगा। ख़ुदा-ना-ख़ासता… ख़ैर…”

और उसके बाद उसमें एक ग़ैर-मामूली इंक़लाब हो गया। वही रात वाली पागल गहरी और चढ़ी हुई आँखें बग़ैर बुख़ार और हज़यान के कुछ अजीब होतीं, वो मुझे पहले से भी ज़्यादा छेड़ने और चिढ़ाने लगा। मुझसे हर वक़्त उलझता और फिर बिल्कुल पागल हो जाता। वो मेरी ताक में रहने के बहाने तराशता। हर जगह, हर कमरे, हर मोड़ और हर कोने पर वो मेरी ताक में मुझे डराने और गुद-गुदाने के लिए छुपा रहता। मैं उसकी ज़रूरत से ज़्यादा तवज्जो से कभी बे-तरह परेशान हो जाती और कभी मुझे वो सब एक अलहड़ लड़के की शरारतें मा’लूम होतीं और ये शरारतें किस तेज़ी से बढ़ रही थीं।

दो साल बाद जब मैं राबिया की शादी पर आई तो सल्लू को सलाह उद्दीन आज़म कहना पड़ा। ओफ़्फ़ो एक छोटा सा लचकता हुआ कुमलाया सा पौदा नौ-ख़ेज़ दरख़्त बन गया था। ख़ून की हिद्दत से चेहरा साँवला हो गया था। और पतले सूखे ज़र्द हाथ सख़्त गुठलियों दार मज़बूत शाख़ों की तरह झुलसे हुए बालों से ढक गए थे और आँखें ब-ख़ुदा बिलकुल पागल हो गई थीं, पुतलियां नाचती भी थीं और एक दम से जम कर गहरी हो जातीं कि फ़ौरन आँख झपक जाये।

“बिज्जू, कुछ मेरी मूंछों का रौब पड़ता है?”
“ख़ाक, इस क़दर करीहा शक्ल हो गई है।”
“और तुम्हारी बड़ी भोली है ना।” उसने मुझे गुदगुदाना चाहा। मैं उसके बड़े-बड़े हाथ देखकर लरज़ गई।
“हटो सल्लू… ख़ुदा के लिए। तुमसे डर लगता है रीछ हो गए हो बिलकुल।”
“हाँ,” और वो ग़ुरूर से और फैल गया।

“अरे मैं मारूँगी सल्लू…” उसने ज़बरदस्ती अपना खुर्दरा गाल मेरे हाथ पर-ज़ोर से रगड़ दिया। सारा हाथ झल्ला उठा। जैसे लोहे का ब्रश। कभी तो मैं आकर पछताती थी ना जाने क्यों।
शादी का घर और वो भी हिन्दुस्तानी तरीक़। घर क्या होता है एक भूल-भुलय्याँ का रास्ता जिसमें मज़े से आँख मिचौली खेलो। सर को पैर की ख़बर नहीं रहती और ना जाने कितने खिलाड़ी आँख मिचौलियां खेल रहे होते हैं। कभी दो चोरों की किसी कोने में टक्कर हो जाते हैं तो फिर झेंप! मज़ा आ जाता है।

मा’लूम होता था कि घर के हर कोने, हर दीवार की आड़ में, हर ज़ीने पर कई-कई सलाह उद्दीन खड़े हैं। आप किधर भी चले जाईए ना-मुमकिन जो सलाह उद्दीन ना मौजूद हो। बा’ज़ वक़्त तो ये मा’लूम होता गोया आसमान ही से टपक पड़े। मैं आजिज़ आकर राबिया के पास घुस गई। लो वो थोड़ी देर में लाडला भइया बहन की सूरत देखने को मौजूद और फिर ये कि हम दोनों रज़ाई में ब-मुश्किल समा रहे हैं कि जनाब मअ अपने बे-डौल हाथों और चौड़े कंधों के इसी रज़ाई में घुसेंगे। किस से शिकायत की जाये। किस के आगे गिला करें यानी उन जिगर के टुकड़े कलेजे की। किस से शिकायत की जाये? और क्या शिकायत हो। घुड़क दो संजीदगी से, डाँट दो आप ही शर्म आएगी। मगर वो संजीदा होने का मौक़ा भी दे।

“जाओ सल्लू सर में दर्द है,” जो ये बहाना किया तो।
“सर में दर्द? अरे अम्माँ-जान बाम कहाँ है ड्राईवर को भेजीए,” डाक्टर से स्प्रे लाए… “और भई कोई शोर करेगा तो मुझसे बुरा कोई ना होगा। चलो रेशू, हमीद, मनी खसको यहां से बिज्जू के सर में दर्द है,” दरवाज़ा बंद या अल्लाह लीजिए सर का दर्द ग़ायब और अम्माँ-जान से ज़रूरी काम निकल आया।

“क्यों बिज्जू झूट कह रही थी सर में दर्द है और यहां पूरियां तली जा रही हैं।” लीजिए बावर्ची-ख़ाने में भी मौजूद। अब भागिए।
कभी आँच बिगाड़ दी कभी कुछ और, फिर वही शरारतें। बावर्ची जानता है कि मियाँ बेचैन बोटी हैं।
“बी-बी आप भी जाईए और सल्लू मियाँ भी, वर्ना मुझसे खाना पक चुका।”
“सल्लू मुझे तुमसे एक बड़ी ज़रूरी बात कहनी है,” मैंने सोचा आज उन्हें संजीदगी से डाँटू।
“किस से? मुझसे?… अरे मेरे भाग, ऐसे ख़ुश गोया तमग़ा मिलने वाला है।”
अब ज़रूरी बात कहने से पहले ख़ुद इस क़दर ज़रूरी ख़िदमात अंजाम देना शुरू कीं कि भागते ही बन पड़े।

क्या लोग अंधे होते हैं? दिखाई नहीं देता उन्हें? आँख-मिचौली में तो बड़े-बड़े शाह पकड़े जाते हैं और सल्लू जैसा चोर दिन दहाड़े डाका डालने से ना चूके। लोग समझते हैं बच्चा है।
सिनेमा में लोगों को बस औरत ही औरत दिखाई देती है। ख़्वाह हज़ारों मर्द काम कर रहे हों और में भी औरत थी, मुझे जल्द मा’लूम हो गया कि चंद ऐसे ग़ैर जानिब-दार भी हैं जो फ़ैसला करते वक़्त ना किसी के कलेजे का टुकड़ा देखें ना जिगर की ठंडक, खड़ी धार पड़ती है तलवार की, मुझे तो इल्ज़ाम देगी दुनिया ये तो कोई देखता नहीं कि फ़ित्ना किस ने बपा किया, ग़ुस्से से आँखों तले अंधेरा आ गया।

“हट जाओ सलाह उद्दीन। हद होती है बे-हुदगी की। मुझे ये बातें पसंद नहीं।”
“ईं,” उस का मुँह उतर गया। “क्या हुआ बिज्जू?”
“कुछ नहीं… तुम्हें मा’लूम है लोग क्या कहते हैं।”
“मेरा बोलना… मेरा… आपको बुरा लगता है।”
“हाँ मुझे बहुत बुरा लगता है! अच्छी बात नहीं… लोग…”
“लोग? कौन लोग? कौन लोग हैं वो मुझे भी बताओ ज़रा…”
“कोई भी हों वो… मेरी और तुम्हारी बेहतरी चाहने वाले।”
“बेहतरी।” वो सुर्ख़ हो गया।
“हाँ इसी में बेहतरी है…” और मैं तेज़ी से चली आई। दिल पर से एक बोझ उतर गया। आख़िर को मैंने कह ही दिया। औरत के तो हाथ में है ख़्वाह वो बदराह हो जाये ख़्वाह ऐन मौक़े पर आँखें खुल जाएं और उसे आक़िबत नज़र आने लगे। आँखें खुल गईं और ख़ूब मौक़े पर खुलीं। मैं दिल ही दिल में मुस्कुरा रही थी।

सलाह उद्दीन आया… मैं हस्ब-ए-आदत चौकन्नी हो गई… मगर गुज़रा चला गया उसने मुझे देखा तक नहीं… मेरे दिल पर घूंसा सा लगा। ख़ैर… ऊंह, क्या है… बेहतरी इसी में है, बला से जान छोटी। किसी वक़्त सुकून ही ना था। अब तो… ख़ैर, और घर के हर कोने और हर मोड़ अब कोई भी ना था। गोया अमन चैन और सुकून लेकिन फिर ये परेशानी कैसी? एक फ़िक्र किसी एक पस्ती, गोया कमान उतर गई, धार खुट्टल हो गई, गोया कुछ है ही नहीं। अब कोई आपको देखकर खिंचा चला नहीं आता। अब किसी को शरारतें नहीं सूझतीं। अब किसी की अजीब और पागल आँखें आपके पीछे नहीं दौड़तीं। जाईए शौक़ से जाईए अंधेर कोठरी में भी चले जाईए कोई मुज़ाहमत नहीं करता। चोर मिलता भी है तो आपको झुक कर आदाब करता है और सर झुकाकर चल देता है एक तरफ़ को। अब कोई आपके पास घुस कर बैठने का शौक़ीन नहीं बल्कि दूर… वो सामने कमसिन ख़ूबसूरत लड़कियों के झुर-मुट में शरारत भरी आँखें नचा कर ख़िराज-ए-तहिसीन वसूल कर रहा है कभी भूले से भी अगर आँख मिल जाती है तो सर झुक जाता है पहचानता तक नहीं।

शादी के घर में मा’लूम होता है मौत हो गई एक मौत नहीं सैंकड़ों मौतें, हज़ारों ख़्यालात, सैंकड़ों जज़्बात और अन-गिनत मुस्कुराहटें मुर्दा पड़ी हैं घर भायं भायं कर रहा है।
और चची तो मा’लूम होता है कभी थीं ही नहीं कोई अपनी… राबिया अपने दूल्हे के ख़्याल में मस्त। हमीदा का बच्चा ज़रूरीयात-ए-ज़िंदगी से फ़ारिग़ नहीं हो चुकता ,जी चाहा बीच शादी से चल दूं कॉलेज।
देखने वालों ने देख भी लिया और ताड़ भी लिया।
“ए ये सल्लू की और तुम्हारी क्या अन-बन हो गई है?” चची बोलीं।
“नहीं तो…” मैं जल्दी से बोली।
“झूट…” सल्लू ने दबी आवाज़ में कहा और खाने की प्लेट पर झुक गया।

“ओई… छोटों से क्या ग़ुस्सा… चलो सल्लू, बाजी से माफ़ी माँगो…”
“जी नहीं… ये ख़ुद माफ़ी मांगें…” सल्लू अकड़े।
“माफ़ी वाफ़ी कैसी, कोई लड़ाई नहीं हुई…” मैंने मुआमले को सीधा करना चाहा।
“जी नहीं मेरी तो है लड़ाई।”
“ये क्यों… आख़िर हुआ किया?”
“हुआ ये कि ख़्वाह-म-ख़्वाह डाँटने लगीं।”
“कुछ भी नहीं चची जान। ये मुझे छेड़ रहा था। मैंने कह दिया मुझसे मत बोलो… भला में इससे लड़ूंगी।” मैं जल्दी से बोली
“नहीं अम्माँ-जान! कैसी भोली बन रही हैं ऐसे इन्होंने नहीं कहा था।”

और मैं डरी कि कहीं उसने कह दिया सब के सामने तो क्या होगा। मुझे ख़्याल हुआ कि मेरी ग़लत फ़हमी होगी। शायद ये भी इसकी शरारतें हैं और… और शायद ये शरारतें ही हों… लानत है कि मैं उसे इस क़दर ज़लील समझी।
“मुझे ऐसी बुरी तरह कहने लगीं… हुँह, जैसे में कोई वो हूँ।”
“अरे में तो यूँ ही कह रही थी, लीजीए मिलाप हो गया अब।”
“लो… इसी बात पर हाथ मिलाओ, ओह… किस क़दर सर्दी है सारी रज़ाई आप ओढ़े बैठी हो ये नहीं कि किसी और को भी उढ़ा लूँ…”

वो रज़ाई में घुस कर बैठ गया और मेरी इतनी चुटकियाँ लीं कि मिलाप करने का मज़ा आ गया।
“सल्लू ख़ुदा का वास्ता फिर कहोगे मैंने ये कहा और वो कहा…” चची जान मासूमियत से मुस्कुरा रही थीं…
“कहा ही कैसे तुमने… बोलो हारीं कि नहीं…”
“बाबा न मैं तुझसे जीती और न जीतने का शौक़… बस…” वो हंसा। दुनिया की हर चीज़ हंस पड़ी।
और फिर वही आँख-मिचोली वही भूल-भुलय्याँ और आक़िबत एक दफ़ा को आक़िबत भी खिलखिला पड़ी। कोना-कोना मस्हूर कुन नग़मों से गूंज उठा। कान गुंग हो गए और आँखों में रेत भर गई। मीठी मीठी खटक वाली रेत।

और अब क़ुसूर किस का?… क़ुसूर तो होना ही हुआ किसी का… तक़दीर का, बेचारी तक़दीर… बात ये है कि अल्लाह पाक अपने बंदों की आज़माईश करता है ये देखने के लिए कि… वो ता कि देखे… यही कि बस देखे… जैसे कि हम तमाशा देखते हैं… डर, धड़का, बदनामी, ज़िल्लत, परेशानी, बर्बादी, तबाही और सब कुछ ऐसे ही मौक़े की ताक में रहते हैं। कच्ची शाख़ मैं झूला डालो तो आप ही चर चराएगी… भई ख़ूब ठोंक बजाकर देख लेना चाहिए कि गुद्दा कमज़ोर तो नहीं… रस्सी तो घुनी घुनाई नहीं… वर्ना आप ही पटख़नी लगेगी।

लड़ाई पर जाने से चंद दिन पहले तशरीफ़ लाए, नन्हा बरामदे में “लिफ़्ट राइट लिफ़्ट राइट’ कर रहा था उसे देखकर ऐसे सटपटाए कि बस। ।
“लंबी चौड़ी है मेरी फ़ौज…” मैंने सोचा बड़े बड़े दिल दहल जाते हैं उसे देख कर।
“तुमने मुझे बताया भी नहीं…”
“क्या…”
“ये… ये… वो नन्हे को घूरने लगे।”
“ओह ये… हाँ कोई ऐसी बताने की बात ही क्या थी। मैंने उसे यतीम-ख़ाने से ले लिया था। जी बहलता है इससे…”
“मगर ये… सच्च बताओ…” कितनी घबराहट और कितनी इल्तिजा थी।
“क्या बताऊं…? हाँ तुम अपनी कहो ये चची जान ने लाडले बेटे को कैसे लड़ाई पर भेज दिया…” मैंने बात पलटी।

“लड़ाई पर… वो… होगा… तुम पहले ये बताओ… कि…” वो नन्हे की तरफ़ मुड़े।
“समझ ही में नहीं आता तुम्हारी तो… क्या तो यतीम-ख़ाना।”
“हूँ…” सल्लू का चेहरा देखने के क़ाबिल था, कुछ खोई-खोई सी खिसियानी सूरत।”
“जी घबरा रहा है,” मैंने छेड़ा।
और उनकी रंगत बदली… “बेचारा बच्चा… मर गया इसका बाप शायद,” तल्ख़ी से कहा।
“ख़ाक तुम्हारे मुँह में। ख़ुदा ना करे…” मैंने नन्हे को कलेजे से लगा लिया।
“ठाएं…” नन्हे ने मौक़ा पाकर बंदूक़ चलाई।
“हाएं… पाजी… अब्बा को मारता है…” मैंने बंदूक़ छीन ली और फिर आँखों में वही शरारत तड़पी… फिर… बला की गहरी हो गईं… कुछ पागल… अजीब सी… टटोलने के बा-वजूद इस भूल-भुलय्याँ में रास्ता ना मिला।

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