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अपना ख़ून हिंदी कहानी, Apna Khoon Hindi Kahani
समझ में नहीं आता, इस कहानी को कहाँ से शुरू करूँ?
वहां से जब छम्मी भूले से अपनी कुँवारी माँ के पेट में पली आई थी और चार चोट की मार खाने के बाद भी ढिटाई से अपने आसन पर जमी रही थी और उसकी मइया ने उसे इस दुनिया में लाने के बाद उपलों के तले दबाते दबाते ममता की अनजानी सी कील कलेजे में चुभने पर छाती से लगा लिया था।

या वहां से जब छम्मी की माँ को जुम्मन मुर्दार ख़ुद अज़ राह-ए-करम ब्याह कर ले गया था। क्यों कि तले ऊपर उस की तीन चार बीवीयां ठिकाने लग चुकी थीं और उसकी अंधी माँ की देख-भाल के लिए उस के तीनों लड़के बहुत छोटे थे और इस वक़्त छम्मी भी अपनी हर्राफ़ा माँ के साथ टीन की संदूकची और मरमरों की पोटली के साथ बैलगाड़ी में धरी जुम्मन के गांव पहुंच गई थी…

बिलकुल उसी तरह जैसे वो एक दिन अपनी अलहड़ माँ की कोख में पहुंच गई थी।
यूं तो कहानी वहां से भी शुरू की जा सकती है जहां लगान ना देने की वजह से नाइब के जूतों की तड़ा-तड़ से जुम्मन का जवार बाजरे से बना हुआ ऊदा ऊदा ख़ून नाक से रास्ते निकल रहा था। और कोई रास्ता ना पाकर उसने तेरह बरस की छम्मी को उसकी माँ का लहंगा पहनाकर सोलह बरस की औरत बनाने में कामयाबी हासिल कर ली थी और फिर नाइब के जूते तड़-तड़ाना बंद हो गए थे और छम्मी महल के ज़नाना शागिर्द पेशे में यूं पहुंच गई थी जैसे वो हमेशा वहां पहुंचने की आदी थी।

नहीं, शागिर्द पेशे में तो कहानी बिलकुल उथल पुथल होने लगी थी। दूसरी बांदियों ने उसका लहंगा उठा उठाकर उस का ख़ूब खेल बनाया था। जैसे पिंजरे में नई चिड़िया डाल दी जाये तो सारी चिड़ियां उस पर टूट पड़ती हैं, इसी तरह छम्मी पर ठोंगों की बौछार होने लगी… मगर छम्मी फूलों की सेज पर तो पली ना थी जो चुटकियों तमांचों को ख़ातिर में लाती। और ना लहंगा उठ जाने से उसकी शान में कोई बट्टा लग जाने का ख़तरा था। लहंगे से उसे यूं भी कोई ख़ास दिलचस्पी ना थी। अभी चंद साल पहले तक वो सिर्फ़ मेले ठेले के मौक़ा पर घगरिया पहनती थी, जो लौटते वक़्त फ़ौरन उतरवा ली जाती थी कि कहीं कीचड़ धूल में सत्यानास ना लग जाये। उस का रोज़ाना का लिबास चंद चीथड़े थे जिन्हें वो लँगोट की तरह कस के बांध लिया करती थी। माँ के घेरदार लहंगे से उसे क़तई दिलचस्पी ना थी। फिर नेफ़े में बसी जुएँ अलग खसोट रही थीं। जब लौंडिया हंसते हंसते थक गईं तो नई शरारतें ईजाद करने लगीं।

“अरी ना-मुराद तूने ख़ानम साहब को मुजरा किया कि नहीं?” गुल बदन बोलीः
“सलाम किया था। ये मुज़रा क्या?”
नौ-बहार तो ज़मीन पर लोटन कबूतर बन गई… “अरी सलाम नहीं मुजरा। अभी तक नहीं किया तो बस समझ ले तेरी ख़ैर नहीं। देख पहले ख़ानम साहब के सामने जाके तीन बार ख़ूब झुक कर सलाम कर… ऐसे।” शिबू ने सलाम करके बताया।

“समझी?”
छम्मी ने मन भर की मुंडिया हिला दी।
“हाँ, और देख फिर निहायत अदब से लहंगा उठा देना…” सनोबर खिलखिलाने लगी।
“चुप रहो गधय्यो, हँसने की क्या बात है जी!”
“और देख, मरवे शोनी हँसना नहीं, वर्ना ये समझ ले खोद के वहीं चौकी तले गाड़ देंगी।”
छम्मी समझ गई।
ज़मर्रुदी ख़ानम, लौंडियों की दरोग़न, अस्र की नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर मुसल्ले पर बैठी हज़ार दाना फेर रही थीं। हूर-ओ-क़सूर दिमाग़ में रचा हुआ था। निगाहों में तक़द्दुस और चेहरे पर धड़ियों नूर बरस रहा था। उनका सिन भी छम्मी का सा था। यूं गोश्त का पहाड़ थोड़े ही थीं। छम्मी ने सलाम किया तो वो आलम-ए-बाला के तसव्वुर ही में खोई हुई थीं मगर जब लहंगा उठा तो चौदह तबक़ रोशन हो गए। एक धमाके के साथ वो बंजर ज़मीन पर आ रहीं।

कहानी यहां बिलकुल दूसरा ही पल्टा खा सकती थी। शायद छम्मी फिर जुम्मन के सर पर पटख़ दी जाती, जहां फिर जूते मंडलाने लगते और ऊदा ख़ून बहने लगता।

मगर ऐसा हुआ नहीं कि कीचड़ में सच्चा मोती रुल रहा हो तो जौहरी की आँख धोका नहीं खाती। छम्मी की मैल जमी टांगों पर सुनहरे रौंगटे देखकर ज़मर्रुदी ख़ानम ने फ़ौरन भाँप लिया कि मोती कीचड़ में सना हुआ है। उन्होंने इशारे से छम्मी को पास बुलाया।

लौंडियों बांदियों की घिग्गी बंध गई… अब ख़ानम झुक कर सलीम शाही जूती उठाएंगी और फटकी फटकी करके छम्मी का भेजा दालान दर दालान छिटक जाएगा। नहीं… शायद बैठे-बैठे उस के पेट में लात मारेंगी। ख़ानम की लात में अरबी घोड़ी जैसा ज़ांटा था। लतीफ़ा के पेड़ू पर यही घोड़ी की लात पड़ी थी जो ख़ून के इतने दस्त आए कि वो चल दी अल्लाह मियां के हाँ।

मगर ख़ानम साहब ने ना अरबी घोड़ी वाली दुलत्ती झाड़ी, ना ज़रकार सलीम शाही संभाली। वो काली टांगों पर सोने के तारों की नक़्क़ाशी देख देखकर मुस्कुरा रही थीं। फिर उन्होंने उसे सब जगह से नापा टटोला। सब कुछ जमा जोड़ कर तेरवें साल की रक़म से तक़सीम किया। जवाब? लाजवाब।

ख़ानम के हाथों से ना जाने कितनी बांदियां काट छांट के बाद हुस्न-ओ-जवानी के मुरक़्क़ा बन कर नवाब साहब की सेज को गर्मा चुकी थीं। क्या मारके की निगाह पाई थी, पेट की लौंडिया को भी नाप तौल कर चुटकी बजाते में भाँप लेती थीं कि कोख में पद्मिनी बिराज रही है या कोई चुड़ैल पैर पसार रही है। नाप तौल से ये तो औरत बनती है। कूल्हे, कमर, सीना, बाज़ू, पिंडलियां, रानें, गर्दन।

हुस्न के मुक़ाबलों में जैसे पोर पोर नापी जाती है, बिलकुल इसी तरह ख़ानम की निगाहों का फ़ीता काम करता था।
हाँ, अब यहां से असल कहानी शुरू हुई। ख़ानम साहिबा ने नूरन दाई को तलब फ़रमाया। उसे लीबारटरी यानी हम्माम तैयार करने का हुक्म दिया। पहला हंगामा तो छम्मी के जुओं भरे सर ने खड़ा कर दिया। उसका ईलाज फ़ौरन क़ैंची से कर दिया गया। ख़ुशख़ाशी बाल करने के बाद भी तालू से चम्टी हुई जुएँ बिलकुल छम्मी की तरह सख़्त-जान साबित हुईं। धो फटक कर छम्मी चटाई पर फैला दी गई। आँखें और नाक के नथुने छोड़कर उस के बदन पर कोई कत्थई रंग का लुआबदार मसाला थोप दिया गया। फिर उसे खौलते हुए पानी से धोया गया। उसके बाद कोई दूसरा लेप चढ़ाया गया।

छम्मी चुप-चाप सिसकियाँ लेती रही… ख़ानम साहिबा उस के कोफ़ते पका रही हैं, मसाला लगाकर छोड़ेंगी, फिर उसे सेखों पर चढ़ाकर अँगीठी पर सेंका जाएगा फिर कुत्तों को खिलाया जाएगा। हफ़्ता भर छम्मी धुलती रही छनती रही। उसकी नस-नस फोड़े की तरह टपकती रही। दो दिन बुख़ार भी चढ़ा। फिर लेप ख़त्म हो कर मरहम चपड़े जाने लगे और छम्मी की टीसें कम हुईं।

हफ़्ता भर गुज़रने के बाद वो बिलकुल पानी में फूटी हुई कंवल की कोपल की तरह निकल आई। इस अर्से में उसे दूध और शहद के सिवा कुछ खाने पीने को ना मिला। भूक के मारे वो बिल-बिलाती रहती मगर कोई सुनवाई ना होती। मोटी बीझड़ की रोटी और चटनी खाने वाली का नीनियों और शोरबों से क्या भला होता। दस बारह ख़रबूज़े एक सांस में साफ़ कर जाने वाली सरदे की एक क़ाश से क्या। एक दिन वो चुपके से शाही मतबख़ में पहुंच गई और इतना हबड़ हबड़ करके खाया कि तीन दिन तक दस्तों के मारे हलकान हुआ की। फिर उसे मुस्हिल दिए गए, जोशांदे और मअ’जूनें चटाई गईं और फलों के रस हलक़ में टपकाए गए।

छः महीने बाद ख़ानम साहब ने उसे अपनी तजुर्बा गाह से जब निकाला तो वो चौदह साल की हो चुकी थी। उसका रंग काफ़ूर की तरह सफ़ेद हो गया था। बाल कंधों को छू लेते, अगर ख़मदार ना होते।

अब उन्होंने उसे ज़ैतून के तेल में डुबोकर जड़ी बूटियों में बसाए हुए पानी से बार-बार धोया। साबुन के बग़ैर सिर्फ पानी की धार से तेल की चिकनाई छुड़ाने में जो मेहनत और वक़्त सर्फ़ हो, उस का तो कुछ हिसाब ही नहीं। फिर घिसा हुआ संदल उस के अंग अंग पर मल कर पपड़ीयाँ छुटाई गईं। ज़ाइद बाल मोचने से उखाड़े गए। फिर उसे पिंडलियों पर चिपका हुआ कोरे धुले नैन-सुख का आड़ा पाजामा और शबनम का ज़रकार कुर्ता पहनाया गया। उस के बालों के छल्ले सँवार कर कारचोबी टोपी लगाई गई। मोती जड़ी चौड़े गिरेबान की सदरी और तले की मोजड़ी पहनाई गई।

जब छम्मी फूलों के गजरे ले नवाब बेगम की ख़ाबगाह में पहुंची तो वो ना हिलीं ना जुलीं, बस गुम-सुम मख़मलीं तकिए पर कुहनी टिकाए उसे देखती रहीं।

“ग़ज़नफ़र नवाब,” बड़ी मुश्किल से उनके होंट सिसकी में हिले।
मुजरे के बाद छम्मी ने दोज़ानू हो कर गजरों का थाल अदब से पेश किया।
काँपते हुए सहमे सहमे हाथ से उन्होंने सोने के छल्लों को छुआ। कनपटी पर सुनहरा ग़ुबार सा लरज़ रहा था। कलिमे की उंगली बहकती हुई रुख़्सार के भूरे तिल को चूमती होंटों पर काँपने लगी। चरका सा लगा और उन्होंने कुहनी में मुँह छिपाकर एक आह भरी।

“ग़ारत हो,” उन्होंने आवाज़ घोंट ली।
छम्मी के हाथ से फूलों भरा थाल छूट पड़ा। ख़ानम साहब ने झुक कर उसे टहोका दिया और वो भद्द से बैठ गई। उंगली के इशारे से उन्होंने उसे दफ़ान किया और फूल उठाने लगीं।
“हुज़ूर ख़ानम साहब ने नवाब बेगम की पेशानी से लट हटाई।”
“ग़ारत हो,” नवाब बेगम छलक पढ़ीं। मगर ख़ानम साहब ग़ारत नहीं हुईं, वहीं पट्टी पर टिक गईं। और हौले हौले बेगम की पिंडलियां सूतने लगीं। नवाब बेगम सिसकती रहीं। उन्होंने पांव झटक दिए। ख़ानम साहब ने ज़िंदगी भूंचाल के झटके सह कर गुज़ारी थी। वो जमी रहीं।

“लौंडी से ख़ता हुई तो इसी दम ग़ुलामों, बांदियों को हुक्म दीजीए कि महल सराय के सतून से बांध कर सरकारी कुत्ते छोड़ दिए जाएं। या हुक्म फ़रमाएं तो बांदी के संदूक़चे में सिम-ए-क़ातिल की कमी नहीं, एक बूँद इस ज़मीन के बोझ को दोज़ख़ में झोंकने के लिए काफ़ी होगी।”
बेगम नवाब सिसकती रहीं। पांव ना झटके।
“मुझे शुबा हुआ था नवाब बेगम, अगर जान की अमान पाऊं तो अर्ज़ करूँ?”
बेगम नवाब की सिसकियाँ तूल पकड़ने लगीं।

पंद्रह बरस पहले नवाब हुज़ूर की भूली बात बनी वो साँसें गिन रही थीं। महलसरा की संगीन दीवारें थीं और नवाब बेगम की धड़कती हुई नब्ज़ें। महलों के सारे शोबदे फीके पड़ चुके थे। नवाब बहादुर उन्हें चख कर और कहीं मुँह मार लेते। अला बला सब हड़प कर जाते। नई थाली सामने चुनी जाती, दो-चार महीने में उससे पेट में अफारा पैदा होने लगता… खट्टी डकारें आने लगतीं, फ़ौरन दूसरी डिश का इंतिज़ाम हो जाता। नवाब बेगम को इस बात की कोई शिकायत भी ना थी, क्यों कि नवाबों का यही दस्तूर हुआ करता था। ख़ुद उनके वालिद बुजु़र्गवार के तोशा दान में तो वलाएत तक के मुर्ग़न तर माल आते-जाते रहते थे। रजवाड़ों में उनके टैस्ट और पहुंच की धाक बैठी हुई थी। वैसे उनकी मुँह चढ़ी हब्शी हलवा सोहन की टिकिया मबरूका को जो दर्जा मुयस्सर हुआ किसी को ना हो सका।

मगर नवाब बहादुर तो गंदगी की पोट थे। उनके हैवानात की हदों को पार करते हुए प्यार पर बेगम का ख़ून खोल पड़ा। नवाब बहादुर उड़ गए। वो भी अड़ गईं। बेगम तीर, तलवार पर उतर आईं और उनसे पर्दा कर लिया… अब वो उनकी ख़्वाबगाह की तरफ़ नहीं फटक सकते थे, वैसे जश्न जलूस के मौक़ों पर वो पेश पेश रहतीं सजे हुए हाथी घोड़ों की तरह।

नवाब बहादुर की जूती से। वो अड़ गएं तो चूल्हे भाड़ में जाएं। उन्होंने और निकाह कर लिए। जब तक बीवी हज़म होती ऐश बाग़ में रहती। जहां बासी हुई और जी से उतरी, महलसरा पर पहुंचा दी जाती। थोड़े दिन फुन्कारती, बल खाती, फिर फन पटख़ कर चुप हो जाती। बेगम का रुत्बा अपनी जगह। वो उतरी कमान की फ़हरिस्त में दाख़िल हो कर महल के एक कोने में अपनी एक छोटी सी दुनिया बसा लेती। फिर किसी दूसरे के दिन पूरे हो जाते और वो भी आ जाती। इसके बाद उसे बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी। वैसे तो नवाब बहादुर की झूटन पर सारी रियाया पलती थी, मगर उनकी झुटाली औरत फ़ौरन सात तालों में क़ैद कर दी जाती थी। रिश्तेदार मिलने आ सकते थे, खाने पीने की इफ़रात कपड़े ज़ेवर के अंबार, लेकिन मर्द की बू बास से महरूम।

कभी कभी पुरानी बीवी की कोई बात याद आ जाती, नवाब बहादुर उसे फ़ौरन तलब कर लेते। निगोड़ी के ख़ुशी से हाथ पैर फूल जाते। बाक़ी बदनसीब उसे बन-ठन कर पिया की बाहोँ में जाने की तैयारियां करते देखतीं तो उन्हें हिस्ट्रिया के दौरे पड़ जाते, और ख़ानम साहब अपना तिलस्मी सन्दूकचा लेकर मदद को दौड़तीं।

बारहा नवाब बहादुर ने बड़ी बेगम को भी दावतनामा भेजा। कुछ अरसे से अपने पीर साहब के हुक्म पर वो बड़ी पाबंदी से बारी बारी सब बीवियों को उनका हक़ देने को तैयार थे, मगर बड़ी बेगम ने बड़ी गुस्ताख़ी से अपना हक़ ठुकरा दिया। उन्नीस बरस की मजरूह, सिसकती जवानी का पहाड़ उठाए दनदनाती चली जा रही थीं कि ख़लेरे भाई ग़ज़नफ़र अली ख़ां विलाएत जाने से पहले शिकार विकार की धुन में रियासत में आ निकले। रिश्ते के भाई थे। तीन साल छोटे थे। हथ छुट वाक़’अ हुए थे। नवाब बेगम के छक्के छुड़ा दिए।

क्या लहलहाते, मुस्कुराते दिन थे वो भी। धमाचौकड़ी हो रही है, स्वाँग भरे जा रहे हैं, आपा धापी, मार कटाई से भी आर नहीं। हंसी है कि आबशार बन कर टूटी पड़ती है। नवाब बेगम की सारी बेरुख़ी भूला हुआ ख़्वाब हो गई, बचपन लौट कर हुमकने लगा। भौंडे भौंडे तमाशे होते। चार लौंडियों को हुक्म दिया जाता, कर दो एक दूसरी को नंगा। जो जीतेगी सोने का कड़ा या जड़ाव हेकल इनाम में पाएगी। और पुल पड़तीं ना-मुरादें, एक दूसरे पर वो घमसान मचती कि हंसते हंसते आँसू निकलने लगते। कपड़ों की धज्जियाँ उड़ने लगतीं। लहूलुहान हो जाती। अंजाम-कार जिस्म पर बस पाजामे का नेफ़ा और पांचों की मोरियों के छल्ले पड़े रह जाते। फिर हार जीत अलग रखकर सबको इनाम मिलता।

जब ग़ज़नफ़र मियां हँसने पर आते तो उन्हें दीन दुनिया का होश ना रहता, गिर गिर पड़ते। बहुत ज़्यादा हँसने पर बेगम नवाब के ऊपर आ गिरते कभी बिलकुल ही गडमड हो जाते। बड़ी मुश्किल से बेगम उनके परत उतार कर हटातीं। शोख़ी, शरारत तो उनकी आदत थी। बच्चा ही तो थे। ज़रा ज़रा सी मूँछें फूटी हैं… वो भी शायद बार-बार मूंडने से। सर पर ताज तो अल्लाह का रखा हुआ था। बिलकुल मोहरों का कच्चा सोना सर पर ढेर था। दाँत कचकचा कर नवाब बेगम सुनहरे गुच्छे पकड़ कर हिला डालतीं कुछ लिहाज़ ही नहीं सुअर को, हाथ हैं कि बिलकुल दीवाने। ये खेल साहबज़ादे ने आँख खोल कर सब ही को खेलते देखा था। बांदियां आपस में नोचतीं, खसूटतीं, बाहर नौकर-चाकर खुली खुली बातें करते। आती जाती का बुकट्टा भर लिया, कल्ला नोच लिया, कमर खसूट ली। साहब ज़ादीयाँ तो अलग-थलग सैंत कर पाली जातीं, हाँ लौंडियां गोद ही में हथकंडे सिखा देतीं।

वहां देखने टोकने वाला कौन था। ग़ज़नफ़र अली कोई गुस्ताख़ी कर बैठते तो लौंडियां ठट्ठे लगाने लगतीं। नवाब बेगम का दम लबों पर आ जाता। कभी घुड़क देतीं, कभी जान-बूझ कर अंजान बन जातीं। मगर छीना झपटी से बात आगे बढ़ने लगती तो वो फ़ौरन बंध बांध कर सिमट जातीं। और बा-अदब बा-मुलाहिज़ा हो जातीं। उन्हें बे-क़ाइदगी से सख़्त नफ़रत थी। चोटी गूँधने में अगर मांग में एक बाल भी इधर का इधर हो जाता तो बे-कल हो जातीं और सारी रात तकिए पर सर पटख़तीं। उनसे कभी कोई लग़्ज़िश नहीं हुई। सुलगने की आदी थीं, बढ़कने की शर्त नहीं थी। मगर ग़ज़नफ़र मियां ठहरे कल के लौंडे। धड़ धड़ जलने लगे। भूक लगे खा लो, प्यास लगे पी लो, नींद आए सो जाओ। उन्होंने यही सीखा था। बेगम की हद-बंदियों पर अलिफ़ हो गए। निगाहें खींचीं तो अगाड़ी पछाड़ी तुड़ाने लगे। चंद मुसाहिबीन की राय से इधर उधर शिकार के लिए चल दिए। बेगम की दुनिया उजड़ गई। महलसरा में मौत सी हो गई। जासूसों ने ख़बर दी कि साहबज़ादे चूड़ों चमारों पर मोती रोल रहे हैं। एक अदद मोती छम्मी की सूरत में अल्हड़ कुम्हारिन की कोख में जल्वा-अफ़रोज़ हो गया। विलायत जाने का वक़्त आ गया और वो रुख़स्त हुए लेकिन हवाई जहाज़ के हादिसे में ख़त्म हो गए। बेगम ने बरसों चुपके चुपके मातम किया। अगर उस दिन उन्होंने ग़ज़नफ़र मियां को धुत्कारा ना होता तो शायद ये मोती उनकी प्यासी कोख को सेराब कर देता। ये तो उनकी अमानत थी जिसमें अब ख़ियानत हो गई। । । तो क्या छम्मी उनकी कोई नहीं? कोई रिश्ता नहीं? क्या किसी की मुर्ग़ी जाकर दूसरे के डरबे में अण्डा दे आए तो मुर्ग़ी के मालिक का उस पर हक़ नहीं रहता? जीने के लिए इन्सान कैसे कैसे हथकंडे चलाता है। महरूमियों और तन्हाइयों से उकताकर तख़य्युल की दुनिया बसाली। ज़ख़्मी दिल ने मरहम चाहा और पा लिया… जैसे सीपी अपने ज़ख़्म को मोती बनाकर सीने में छिपा लेती है।

“लौंडी ने सोचा, आख़िर अपना ख़ून है। शागिर्द पेशे में नीच कमीनी औरतें उसे किसी करम का नहीं रखेंगी”
“हाँ अपना ख़ून है!” नवाब बेगम को ये बात बड़ी प्यारी लगी। ऊपर से बरसों की दबी दबाई ममता फट पड़ी। उन्होंने छम्मी को उठाकर कलेजे से लगा लिया।

बेगम बादशाह ज़ादी की तरह छम्मी के भाग जाग उठे… छम्मी से उसे शगुफ़्ता बानो बना दिया गया। वही बांदियां जो लहंगा उठा उठा कर उस की गति बनाया करती थीं, आफ़ताबा, सलफ़ची सँभाले उस की ख़िदमत गुज़ारियाँ करने लगीं उसे नहलातीं धुलातीं, कंघी चोटी करतीं। नवाब बेगम की राय से उसे गुड़िया की तरह सजातीं और उसकी क़िस्मत पर रश्क करतीं कि काश साहबज़ादे उनकी माओं पर मेहरबान हुए होते।

शगुफ़्ता बानो की आला पैमाने पर तालीम और तर्बीय्यत होने लगी। सलीक़ा सिखाया जाता। वो बड़ी मुस्तैदी से हर काम पे जुट जाती… उसी तरह जैसे गांव में ख़ुशी ख़ुशी उपले थापा करती थी। बुनाई, कढ़ाई सीखती। तीज तहवार पर महलसरा सजाकर दुल्हन बनाई जाती। वो बांदियों के ग़ोल में मिलकर महलसरा सर पर उठा लेतीं। सावन में झूले पड़ते। दीवाली पर चिराग़ां होता। मुहर्रम पर ताज़िए रखे जाते, मजलिस होतीं। रईय्यत में अक्सरीयत हिंदूओं की थी, मगर सब ही तहवार धूम धाम से मनाए जाते। नवाब साहब हर तहवार के जश्न में लाज़िमन शरीक होते थे।

नवाब साहब के हरम में लौंडियों बांदियों के इलावा सतरह अठारह बीवीयां भी थीं जो कभी उनके निकाह में रह चुकी थीं। शर’अ की रू से चार शादीयों से ज़्यादा नहीं कर सकते थे, जिनमें से नवाब बेगम को वो तलाक़ नहीं दे सकते थे, क्यों कि उनके भाई बहुत बा-रसूख़ और तबीयत के टेढ़े थे, इसलिए उनके इलावा तीन और निकाह में रहतीं। जब कोई नई दिल में बस जाती तो तीन में से जो सबसे ज़्यादा पुरानी होती उसे तलाक़ दे देते और वो रोती पीटती महलसरा में पहुंचा दी जाती। उसे बाहर जाने या दूसरी शादी करने की इजाज़त नहीं थी। हज़ार पाबंदीयों के बावजूद इधर उधर ठग्गी लगाने में भी कामयाब हो जाती थीं। नवाब साहब के पीर-ओ-मुर्शिद के हुक्म के मुताबिक़ वो सब बीवीयों के हक़्क़-ए-ज़ौजीयत बारी बारी से बख़्शते थे। रोज़ शाम को एक बीवी का बुलावा आ जाता था। इस में से बड़े जोड़ तोड़ चला करते। बाला बाला रिश्वतें चलती थीं। जो बीवी ज़रा कंजूसी करती, अहल-ए-कार उस की बारी गड-मड कर देते। नवाब साहब बेचारे को तो ठीक तरह याद भी नहीं थाकि कौन सी निकाह में है।

किसी बात पर अचानक किसी पिछली बीवी की हड़क उठने लगती तो नवाब साहब बेक़रार हो जाते
“अरे भई आज नूरी को हाज़िर किया जाए।”
“आलीजाह, उनको तो तलाक़ फ़र्मा चुके।”
“अमां नहीं… कब?”
“सरकार, वो तीसरी बिटिया के बाद जब फुरोज़ां नवाब से अक़्द फ़रमाया था।”
“अच्छा अच्छा।” नवाब साहब को याद आ जाता, “कोई मज़ाइक़ा नहीं, नमक-ख़्वार तो है।”

और नमक-ख़्वार ख़ुश ख़ुश सोलह सिंघार करके आ जाती, और ऐसी पट्टी पढ़ाती कि अहमक़ नवाब बहादुर नंबर २ को तलाक़ देकर उससे दोबारा निकाह फ़र्मा लेते। ज़्यादा-तर निकाहों की वजह ये थी कि सब कमबख़्त नवाब साहब को चढ़ाने के लिए लड़कियां ही पैदा करती थीं। तीन चार लड़के हुए भी मगर जाते रहे।

महलसरा में जब ये जश्न होते तो नवाब साहब तशरीफ़ लाते। दरबार लगता। इन’आमात तक़सीम किए जाते। ख़िल’अतें बटतीं। उस दिन एक से एक बढ़ चढ़ कर सिंघार करती, बड़ी बेगम हुज़ूर-ए-आला हज़रत के दाएं तरफ़ जल्वा-अफ़रोज़ होतीं, बाक़ी तीन में से सबसे चहेती बाएं तरफ़, उस के बाद सब दर्जा ब दर्जा बैठतीं, जश्न से पहले बड़े दंगे फ़साद होते। बीवीयां आने वाले दिन की तैयारीयों में अपने मर्तबे का बहुत ख़्याल रखतीं। छिपी ढकी नोक झोंक चलती। कभी इन मौक़ों पर कोई पुरानी बीवी एक दम से नई लगने लगती और उसका नाम फिर चार बीवीयों की फ़ेहरिस्त में आ जाता। बारी मुक़र्रर करने का काम मुशीर क़ानूनी के हाथ में था… कुछ ख़ानम साहब पर भी दार-ओ-मदार था। वो अगर कह देतीं कि तबीयत कसल-मंद है तो बेचारी की बारी ग़ायब हो जाती। उनके भी मस्का मारने की ज़रूरत हुआ करती थी।

मेरे ख़्याल में छम्मी की कहानी दर’अस्ल होली के तहवार से शुरू हुई, ये होली थी भी पिछले सारे तहवारों से ज़्यादा शानदार। इस धूम धाम की वजह ये थी कि रियासत में कांग्रेस का असर 1935ए- के बाद से बहुत बढ़ गया था… कांग्रेस जो बिदेसी राज का नाक में दम किए हुए थी और ब्रिटिश राज के फ़रज़ंदाँन-ए-दिल बंद में से नवाब साहब भी थे। कोई बेटा नहीं था। इस वजह से भी कुछ ख़ाइफ़ रहते थे। इसी की ख़ातिर शादीयों पर शादियां कर रहे थे। और अभी नाउम्मीद होने की नौबत नहीं आई थी। कांग्रेस के ज़ोर को कुचलने के लिए रियासत में हिंदू मुस्लिम कशीदगी का बीज बोया गया, जो फ़ौरन जड़ पकड़ गया, लेकिन ख़ुद नवाब साहब पर भी फ़िर्का-परस्ती की शह पड़ने लगी।

ख़ुद नवाब साहब क़त’ई फ़िर्क़ा-परस्त नहीं थे, उन्हें ख़ुद-परस्ती से ही छुट्टी नहीं मिलती थी जो फ़िर्क़ा -परस्ती के झंझट में पड़ते। नाच रंग और शिकार से अगर कभी मोहलत मिल जाती तो ब्रिटिश राज की सलामती की फ़िक्र कर डालते। उन्हें हर फ़िर्क़े के लोगों से बे-इंतिहा प्यार था, और हर फ़िर्क़ा उनकी रियासत में इतमीनान से अपने धरम का पालन कर सकता था। मुस्लमान और हिंदू में वो कोई फ़र्क़ रवा नहीं रखते थे। दोनों ही उनके राज में क़ल्लाश थे, बल्कि मारवाड़ियों ने तो कुछ फ़ैक्ट्रियां बना भी ली थीं, मुस्लमान बे-इंतिहा जाहिल और मुफ़लिस थे। ओहदे दारों में वो अंग्रेज़ के बाद हर उस शख़्स से मरऊब थे जो सरकारी क़बीले का था और पेंशन के बाद उनकी रियासत की क़िस्मत जगाने आ जाता था। मुहब्बत के मुआमले में वो इंतिहाई ग़ैर जानिब दार थे। बीवीयों में निहायत इतमीनान बख़्श तरीक़े से उन्होंने बग़ैर किसी तफ़रीक़ के सबको नवाज़ा था।

कुछ प्रोपेगंडे की काट मंज़ूर थी, कुछ पुराना दस्तूर था, टेसू के फूल देग़ों में उबाल कर रंग तैयार हुआ। अबरक़ मिला, अंबर और गुलाल बड़े बड़े पीतल के थालों में भर कर चबूतरों पर सजा दिया गया था। रंगों की भरी नांदें और पिचकारियां इफ़रात से मौजूद थीं। कढ़ाव चढ़े हुए थे। हलवाई पकवान तल रहे थे और कहार डोलियों में रख रखकर महलसरा में पहुंचा रहे थे। सारी ख़लक़त रंग खेलने और इनाम लेने के लिए टूट पड़ती थी। कमीनों की टोलियां स्वाँग भरे नाचती गाती चली आ रही थीं। महलसरा के लक-ओ-दक़ सहन में रियासत के आला अफ़सरों की औरतें, शाही ख़ानदान की बहू बेटियां होली खेलने और तर माल उड़ाने में मशग़ूल थीं नवाब बहादुर भी महफ़िल की रौनक बढ़ाने की ख़ातिर थोड़ी देर को जल्वा-अफ़रोज़ हो जाते। रईय्यत के माई बाप थे, उनसे कोई पर्दा नहीं करता था, सबको हाथ जोड़ जोड़ के नमस्कार करते, रंग डलवाते, और आँखें भी सेकने से बाज़ ना आते…

इन मौक़ों पर लौंडियों बांदियों की ख़ुर-मस्तीयाँ क़ाबिल-ए-दीद हुआ करती थीं। ख़ूब नाच-गाने, स्वाँग और कुश्तम पछाड़ होती। मक़सद नवाब बहादुर की तवज्जो पाना होता। ऐसे ही मौक़ों पर तो लौंडियों को बेगमें बनने के मौके़ मिला करते थे।

रोक-टोक के बावजूद छम्मी उर्फ़ शगुफ़्ता बानो इस तूफान-ए-रंगीं में बिजली बनी चमक रही थी। सड़ांदी कीचड़ और गोबर से खेलने वाली छम्मी की ये पहली रंग-बिरंगी महकती होली थी। पंद्रहवां साल लगा ही थी, मगर जिस्म की उठान माह-ओ-साल का झंझट नहीं पालती। रंगों से भीगे कपड़े जिस्म से चिमट कर रह गए थे। क़ौस-ओ-क़ुज़ह बनी इधर उधर क़ुलांचें लगा रही थी। नवाब बहादुर के नथुने फड़के “मानस गंद, मानस गंद।”
नवाब बेगम ने उन बड़ी बड़ी ग़िलाफ़ी आँखों की नीयत पहचान ली… नवाब बहादुर की नंगी आँखों की गाली पर वो तिलमिला उठीं। उन्होंने झुक कर ख़ानम साहब के कान में कुछ कहा।

उधर नवाब बहादुर ने झुक कर ख़वाजासरा के कान में कुछ कहा और उठ गए।
ऐशबाग के मरमरीं हौज़ में लाल मछली तरारे भर रही थी। उसके आस-पास के पानी शोले भड़क रहे थे। नवाब बहादुर की भारी भारी आँखें रस घोल रही थीं। छम्मी उर्फ़ शगुफ़्ता बानो ने ऐशबाग की ऊँघती उकताई फ़िज़ा को एक दम झंजोड़ कर जगा डाला। नवाब बहादुर की थकी थकाई आँखें एक दम चौंक कर ठट्ठे मारने लगीं। ये चटपटी तुतिया मिर्च किस मर्तबान में सेंती पड़ी थी? उनका काम-ओ-धन तो उकताहट के फफूंद से उठ रहा था। ऐसी बे-उज़्र, बे-तकल्लुफ़ शय उनके शाही दस्तर-ख़्वान पर आज तक नहीं उतरी थी। सब ही कटी पिसी कपड़छन की हुई माजून मुरक्कब बनी उनके हुज़ूर तक पहुंची थीं।

नवाब बहादुर हंसते हंसते लोटन कबूतर हो गए जब गिरेबान में हाथ डालने पर उसने चट से हाथ पर थप्पड़ टिकाया और फुँकारने लगी।
“वाह!” बे-इख़्तियार उनके मुँह से निकला।
“अरे भई इधर आओ,” उन्होंने मुसाहिबीन को दावत दी।
“ज़रा उसे तो देखो,” उन्होंने फिर वही हरकत की, और शगुफ़्ता बानो ने अब के पैर की जूती निकाल के हाथ पर रसीद की।
“बदमाश!” साथ ही ख़िताब भी अता फ़र्मा दिया। ये हरकत अब तक उससे किसी मर्द ने नहीं की थी।

मुसाहिबीन के दिलों की हरकत बंद होते होते बची। मगर नवाब साहब बहादुर ने सर पीछे झटक कर फ़र्माइशी क़हक़हा लगाया और मुसाहिबीन मुआमले की एहमीयत को समझ गए। नवाब बहादुर उतना हँसे कि मन मन भर की आँखें सिवाय हो गईं। फिर चारों तरफ़ से हाथ चलने लगे और जूती चौमुखी मुदाफ़अत करने लगी। उसकी उजड्ड किस्म की गालियों कोसनों में भी बला की हलावत थी। फिर वो तनतना के खड़ी हो गई। “हम जाते हैं हाँ,” उसने ग़ुरूर से ऐलान किया।

“अच्छा बैठो बैठो, अब नहीं छेड़ेंगे।” नवाब बहादुर ने पुचकारा। “शहज़ादियों जैसे दिमाग़ हैं,” दिल में सोचा
नवाब बेगम ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब की दीवार बनी पूरी महलसरा पर बरस रही थीं तीन बार दौरा पड़ चुका था कलेजे में ज्वाला-मुखी दहक रहा था… लौंडियां बांदियां सूखे पत्तों की तरह लरज़ रही थीं। ख़ानम साहब दस्त-बस्ता मुजरिमों की तरह क़दमों में सर रखे दे रही थीं।
“कैसे ले गए?” उन्होंने ख़ानम साहब की चोटी मरोड़ डाली।

“क्या अर्ज़ करूँ, एक झलक तो मैंने देखी, फिर जैसे बिजली सी कौंदी, जैसे ज़मीन फटी और वो समा गई। या आसमान से ग़ैबी हाथ उतरा और उड़ाले गया। किसी ने जान-बूझ कर मेरी आँखों में अबीर झोंका था, वर्ना बंदी यूं हवास-बाख़्ता ना हो जाती। और जब मैंने आँखें मसल कर खोलीं तो वहां कुछ भी ना था… ड्योढ़ी पर किसी ने ध्यान भी ना दिया होगा, ना चीख़ी ना चलाई।”

“अब क्या होगा ख़ानम?” नवाब बेगम एक दम बह निकलीं।
“बाक़िर अभी ख़बर लेकर आया है, चुहलें हो रही हैं। लेकिन मेरी सरकार बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी। एक दिन तो ये होना ही था।”
“ये किसी दिन भी नहीं होना है?” बेगम तमतमा उठीं।

सोने का डला बनी छम्मी मीना की तरह चहक रही थी। उसने हाज़िरीन की तमाम अँगूठीयां जीत कर पोर पोर पर टिका ली थीं। अब अशर्फ़ी का खेल हो रहा था खिलाड़ियों में से एक उसे अशर्फ़ी चुटकी में पकड़ कर दिखाता और जब वो अशर्फ़ी लेने लपकती तो चुटकी खुल कर अशर्फ़ी खिलाड़ी की गोद में डूब जाती। छम्मी अशर्फ़ी की खोज में हाथ मारती और मुग़ल्लिज़ात में लिथड़े हुए क़हक़हे गूँजने लगते। वो बड़ी बड़ी हैरान आँखें खोल कर हँसने वालों को देखती। मुहज़्ज़ब किस्म के ऊंचे मज़ाक़ उस की समझ से ऊपर निकल जाते, ये नासमझी ही तो सारा लुत्फ़ पैदा कर रही थी। जब कोई इंतेक़ाम लेने का क़स्द करता तो वो जूती सँभाल लेती, और महफ़िल लोट-पोट हो जाती।

नवाब बहादुर तो रोज़ हैरत जगा करते थे। जब पौ फूटने लगती तो हैंगन बाई भैरवी के मुक़द्दस सुरों में कोई ग़ज़ल या ठुमरी छेड़ देतीं और सरकार की रगों में नींद उतर आती। जगाने का राग उनके कानों में लोरी बन जाता। मगर आज छम्मी की शोख़ियों ने महफ़िल जमने ही ना दी, दिन-भर की झंजोड़ी हुई तो थी, सर चौकी के पाए लगा तो पट से सो गई।

एक दम महफ़िल पर सन्नाटा छा गया। बारहदरी में एक एक करके सब शमएँ गुल हो गईं। शबनमी पर्दे छूट गए। बज़ाहिर तख़लिया हो गया। छम्मी ने ढीली अँगूठीयों को गिरने से रोकने के लिए मुट्ठीयाँ बांध कर थोड़ी के नीचे रख ली थीं। नवाब बहादुर ने अपना भारी पैर उस की छाती पर धर के जगाना चाहा,मगर वो मुर्दे की तरह बेहोश पड़ी रही। उन्हें उस की ये गुस्ताख़ी बड़ी पसंद आई। जैसे भूके को हबड़ हबड़ खाते देखकर भूक लगने लगती है, इसी तरह छम्मी की अल्हड़ नींद का जादू उन पर भी चलने लगा। बरसों बाद वो सह्र से कई घंटे पहले वहीं मस्नद पर ढेर हो कर सोए।

दस्तूर के मुताबिक़ आला हज़रत के बेदार होने से पहले ही बारहदरी की सूरत बदल गई। रात के मसले हुए फूल मय छम्मी के झाड़ दिए गए, दबीज़ पर्दे छोड़कर बिलकुल बंद कमरा बना दिया गया।
जब छम्मी सर से पांव तक सोने और जवाहरात में डूबी, आँचल में अशर्फ़ियों के तोड़े और पोर पोर अँगूठीयां पिरोए नवाब बेगम के हुज़ूर में पेश की गई तो वो आँखों पर कोहनी का तिकोन खड़ा किए बे-कल सी पड़ी थीं। छम्मी ने छनकता हुआ मुजरा किया तो आँखें खोल कर देखा और तड़प कर उठ बैठीं। छम्मी उनके लाड प्यार की ऐसी आदी हो चुकी थी कि उसने उनके तेवर ना देखे। अपनी धुन में रात के तूफ़ानों की तफ़सील बयान करते हुए वो वहीं उनके क़दमों के पास बैठ गई।

बेगम नवाब ने चोटी पकड़ कर उस का सर ऊंचा किया, फिर उनके हाथ कांटों की तरह उस के वजूद को ख़ुर्चने लगे। एक एक ज़ेवर उन्होंने पैरों तले मसल डाला। कपड़े तार-तार कर दिए और फिर इतने तमांचे लगाए कि उनके हाथों में ख़ून छलक आया। फिर लात मार कर उन्होंने उसे दूर गिराया और उन पर हिस्ट्रिया का शदीद दौरा पड़ गया।

जब ख़ानम साहब ने आकर इत्तेला दी कि शगुफ़्ता बानो वैसी ही साबित लौट आई है जैसी गई थी तो वो दोबारा ज़िंदा हो गईं। उन्होंने उसे बुलाकर उस के सोजे हुए मुखड़े पर अपने नरम रेशम जैसे हाथ फेरे। सन्दूकचा मंगा कर उनसे दोगुनी दे दें। अपना ढेरों ज़ेवर अपने हाथों से पहनाया, और ढीट छम्मी खी खी हँसने लगी।

बड़ी देर तक ख़ानम साहब से सर जोड़ कर मिस्कोट होती रही कि अगर शाम को सरकार ने उसे फिर याद किया तो क्या बहाना बनाया जाये। निस्वानी मजबूरी का बहाना चंद रोज़ चल जाएगा। फिर क्या होगा… देखा जायेगा।

शाम हुई और सरकारी मोटर आ धमकी। बेगम ने फरोज़ां को जो उन्हें बेहद प्यारी थी, बना सँवार कर रवाना कर दिया। उसे हर तरह की ताकीदें कर दी गईं मगर फरोज़ां उल्टे पैरों रोती पीटती आ गई।
नवाब बहादुर किसी झांसे में आने को तैयार नहीं थे।

इसी दम ऐलान जंग हो गया। नवाब बेगम ने खुली बग़ावत पर कमर बांध ली। चाहे हश्र हो जाएगी, मगर वो अपने आला ख़ानदान के मुक़द्दस ख़ून को मोरी में लुंढाने को तैयार नहीं। पहले तो सवाल-ओ-जवाब दोनों तरफ़ से अहल-कारों के ज़रिये चलते रहे। नवाब बहादुर, बेगम नवाब को समझा समझा कर हार गए मगर वो अपनी हट पर क़ायम रहीं। नवाब बहादुर ने उनके ख़ून की इज़्ज़त-अफ़ज़ाई की ग़रज़ से निकाह के क़स्द का भी ज़िक्र फ़रमाया। मगर नवाब बेगम टस से मस ना हुईं। । । मुसाहिबीन ना जाने क्या-क्या जतन करके सरकार को बहलाए हुए होते, मगर छम्मी के बग़ैर शाम उन पर बड़ी भारी गुज़र रही थी। इशा की नमाज़ के बाद तो नवाब बहादुर बिल्कुल ही बिखर गए। नवाब बेगम के ज़्यादा-तर जवाब उनके कानों तक पहुंचे ही नहीं थे। बस तरह तरह के बहाने बनाए जा रहे थे। किसी में इस गुस्ताख़ी की हिम्मत ना थी। बिदके हुए घोड़े को तरह तरह बहलाया जा रहा था।

वो तो ख़ैरीयत ये हुई थी कि नवाब बहादुर को छम्मी का नाम नहीं याद रहा था। वो बस तड़प-तड़प उस की तफ़सील बताते थे, “हराम ज़ादों वो जो नन्ही सी जूती दिखा रही थी, जिस ने थूक दिया था… वही।” वो अहमक़ों की तरह बताते और मुसाहिबीन निहायत मुस्तैदी से फ़ौरन तामील-ए-हुक्म के लिए दौड़ते और जूती वाली के बजाये किसी और आफ़त की परकाला को पकड़ कर हाज़िर-ए-ख़िदमत कर देते। नवाब बहादुर चम-चमाती हुई बोझल आँखों से उसे देखते और फिर दहाड़ने लगते।

ऐशबाग में एक क़यामत बरपा थी। सब के सुरों पर मौत मंडला रही थी। तरह तरह के झुनझुने बजाय गए। बंदर नचाए गए मगर आला हज़रत किसी घस्से में आने को तैयार ना थे। नाम उन्हें कभी किसी औरत का याद ही नहीं रहता था। उसके जिस्म के टुकड़े याद रह जाते थे। लोगों ने उन्हें बेवक़ूफ़ बनाने की भी कोशिश की।

“ए क़ुर्बानत शूम हुज़ूर-ए-वाला, कल तो तरफ़ा ही हाज़िर-ए- ख़िदमत हुई थी।”
“तरफ़ा को हाज़िर किया जाये,” वो दहाड़ते। मगर जब ऐंडती बल खाती तरफ़ा उनकी आग़ोश में उंडेली गई तो वो बे-हिसाब दौलतीयाँ झाड़ने लगे। तरफ़ा और इस के लवाहिक़ीन की ख़ूब जूते कारी हुई। और फिर वो छम्मी के लिए एड़ीयां रगड़ने लगे।

जब सबकी जान सूली पर टंग गई तो अंजाम-कार उस के सिवा और कोई चारा ना रहा कि असल सूरत-ए-हाल से नवाब बहादुर को आगाह किया जाये। जब हुज़ूर-ए-वाला को मालूम हुआ कि वो फ़ित्ना रोज़गार-ए-उल्या हज़रत नवाब बेगम की निहायत चहेती मुँह बोली बेटी है और शाही ख़ानदान से है तो वो थोड़ी देर के लिए लचक कर रह गए। नवाब बेगम के मायके से वो कन्नी काटते थे। उनके दोनों साले इंतिहाई ख़ूँ-ख़्वार क़िस्म के थे। मगर फिर ख़ुद्दारी उमड़ने लगी। अच्छा तो नवाब बेगम से टक्कर है। दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाला बेगम की कोई वाज़ह सूरत याद ना आई… बरसों की बात थी बेगम, ना जाने कितने साल से उन पर भरपूर नज़र डालना ही छोड़ दी थी। जश्न जलूस के मौक़ा पर वो पत्थर बनी उनके पहलू में बैठी रहतीं, और नवाब बहादुर की नज़रें बादापैमाई में मसरूफ़ रहतीं।

जब नवाब बहादुर की सवारी पहुंची तो बेगम नवाब का दिल बुरी तरह धड़क रहा था। नवाब दूल्हा बारात लेकर आए थे तब भी इस तरह दिल नहीं धड़का था। यूं भी बड़ा फ़ासला था इन दो धड़कों में। बारात के वक़्त अरमानों और उमंगों की शहनाइयाँ भी तो हम-आहंग थीं। आज सिर्फ नफ़रत और हक़ारत का तूफ़ान खौल रहा था।

“जान-ए-मन, एक फ़ुज़ूल और बे-बुनियाद किस्म के वहम की बिना पर आप हमारी दिल-शिकनी पर तुली हुई हैं। ये भी कोई बात हुई कि जितने काले मेरे बाप के साले। रियासत के सारे हरामी पिल्लों से आपका ख़ून का रिश्ता जोड़ने पर उधार खाए बैठी हैं तो इतना समझ लीजे कि हम भी अपनी ज़िद के पक्के हैं। बात इतनी बढ़ गई है कि आपकी हट धर्मी हमारी सुबकी का बाइस हो रही है।”
“हुज़ूर यक़ीन फ़रमाईए। मैं मजबूर हूँ। मेरे हाथ बंधे हुए हैं। बेगम ने अदब से सर झुका कर कहा।” ये लौंडी का वहम नहीं हक़ीक़त है विलायत सिधारने से पहले ग़ज़नफ़र मियां ने इल्तिजा की थी… ख़ुदा उन्हें करवट करवट जन्नत नसीब करे,” ये नुक़्ता बड़े सोच बिचार के बाद ख़ानम साहब ने उन्हें समझाया था।

“वल्लाह, मज़ाक़ फ़र्मा रही हैं बेगम। अरे वो कमसिन नाज़ुक इंदाम छोकरा। हटाईए भी वो तो ख़ुद ही माशूक़ था।”
“क़ता कलामी होती है सरकार, मगर मरहूम की शान में ऐसे कलिमे आप जैसे बावक़ार हाकिम को जे़ब नहीं देते।” बेगम की आँखों में लावा खदबदाने लगा।
“हमारा मतलब है, वो तो ख़ुद ही बच्चे थे, मसें भी तो ना भीगी होंगी… ये हवाई जहाज़ों का सफ़र, तौबा तौबा!” नवाब साहब फ़ौरन ढीले पड़ गए। “ ख़ैर बेगम ज़िद छोड़िये और…”

“क़िबला-ए-आलम, ये मरने वाले की आख़िरी वसीयत का सवाल है। उनकी रूह को चैन नसीब ना होगा। मैं हश्र में उन्हें क्या मुँह दिखाऊँगी।”
“हम जानते हैं कि ये सब हमें ज़क पहुंचाने के लिए शोशे छोड़े जा रहे हैं।” नवाब साहब झल्ला उठे। “और फिर हम उसे बांदी नहीं बना रहे हैं। हम उसे निकाह में लाएँगे।” नवाब साहब होंटों पर ज़बान फेरने लगे।

“निकाह? मैं ने उसे बेटी कहा है और वो मेरी बेटी है। आपकी भी बेटी हुई, ये गुनाह-ए-अज़ीम…” बेगम की आँखों में शरारे लपकने लगे। “निकाह जायज़ ना होगा।”
“लाहौल वला क़ुव्वा। ये किस मर्दूद का फ़तवा है? क्यों सता रही हैं बेगम? आप ने बेटी कहा तो वो हम पर हराम हो गई? कौन सी शरीयत के हुक्म से?”

“मेरी ज़बान के क़ौल का पास आप पर भी उतना ही वाजिब है जितना मुझ पर।” लावा खदबदाने लगा। “उससे निकाह फ़रमाने के लिए मुझे तलाक़ देना होगी।”
“आप जानती हैं बेगम हम ऐसा नहीं कर सकते। आपके बिरादर अज़ीज़ हमारे ख़ून के प्यासे हो जाएंगे। सच्ची बात कहीये बेगम, इस बुढ़ापे में भी सौतिया डाह…”
“तौबा कीजीए हुज़ूर। अगर अगली पिछली सौतों का डाह करती तो बंदी कभी की ख़त्म हो चुकी होती। ये ना होगा।”

“यही होगा,” नवाब बहादुर अपने पूरे जलाल से खड़े हो गए। “आज शाम को बाद नमाज़-ए-मग़रिब।”
“आलीजाह, ऐसा ज़ुल्म ना कीजीए। आपको क्या कमी है? मेरी सूनी गोद का मान कीजीए।”
“बेगम हमें इतना ज़लील ना कीजीए, एक छोटे से वह’म की ख़ातिर हमारा दिल चकना-चूर किए देती हैं। हम मानते हैं उसकी रगों में आप का ख़ून है। हम उस का मान कर रहे हैं। हम निकाह करेंगे। और अगर ख़ुदा-ए-बरतर की इनायत-ओ-मेहरबानी से इस के बतन से नर बच्चा पैदा हुआ तो हमारी देरीना मुराद बर आयेगी और हमारा वलीअहद होगा।”

“कमाल फ़रमाते हैं आलीजाह, कल तो वो मुसाहिबों और पापोश बर्दारों के लाशे जगा रही थी। चोबदार उस की बोटीयां मसल रहे थे, तेरी मेरी गोद में हुमक रही थी, आज उसे निकाह का मर्तबा अता फ़र्मा रहे हैं!” बेगम बाज़ ना आईं।
कल की रंग-बिरंगी याद क़हक़हा बन कर नवाब बहादुर के हल्क़ से छलक गई। “क़हर है बेगम, एक क़यामत है ज़ालिम ने हमें कहीं का ना रखा… कहाँ है? ज़रा बुलवाइये तो अपनी लाडली को। अच्छा रहने दीजीए… ये हिज्र के लम्हे भी बड़े मज़ेदार हैं। क्या हम एक नज़र देख भी नहीं सकते? अल्लाह क़सम दूर से, बस, हाथ ना लगाएँगे” मगर बेगम की आँखों में उबलते हुए तूफ़ान ने उनकी ज़िंदा-दिली पर ओस डाल दी।

“ये उम्र, इस पर चोंचले।” मगर नवाब बहादुर सन्नी को टाल कर रुख़स्त हो गए।
अगर ख़ानम साहब ना समेट लेतीं तो बेगम नवाब रेज़ा रेज़ा हो जातीं। उन्हें सर पैर का होश ना रहा। कलेजा थाम कर वहीं ढेर हो गईं और कटी मुर्ग़ी की तरह फ़र्श पर लोटने लगीं।
“ये नहीं होगा। हरगिज़ नहीं होगा, मेरे जीते-जी नहीं होगा।”
“नहीं होगा, क़ुर्बान जाऊं मेरी शहज़ादी, नहीं होगा,” ख़ानम साहब की आँखों में सूरज जगमगा उठे।

दालान दर दालान में ज़रनिगार जोड़ों और जे़वरात के थाल यहां से वहां तक चुने हुए थे। बांदियां छम्मी उर्फ़ शगुफ़्ता बानो को धो फटक कर इत्र के पानी में बिसार ही थीं। मेहंदी रचे लाल लाल तलवे और हथेलियाँ देख देखकर छम्मी किलकारियां मार रही थीं। उसका ब्याह हो रहा है। जब दुल्हन सज-धज कर तैयार होगी तो छमछम करती नवाब बेगम की क़दम-बोसी को हाज़िर हुई। उन्होंने बड़ी हसरत से उसे सर से पैर तक निहारा। एक त्रिशूल सा कलेजे में उतरता चला गया। ग़ज़नफ़र अली ख़ां के अक्स पर एक और नन्ही सी तस्वीर सपरमपोज़ हो गई।

एक ना सही दो घाव सही। जब दिल ही क़ीमा हो चुका हो तो नए और पुराने सब ही ज़ख़्म एक हो जाते हैं। पास बिठाकर नवाब बेगम ने उसे बड़े प्यार से छुआ। दिमाग़ में तूफ़ान खौलने लगा। ख़ानम साहब ने मिठाई की तश्तरी पेश की, उन्हों ने बच्ची का मुँह मीठा कराया, बदनसीब ससुराल जाने के लिए बेक़रार थी।

जब छम्मी दुल्हनापे के नशे में झूमती चली तो उस के पांव बहके बहके पड़ रहे थे। गंगा जमनी झमाझम करती पालकी में जब वो सवार हुई और सुर्ख़ शबनमी पर्दे छोड़ दिए गए तो सारी महलसरा की लौंडियों के कलेजों पर साँप लौट गए। बेगम ने अपनी कोहनी का तिकोन बनाकर आँखों पर खड़ा कर लिया और सिसकने लगीं।

बड़ी धूम धाम से दुल्हन की सवारी दूल्हा की चौखट पर पहुंची… पालकी बीच बारहदरी में रख दी गई। नवाब साहब का दिल मस्त हिरन की तरह क़ुलांचें भर रहा था। कमसिन दूल्हाओं की तरह ठंडे पसीने छूट रहे थे। बस अब कोई दम में शबनमी बादलों के दरमियान से बिजली तड़प कर निकलेगी और ख़िर्मन-ए-हस्ती को फूंक देगी।

मोहरियों ने पर्दे उठाए, ना बिजली तड़पी, ना शोला लपका।
ढीली अँगूठीयों को उतरने से रोकने के लिए उसने कस के मुट्ठीयाँ भींच ली थीं सुकड़ी सिमटी पालकी के कोने में दुबकी बैठी थी, जैसे अचानक पल-भर के लिए ऊँघ गई हो, और अभी जाग पड़ेगी।

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