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ऋग्वेद का अर्थ/ परिभाषा 
चारों वेदों (ऋग्वेद, अथर्ववेद,यजुर्वेद और सामवेद ) में ऋग्वेद को ही सर्वोच्च स्थान प्राप्त है. ऋग्वेद को चारों वेदों में विश्व का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है. ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान ऋग्वेद सबसे पहला वेद है जो पद्यात्मक है. इसमें सबकुछ है. यह अपने आप में एक संपूर्ण वेद है. ऋग्वेद अर्थात् ऐसा ज्ञान, जो ऋचाओं में बद्ध हो. ऋग्वेद को वैदिक वाङ्मय में परम पूज्यनीय माना जाता है, इतना ही नहीं वसन्त पूजा आदि के अवसर पर वेदपाठ की शुरुआत ऋग्वेद से ही की जाती है. पुरुषसूक्त में आदि पुरुष से उत्पन्न वेदमन्त्रों में सर्वप्रथम ‘ऋक’ को गिनाया गया है. वस्तुत: ‘ऋक’ का अर्थ है- ‘स्तुतिपरक मन्त्र और ‘संहिता’ का अभिप्राय संकलन से है. अत: ऋचाओं के संकलन का नाम ‘ऋकसंहिता’ है. जान लें कि ऋग्वेद की संहिता को ‘ऋकसंहिता’ कहते हैं.

ऋग्वेद का परिचय
इसके 10 मंडल (अध्याय) में 1028 सूक्त है जिसमें 11 हजार मंत्र (10580) हैं. प्रथम और अंतिम मंडल समान रूप से बड़े हैं. उनमें सूक्तों की संख्या भी 191 है. दूसरे से सातवें मंडल तक का अंश ऋग्वेद का श्रेष्ठ भाग है. आठवें और प्रथम मंडल के प्रारम्भिक 50 सूक्तों में समानता है. इसका नवां मंडल सोम संबंधी आठों मंडलों के सूक्तों का संग्रह है. इसमें नवीन सूक्तों की रचना नहीं है. दसवें मंडल में प्रथम मंडल की सूक्त संख्याओं को ही बनाए रखा गया है लेकिन इस मंडल सभी परिवर्तीकरण की रचनाएं हैं. दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का जिक्र मिलता है. इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है. औषधि में सोम का विशेष वर्णन है. ऋग्वेद में कई ऋषियों द्वारा रचित विभिन्न छंदों में लगभग 400 स्तुतियां या ऋचाएं हैं. ये स्तुतियां अग्नि, वायु, वरुण, इन्द्र, विश्वदेव, मरुत, प्रजापति, सूर्य, उषा, पूषा, रुद्र, सविता आदि देवताओं को समर्पित हैं. ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के रचयिता अनेक ऋषि हैं जबकि द्वितीय के गृत्समय, तृतीय के विश्वासमित्र, चतुर्थ के वामदेव, पंचम के अत्रि, षष्ठम् के भारद्वाज, सप्तम के वसिष्ठ, अष्ठम के कण्व व अंगिरा, नवम् और दशम मंडल के अनेक ऋषि हुए हैं.

ऋक की परिभाषा
ऋक की परिभाषा इस प्रकार से दी गई है- ऋच्यन्ते स्तूयन्ते देवा अनया इति ऋक ; अर्थात जिससे देवताओं की स्तुति हो उसे ‘ऋक’ कहते हैें. एक दूसरी व्याख्या के अनुसार छन्दों में बंधी रचना को ‘ऋक’ नाम दिया जाता है. ब्राह्रण ग्रन्थों में ऋक को ब्रह्म, वाक, प्राण, अमृत आदि कहा गया है जिसका तात्पर्य यही है कि ऋग्वेद के मन्त्र ब्रह्म की प्रापित कराने वाले, वाक की प्रापित कराने वाले, प्राण या तेज की प्रापित कराने वाले और अमरत्व के साधन हैं. सामान्य रूप से इससे ऋग्वेद के मन्त्रों की महिमा का ग्रहण किया जाना चाहिए.

भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की प्राचीनतम रचना है ऋग्वेद
ऋग्वेद भारत की ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की प्राचीनतम रचना है. इसकी तिथि 1500 से 1000 ई.पू. मानी जाती है. सम्भवतः इसकी रचना सप्त-सैंधव प्रदेश में हुई थी. ऋग्वेद और ईरानी ग्रन्थ ‘जेंद अवेस्ता’ में समानता पाई जाती है. ऋग्वेद के अधिकांश भाग में देवताओं की स्तुतिपरक ऋचाएं हैं, यद्यपि उनमें ठोस ऐतिहासिक सामग्री बहुत कम मिलती है, फिर भी इसके कुछ मन्त्र ठोस ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध करते हैं. जैसे एक स्थान ‘दाशराज्ञ युद्ध‘ जो भरत कबीले के राजा सुदास एवं पुरू कबीले के मध्य हुआ था, का वर्णन किया गया है. भरत जन के नेता सुदास के मुख्य पुरोहित वसिष्ठ थे, जब कि इनके विरोधी दस जनों (आर्य और अनार्य) के संघ के पुरोहित विश्वामित्र थे. दस जनों के संघ में- पांच जनो के अतिरिक्त- अलिन, पक्थ, भलनसु, शिव तथ विज्ञाषिन के राजा सम्मिलित थे. भरत जन का राजवंश त्रित्सुजन मालूम पड़ता है, जिसके प्रतिनिधि देवदास एवं सुदास थे. भरत जन के नेता सुदास ने रावी (परुष्णी) नदी के तट पर उस राजाओं के संघ को पराजित कर ऋग्वैदिक भारत के चक्रवर्ती शासक के पद पर अधिष्ठित हुए. ऋग्वेद में, यदु, द्रुह्यु, तुर्वश, पुरू और अनु पांच जनों का वर्णन मिलता है.

ऋग्वेद की रचना कब हुई?
इसके रचना काल के बारे में विद्वानों में शताब्दियों के स्थान पर सहस्राब्दियों का अन्तर है. कुछ लोग इसका रचना-काल 1000 ई०पू० के लगभग बताते हैं. कुछ विद्वान इसकी तिथि 3000 और 2500 ई०पू० के लगभग बताते हैं. कुछ विद्वान इसकी तिथि 3000 और 2500 ई०पू० के मध्य निश्चित करते हैं.
प्रो० मैक्स मूलर (Max Mueller) का मत था कि ऋग्वेद की रचना 1000 ई०पू० तक पूर्ण हो गई होगी. उन्होंने ब्राह्मण काल के लिए 200 वर्ष निर्धारित किए, 200 वर्ष मन्त्र-काल के लिए और 200 वर्ष स्वयं ऋग्वेद की रचना के लिए. गिफर्ड भाषण-माला के अन्तर्गत भौतिक धर्म सम्बन्धी 1889 के अपने भाषण में प्रो० मैक्स मुल्लर ने कहा था, “हम यह नहीं कह सकते कि इसकी रचना कब शुरू हुई. वैदिक श्लोकों की रचना ईसा से 1000, 1500, 2000 या 3000 वर्ष पूर्व हुई, यह निश्चय करना संसार की किसी शक्ति के लिए सम्भव न होगा.”
यह कहा गया है कि वेदों की उत्पत्ति के विभिन्न साहित्यिक युगों में से प्रत्येक के लिए 200 वर्ष निर्धारित करना केवल साहित्यिक है. विद्वान आजकल प्रो० मैक्स मुलर के विचार को स्वीकार नहीं करते.
जे० हैर्तल (J. Hertel) के विचार हैं कि ऋग्वेद का आरम्भ उत्तर-पश्चिमी भारत में नहीं बल्कि ईरान में हुआ. वह समय जोरोस्टर के समय से अधिक दूर नहीं था. जोरोस्टर का काल 550 ई०पू० के लगभग था.

डॉ. विण्टरनिट्ज़ का विचार है कि नक्षत्रीय गणना के आधार पर ऋग्वेद की आयु का निर्णय करने की चेष्टाएँ अवश्य ही असफल होंगी क्योंकि इस वेद के कई परिच्छेदों के एक से अधिक अर्थ निकाले जा सकते हैं. नक्षत्रीय गणनाएँ तो ठीक हो सकती हैं लेकिन सम्बन्धित वैदिक सन्दर्भों की निश्चित रूप से व्याख्या नहीं की जा सकती. उनके विभिन्न अर्थ निकाले जा सकते हैं, इसलिए उनके आधार पर कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता. वेदों और जैन्द-अवेस्ता 1. के परस्पर सम्बन्ध और उसी प्रकार वैदिक भाषा तथा प्राचीन संस्कृत के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में भाषा के तथ्य किसी वास्तविक परिणाम पर नहीं पहुँचाते. वे केवल यही काम करते हैं कि उनकी उपस्थिति के कारण नक्षत्रीय गणनाओं 44 और भूगर्भीय कल्पनाओं के आधार पर वेदों को हम बहुत प्राचीनता प्रदान नहीं करते. विण्टरनिट्ज़ ने लिखा है : “इस विकास का आरम्भ हमें शायद 2000 या 2500 ई०पू० के लगभग निश्चित करना होगा और अन्त में 750 और 500 ई०पू० के मध्य में. किन्तु सबसे अच्छा रास्ता तो यह है कि किसी भी निश्चित तिथि से बच कर ही निकल जाना चाहिए और बहुत ही पुराने और बहुत ही नये युग के उग्र विचारों से दूर रहना चाहिए.”
यदि निष्कर्षतः देखें तो उपरोक्त तर्कों अथवा मतों के आलोक में यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऋग्वेद की रचना के कालानुक्रम का वास्तविक व सटीक जानकारी कर पाना मुश्किल है. किंतु उक्त मतों के अनुसार यदि बात करें तो ऋग्वेद की रचना को 1800 ई.पू. से 1200 ई.पू. के मध्य माना जा सकता है.
यदि इस तिथि को और clearify करें तो इसे 1500ई०पू० से 1200 ई०पू० के अंतर्गत रखा जा सकता है.
किन्तु ज्ञातव्य है कि 1000 ई०पू० के आस पास ऋग्वेद संहिता में कुछ महत्वपूर्ण सुधार हुए. अतः कुछ विद्वान ऋग्वेद के रचना की तिथि को 1500 ई० पू० से 1000 ई० पू० रखते हैं जो कि अब तक कि सर्वमान्य तिथि है. तथा इसी काल (1500-1000 ई.पू.) को ऋग्वैदिक काल भी कहा जाता है.

ऋग्वेद की शाखाएं
पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार ऋग्वेद की कदाचित 21 शाखाएं थीं. इनमें से ‘चरणव्यूह’ नामक ग्रन्थ में उल्लखित ये पांच शाखाएं प्रमुख मानी जाती हैं- शाकल, वाष्कल, आश्वलायनी, शांखायनी और माण्डूकायनी. सम्प्रति ऋग्वेद की एक शाकल शाखा की संहिता ही प्राप्त होती है. यह संहिता कर्इ दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है.

ऋग्वेद का विभाजन
ऋग्वेद की संहिता ऋचाओं का संग्रह है. ऋकसंहिता का विभाजन दो प्रकार से किया जाता है- (1) अष्टक-क्रम और (2) मण्डल-क्रम. बता दें कि अष्टक क्रम के अन्तर्गत सम्पूर्ण संहिता आठ अष्टकों में विभाजित है और प्रत्येक अष्टक में आठ अध्याय हैं. अध्याय वर्गों में विभाजित हैं और वर्ग के अन्तर्गत ऋचाएं हैं. कुल अध्यायों की संख्या 64 और वर्गों की संख्या 2006 है. वहीं मण्डल-क्रम में सम्पूर्ण संहिता में दस मण्डल हैं. प्रत्येक मण्डल में कई अनुवाक, प्रत्येक अनुवाक में कई सूक्त और प्रत्येक सूक्त में कई मन्त्र हैं. तदनुसार ऋग्वेद-संहिता में 10 मण्डल, 85 अनुवाक, 1028 सूक्त और 10552 मन्त्र हैं. इस प्रकार ऋग्वेद की मन्त्र-संहिता के विभाजन की एक सुन्दर और निश्चित व्यवस्था प्राप्त होती है.

ऋग्वेद संहिता के कुछ प्रमुख सूक्त
ऋग्वेद-संहिता के सूक्तों को वर्ण्य-विषय और शैली के आधार पर प्राय: इस प्रकार विभाजित किया जाता है-
(1) देवस्तुतिपरकसूक्त
(2) दार्शनिक सूक्त
(3) लौकिक सूक्त
(4) संवाद सूक्त
(5) आख्यान सूक्त आदि.

कुछ प्रमुख सूक्त, जो अत्यधिक लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण हैं, उनका संक्षिप्त परिचय इस संहिता के व्यापक विषय पर प्रकाश डालता है.
(1) पुरुष सूक्त – ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल का 90 संख्यक सूक्त ‘पुरुषसूक्त कहलाता है क्योंकि इसका देवता पुरुष है. इसमें पुरुष के विराट रूप का वर्णन है और उससे होने वाली सृषिट की विस्तार से चर्चा की गयी है. इस पुरुष को हजारों सिर, हजारों पैरों आदि से युक्त बताया गया है. इसी से विश्व के विविèा अंग और चारों वेदों की उत्पत्ति कही गयी है. सर्वप्रथम चार वणो± के नामों का उल्लेख ऋग्वेद के इसी सूक्त में मिलता है. यह सूक्त उदात्तभावना, दार्शनिक विचार और रूपकात्मक शैली के लिए अति प्रसिद्ध है.
(2) नासदीय सूक्त – ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल के 129वें सूक्त को ‘नासदीय सूक्त या ‘भाववृत्तम सूक्त कहते हैं. इसमें सृषिट की उत्पत्ति की पूर्व अवस्था का चित्रण है और यह खोजने का यत्न किया गया है कि जब कुछ नहीं था तब क्या था. तब न सत था, न असत, न रात्रि थी, न दिन था; बस तमस से घिरा हुआ तमस था. फिर सर्वप्रथम उस एक तत्त्व में ‘काम उत्पन्न हुआ और उसका यही संकल्प सृषिट के नाना रूपों में अभिव्यक्त हो गया. पर अन्त में सन्देह किया गया है कि वह परम व्योम में बैठने वाला एक अèयक्ष भी इस सबको जानता है या नहीं. अथवा यदि जानता है तो वही जानता है और दूसरा कौन जानेगा?

(3) हिरण्यगर्भ सूक्त – इस संहिता के दशम मण्डल के 121वें सूक्त को ‘हिरण्यगर्भ सूक्त’ कहते हैं क्योंकि इसका देवता हिरण्यगर्भ है. नौ मन्त्रों के इस सूक्त में प्रत्येक मन्त्र में ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ कहकर यह बात दोहरार्इ गयी है कि ऐसे महनीय हिरण्यगर्भ को छोड़कर हम किस अन्य देव की आराधना करेंं? हमारे लिए तो यह ‘क’ संज्ञक प्रजापति ही सर्वाधिक पूजनीय है. इस हिरण्यगर्भ का स्वरूप, महिमा और उससे होने वाली उत्पत्ति का विवरण इस सूक्त में बड़े सरल और स्पष्ट शब्दों में किया गया है. हिरण्यगर्भ ही सृष्टि का नियामक और धर्ता है.
(4) संज्ञान सूक्त – ऋग्वेदसंहिता के दशम मण्डल के 191वें संख्यक सूक्त को संज्ञान सूक्त कहते हैं. इसमें कुल 8 मन्त्र हैं, पर ऋग्वेद का यह अनितम मन्त्र अपने उदात्त विचारों और सांमनस्य के सन्देश के कारण मानवीय समानता का आदर्श माना जाता है. हम मिलकर चले, मिलकर बोलें, हमारे हृदयों में समानता और एकता हो-यह कामना किसी भी समाज या संगठन के लिए एकता का सूत्र है.

(5) अक्ष सूक्त – ऋग्वेद के दशम मण्डल के 34वें सूक्त को ‘अक्ष सूक्त’ कहते हैं. यह एक लौकिक सूक्त है. इसमें कुल 14 मन्त्र हैं. अक्ष क्रीड़ा की निन्दा करना और परिश्रम का उपदेश देना- इस सूक्त का सार है. एक निराश जुआरी की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण इसमें दिया गया है जो घर और पत्नी की दुर्दशा को समझकर भी जुए के वशीभूत होकर अपने को उसके आकर्षण से रोक नहीं पाता है और फिर सबका अपमान सहता है और अपना सर्वनाश कर लेता है. अन्त में, सविता देवता से उसे नित्य परिश्रम करने और कृषि द्वारा जीविकोपार्जन करने की प्रेरणा प्राप्त होती है.
(6) विवाह सूक्त – ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के 85वें सूक्त को विवाहसूक्त नाम से जाना जाता है. अथर्ववेद में भी विवाह के दो सूक्त हैं. इस सूक्त में सूर्य की पुत्री ‘सूर्या तथा सोम के विवाह का वर्णन है. अशिवनी कुमार इस विवाह में सहयोगी का कार्य करते हैं. यहां स्त्री के कर्तव्यों का विस्तार से वर्णन है. उसे सास-ससुर की सेवा करने का उपदेश दिया गया है. परिवार का हित करना उसका कर्तव्य है. साथ ही स्त्री को गृहस्वामिनी, गृहपत्नी और ‘साम्राज्ञी’ कहा गया है. अत: स्त्री को परिवार में आदरणीय बताया गया है.

(7) कुछ मुख्य आख्यानसूक्त – ऋग्वेदसंहिता में कर्इ सूक्तों में कथा जैसी शैली मिलती है और उपदेश या रोचकता उसका उद्देश्य प्रतीत होता है. कुछ प्रमुख सूक्त जिनमें आख्यान की प्रतीति होती है इस प्रकार हैं- श्वावाश्र सूक्त (5-61), मण्डूक सूक्त (7-103), इन्द्रवृत्र सूक्त (1-80, 2-12), विष्णु का त्रिविक्रम (1-154); सोम सूर्या विवाह (10-85). वैदिक आख्यानों के गूढ़ार्थ की व्याख्या विद्वानों द्वारा अनेक प्रकार से की जाती है.
(8) कुछ मुख्य संवादसूक्त – वे सूक्त, जिनमें दो या दो से अधिक देवताओं, ऋषियों या किन्हीं और के मध्य वार्तालाप की शैली में विषय को प्रस्तुत किया गया है, प्राय: संवादसूक्त कहलाते हैं. कुछ प्रमुख संवाद सूक्त इस प्रकार हैं-
पुरूरवा-उर्वशी-संवाद ऋ. 10/95
यम-यमी-संवाद ऋ. 10/10
सरमा-पणि-संवाद ऋ. 10/108
विश्वामित्र-नदी-संवाद ऋ. 3/33
वशिष्ठ-सुदास-संवाद ऋ. 7/83
अगस्त्य-लोपामुद्रा-संवाद ऋ. 1/179
इन्द्र-इन्द्राणी-वृषाकपि-संवाद कं. 10/86
संवाद सूक्तों की व्याख्या और तात्पर्य वैदिक विद्वानों का एक विचारणीय विषय रहा है; क्योंकि वार्तालाप करने वालों को मात्र व्यक्ति मानना सम्भव नहीं है. इन आख्यानों और संवादों में निहित तत्त्वों से उत्तरकाल में साहित्य की कथा और नाटक विधाओं की उत्पत्ति हुर्इ है. इसके अतिरिक्त, आप्रीसूक्त, दानस्तुतिसूक्त, आदि कुछ दूसरे सूक्त भी अपनी शैली और विषय के कारण पृथक रूप से उलिलखित किये जाते हैं.
इस प्रकार ऋग्वेद की संहिता वैदिक देवताओं की स्तुतियों के अतिरिक्त दर्शन, लौकिक ज्ञान, पर्यावरण, विज्ञान, कथनोपकथन आदि अवान्तर विषयों पर भी प्रकाश डालने वाला प्राचीनतम आर्ष ग्रन्थ है. धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और दार्शनिक दृषिट से अत्यन्त सारगर्भित सामग्री को प्रस्तुत करने के साथ-साथ यह साहितियक और काव्य-शास्त्रीय दृषिट से भी विशिष्ट तथ्यों को उपस्थापित करने वाला महनीय ग्रन्थरत्न है.

ऋग्वेद-संहिता के ऋषि
ऋग्वेद-संहिता के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों पर यदि ध्यान दिया जाए, तो हम पाते हैं कि दूसरे से सातवें मण्डल के अन्तर्गत समाविष्ट मन्त्र किसी एक ऋषि के द्वारा ही साक्षात्कार किये गये हैं. इसीलिए ये मण्डल वंशमंडल कहलाते हैं. इन मण्डलों को दूसरे मण्डलों की तुलना में प्राचीन माना जाता है. यद्यपि कई विद्वान इस मत से असहमत भी हैं. आठवें मण्डल में कण्व, भृगु आदि कुछ परिवारों के मन्त्र संकलित हैं. पहले और दसवें मण्डल में सूक्त-संख्या समान हैं. दोनों में 191 सूक्त ही हैं. इन दोनों मण्डलों की उल्लेखयोग्य विशेषता यह भी है कि इसमें अनेक ऋषियों के द्वारा साक्षात्कार किये गये मन्त्रों का संकलन किया गया है. पहले और दसवें मण्डल में विभिन्न विषयों के सूक्त हैं. प्राय: विद्वान इन दोनों मण्डलों को अपेक्षाकृत अर्वाचीन मानते हैं. नवां मण्डल भी कुछ विशेष महत्त्व लिये हुए है. इसमें सोम देवता के समस्त मन्त्रों को संकलित किया गया है. इसीलिए इसका दूसरा प्रचलित नाम है- पवमान मण्डल.

सुविधा के लिए ऋग्वेद की संहिता के मण्डल, सूक्तसंख्या और ऋषिनामों का विवरण निम्नलिखित तालिका में दिया जा रहा है-
मण्डल सूक्त संख्या महर्षियों के नाम
1. 191 मधुच्छन्दा: , मेधातिथि, दीर्घतमा:, अगस्त्य, गोतम, पराशर आदि.
2. 43 गृत्समद एवं उनके वंशज
3. 62 विश्वामित्र एवं उनके वंशज
4. 58 वामदेव एवं उनके वंशज
5. 87 अत्रि एवं उनके वंशज
6. 75 भरद्वाज एवं उनके वंशज
7. 104 वशिष्ठ एवं उनके वंशज
8. 103 कण्व, भृगु, अंगिरा एवं उनके वंशज
9. 114 ऋषिगण, विषय-पवमान सोम
10. 191 त्रित, विमद, इन्द्र, श्रद्धा, कामायनी इन्द्राणी, शची आदि.
इन मन्त्रों के द्रष्टा-ऋषियों में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, वसिष्ठ, भृगु और अंगिरा प्रमुख हैं. कर्इ वैदिक नारियां भी मन्त्रों की द्रष्टा रही हैें. प्रमुख ऋषिकाओं के रूप में वाक आम्भृणी, सूर्या, सावित्री, सार्पराज्ञी, यमी, वैवस्वती, उर्वशी, लोपामुद्रा, घोषा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं.

ऋग्वेद संहिता के छन्द
ऋग्वेद संहिता में कुल 20 छन्दों का प्रयोग हुआ है. इनमें भी प्रमुख छन्द सात हैं. ये हैं-
1. गायत्री – 24 अक्षर
2. उषिणक – 28 अक्षर
3. अनुष्टुप – 32 अक्षर
4. बृहती – 36 अक्षर
5. पंकित – 40 अक्षर
6. त्रिष्टुप – 44 अक्षर
7. जगती – 48 अक्षर
इनमें भी इन चार छन्दों के मन्त्रों की संख्या इस संहिता में सबसे अधिक पार्इ जाती है- त्रिष्टुप, गायत्री, जगती और अनुष्टुप.

ऋग्वेद संहिता का वर्ण्य-विषय
ऋग्वेद में तत्कालीन समाज की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व्यवस्था तथा संस्थाओं का विवरण है. इसमें उनके दार्शनिक, आध्यात्मिक कलात्मक तथा वैज्ञानिक विचारों का समावेश भी है. वेदकालीन ऋषियों के जीवन में देवताओं और देव-आराधना को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था. ऋग्वेद का प्रत्येक मन्त्र किसी न किसी देवता से सम्बद्ध है. यथार्थ में देवता से तात्पर्य वर्ण्य विषय का है. तभी छुरा और ऊखल जैसी वस्तुएं भी देवता है. अक्ष और कृषि भी देवता हैं.
ऋग्वेद की संहिता में देवस्तुति की प्रधानता है. अगिन, इन्द्र, मरुत, उषा, सोम, अशिवनौ आदि नाना देवताओं की कई-कई सूक्तों में स्तुतियां की गर्इ हैं. सबसे अधिक सूक्त इन्द्र देवता की स्तुति में कहे गये हैं और उसके बाद संख्या की दृष्टि से अग्नि के सूक्तों का स्थान है. अत: इन्द्र और अगिन वैदिक आर्यों के प्रधान देवता प्रतीत होते हैं. कुछ सूक्तों में मित्रवरुणा, इन्द्रवायू, धावापृथिवी जैसे युगल देवताओं की स्तुतियां हैं. अनेक देवगण जैसे आदित्य, मरुत, रुद्र, विश्वेदेवा आदि भी मन्त्रों में स्तवनीय हैं. देवियों में उषा और अदिति का स्थान अग्रगण्य है.
ऋकसंहिता में देवस्तुतियों के अतिरिक्त कुछ दूसरे विषयों पर भी सूक्त हैं, जैसे जुआरी की दुर्दशा का चित्रण करने वाला ‘अक्षसूक्त’, वाणी और ज्ञान के महत्त्व को प्रतिपादित करने वाला ‘ज्ञानसूक्त’, यम और यमी के संवाद को प्रस्तुत करने वाला ‘यमयमी-संवादसूक्त’, पुरूरवा और उर्वशी की बातचीत पर प्रकाश डालने वाला ‘पुरूरवाउर्वशी-संवादसूक्त’ आदि.
विषय की गम्भीरता को दर्शाने वाले सूक्तों में दार्शनिक सूक्तों को गिना जा सकता है, जैसे पुरुषसूक्त, हिरण्यगर्भसूक्त, नासदीयसूक्त आदि. इनमें सृष्टि-उत्पत्ति और उसके मूलकारण को लेकर गूढ़ दार्शनिक विवेचन किया गया है. औषधिसूक्त में नाना प्रकार की औषधियों के रूप, रंग और प्रभाव का विवरण है.

ऋग्वेद की संहिता का महत्त्व
सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय का प्राचीनतम ग्रन्थ होने के कारण इस (शाकल) संहिता को विश्वसाहित्य का प्रथम ग्रन्थ होने का गौरव प्राप्त है. चारों वेदों की संहिताओं की तुलना में यह सबसे बड़ी संहिता है. एक विशालकाय वैदिक ग्रन्थ के रूप में यह अद्भुत और विविध ज्ञान का स्रोत है. भाव, भाषा और छन्द की दृषिट से भी यह अत्यन्त प्राचीन है. इसमें अधिकांश देव इन्द्र, विष्णु, मरुत आदि प्राकृतिक तत्त्वों के प्रतिनिधि हैं. ये पंचतत्त्वों- अगिन, वायु, आदि तथा मेघ, विद्युत, सूर्य आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं. सभी वेदों और ब्राह्राण ग्रन्थों में ऋग्वेद या इसकी संहिता का ही नाम सर्वप्रथम गिनाया जाता है. फिर अनेक विषयों की व्यापक चर्चा करने के कारण इस संहिता का वर्ण्यविषयपरक महत्त्व भी स्वीकार किया जाता है.

ऋग्वेद से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य-

  • ऋग्वेद के सूक्तों के पुरुष रचियताओं में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ आदि प्रमुख हैं.
  • सूक्तों के स्त्री रचयिताओं में लोपामुद्रा, घोषा, शची, कांक्षावृत्ति, पौलोमी आदि प्रमुख हैं.
  • ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 95 सूक्त में पुरुरवा,ऐल और उर्वसी का संवाद है.
  • इस वेद में आर्यों के निवास स्थल के लिए सभी जगह सप्त सिन्धवः शब्द का प्रयोग हुआ है.
  • इसमें गंगा का प्रयोग एक बार तथा यमुना का प्रयोग तीन बार हुआ है.
  • ऋग्वेद में कुछ अनार्यों जैसे -कीकातास, पिसाकास, सीमियां आदि के नामों का उल्लेख हुआ है.
  • ऋग्वेद में राजा का पद वंशानुगत होता था.
  • ऋग्वेद में वाय शब्द का प्रयोग जुलाहा तथा ततर शब्द का प्रयोग करघा के अर्थ में हुआ है.
  • इस वेद लगभग 25 नदियों का उल्लेख किया गया है जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण नदी सिंधु का वर्णन अधिक है, तथा सर्वाधिक पवित्र नदी सरस्वती को माना गया है तथा सरस्वती का उल्लेख भी कई बार हुआ है.
  • ऋग्वेद में सूत, रथकार तथा कर्मार नामों का उल्लेख हुआ है, जो राज्याभिषेक के समय पर उपस्थित रहते थे. इन सभी की संख्या राजा को मिलाकर 12 थी.
  • ऋग्वेद में 33 देवी देवताओं का उल्लेख है . इस वेद में अग्नि को आशीर्षा, अपाद, घृतमुख, घृत पृष्ठ, घृत-लोम, अर्चिलोम तथा वभ्रलोम कहा गया है.
  • “असतो मा सद् गमय” वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है. सूर्य से संबंधित देवी सावित्री को सम्बोधित “गायत्री मंत्र” ऋग्वेद में उल्लेखित है.
  • ऋग्वेद के एक मंडल में केवल एक ही देवता की स्तुती में श्लोक हैं, वह सोम देवता है.
  • ऋग्वेद के 9वें मंडल में सोम रस की प्रशंसा की गई है. इसी वेद में गाय के लिए अहन्या शब्द का प्रयोग किया गया है.
  • इस वेद में हिरण्यपिण्ड का वर्णन किया गया है. इस वेद में तक्षन् अथवा त्वष्ट्रा का वर्णन किया गया है.
  • आश्विन का वर्णन भी ऋग्वेद में कई बार हुआ है. आश्विन को नासत्य (अश्विनी कुमार) भी कहा गया है.
  • ऋग्वेद में इंद्र को सर्वमान्य तथा सबसे अधिक शक्तिशाली देवता माना गया है. इन्द्र की स्तुती में ऋग्वेद में 250 ऋचाएँ हैं.
  • इस वेद के 7वें मंडल में सुदास तथा दस राजाओं के मध्य हुए युद्ध का वर्णन किया गया है,जो कि पुरुष्णी (रावी) नदी के तट पर लङा गया , इस युद्ध में सुदास की जीत हुई .
  • ऋग्वेद में ऐसी कन्याओं के उदाहरण मिलते हैं , जो दीर्घकाल तक या फिर आजीवन अविवाहित रहती थी . इन कन्याओं को अमाजू कहा जाता था.
  • इस वेद में कपङे के लिए वस्त्र, वास तथा वसन शब्दों का उल्लेख किया गया है. इस वेद में भिषक् को देवताओं का चिकित्सक कहा गया है.
  • ऋग्वेद में अनार्यों के लिए अव्रत(व्रतों का पालन न करने वाला), मृद्धवाच(अस्पष्ट वाणी बोलने वाला), अनास(चपटी नाक वाले) कहा गया है.
  • ऋग्वेद में जन का उल्लेख 275 बार तथा विश का 170 बार उल्लेख किया गया है.
  • ऋग्वेद में आर्यों के पांच कबीले होने के कारण पंचजन्य कहा गया – ये थे-पुरु, यदु, अनु, तुर्वशु तथा द्रहयु.
  • इस वेद में केवल हिमालय पर्वत तथा इसकी एक चोटी मुजवंत का उल्लेख हुआ है.
  • ऋग्वेद में कृषि का उल्लेख 24 बार हुआ है. इस वेद में सूर्या, उषा तथा अदिति जैसी देवियों का वर्णन किया है.
  • इस वेद में बहुदेववाद, एकेश्वरवाद, एकात्मवाद का उल्लेख है.
  • ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में निर्गुण ब्रह्म का वर्णन है.

ऋग्वेद में उल्लेखित नदियाँ-
ऋग्वेद में 25 नदियों का उल्लेख है, जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण नदी सिन्धु नदी है, जिसका वर्णन कई बार आया है. यह सप्त सैन्धव क्षेत्र की पश्चिमी सीमा थी. क्रुमु (कुरुम),गोमती (गोमल), कुभा (काबुल) और सुवास्तु (स्वात) नामक नदियां पश्चिम किनारे में सिन्धु की सहायक नदी थीं. पूर्वी किनारे पर सिन्धु की सहायक नदियों में वितास्ता (झेलम) आस्किनी (चेनाब), परुष्णी (रावी), शतुद्र (सतलज), विपासा (व्यास) प्रमुख थी. विपास (व्यास) नदी के तट पर ही इन्द्र ने उषा को पराजित किया और उसके रथ को टुकड़े-टुकड़े कर दिया. सिन्धु नदी को उसके आर्थिक महत्व के कारण हिरण्यनी कहा गया है. सिन्धु नदी द्वार ऊनी वस्त्रों के व्यवसाय होने का कारण इसे सुवासा और ऊर्पावर्ती भी कहा गया है. ऋग्वेद में सिन्धु नदी की चर्चा सर्वाधिक बार हुई है.

सरस्वती- ऋग्वेद में सरस्वती नदी को नदियों की अग्रवती, नदियों की माता, वाणी, प्रार्थना एवं कविता की देवी, बुद्धि को तीव्र करने वाली और संगीत प्रेरणादायी कहा गया है. सरस्वती ऋग्वेद की सबसे पवित्र नदी मानी जाती थी. इसे नदीतमा (नदियों की माता) कहा गया. सरस्वती जो अब राजस्थान की रेगिस्तान में विलीन हो गई है. इसकी जगह अब घग्घर नदी बहती है.
दृषद्वती (आधुनिक चितंग अथवा घग्घर) यह सिन्धु समूल की नदी नहीं थी.
आपया- यह दृषद्वती एवं सरस्वती नदी के बीच में बहती थी.
सरयू- यह गंगा की सहायक नदी थी. ऋग्वेद के अनुसार संभवतः यदु एवं तुर्वस के द्वारा चित्ररथ और अर्ण सरयू नदी के किनारे ही पराजित किए गए थे.
यमुना- ऋग्वेद में यमुना की चर्चा तीन बार की गयी हैं.
गंगा- गंगा का उल्लेख ऋग्वेद में एक ही बार हुआ है. नदी सूक्त की अन्तिम नदी गोमती है.
प्राचीन नाम      –     आधुनिक नाम
क्रुभु                    –        कुर्रम
कुभा                   –       काबुल
वितस्ता               –       झेलम
आस्किनी           –       चिनाव
परुष्णी               –       रावी
शतद्रि                 –       सतलुज
विपाशा               –         व्यास
सदानीरा             –       गंडक
दृषद्वती                –       घग्घर
गोमती                 –     गोमल
सुवास्तु                –         स्वात
सिंधु                       –     सिन्ध
सरस्वती / दृशद्वर्ती  –    घघ्घर / रक्षी / चित्तग
सुषोमा                   –     सोहन
मरुद्वृधा               –      मरुवर्मन

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