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यक्ष-युधिष्ठिर संवाद
पाण्डव द्रौपदी सहित वन में पर्णकुटि बनाकर रहने लगे। वे कुछ दिनों तक काम्यकवन में रहने के पश्चात द्वैतवन में चले गये। वहाँ एक बार जब पाँचों भाई भ्रमण कर रहे थे तो उन्हें प्यास सताने लगी। युधिष्ठिर ने नकुल को आज्ञा दी- “हे नकुल! तुम जल ढूँढकर ले आओ।”
नकुल जल की तलाश में एक जलाशय के पास चले आये, किन्तु जैसे ही जल लेने के लिए उद्यत हुए, सरोवर किनारे वृक्ष पर बैठा एक बगुला बोला- “हे नकुल! यदि तुम मेरे प्रश्नों के उत्तर दिये बिना इस सरोवर का जल पियोगे तो तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी।” नकुल ने उस बगुले की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और सरोवर से जल लेकर पी लिया। जल पीते ही वे भूमि पर गिर पड़े।
नकुल के आने में विलंब होते देख युधिष्ठिर ने क्रम से अन्य तीनों भाइयों- सहदेव, अर्जुन तथा भीम को भेजा और उन सभी का भी नकुल जैसा ही हाल हुआ।
अन्ततः युधिष्ठिर स्वयं जलाशय के पास पहुँचे। उन्होंने देखा कि वहाँ पर उनके सभी भाई मृतावस्था में पड़े हुए हैं। वे अभी इस दृश्य को देखकर आश्चर्यचकित ही थे कि वृक्ष पर बैठे बगुले का स्वर उन्हें सुनाई दिया- “हे युधिष्ठिर! मैं यक्ष हूँ। मैंने तुम्हारे भाइयों से कहा था कि मेरे प्रश्नों का उत्तर देने के पश्चात ही जल लेना, किन्तु वे न माने और उनका यह परिणाम हुआ। अब तुम भी यदि मेरे प्रश्नों का उत्तर दिये बिना जल ग्रहण करने का प्रयत्न करोगे तो तुम्हारा भी यही हाल होगा।”
बगुला रूपी यक्ष की बात सुनकर युधिष्ठिर बोले- “हे यक्ष! मैं आपके अधिकार की वस्तु को कदापि नहीं लेना चाहता। आप अब अपना प्रश्न पूछिये।”
यक्ष ने पूछा- “सूर्य को कौन उदित करता है? उसके चारों ओर कौन चलते हैं? उसे अस्त कौन करता है और वह किसमें प्रतिष्ठित है?”
युधिष्ठिर ने उत्तर में कहा- “हे यक्ष! सूर्य को ब्रह्म उदित करता है। देवता उसके चारों ओर चलते हैं। धर्म उसे अस्त करता है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है।”
यक्ष ने पुनः पूछा- “मनुष्य श्रोत्रिय कैसे होता है? महत पद किसके द्वारा प्राप्त करता है? किसके द्वारा वह द्वितीयवान (ब्रह्मरूप) होता है और किससे बुद्धिमान होता है?”
युधिष्ठिर का उत्तर था- “श्रुति के द्वारा मनुष्य श्रोत्रिय होता है। स्मृति से वह महत प्राप्त करता है। तप के द्वारा वह द्वितीयवान होता है और गुरुजनों की सेवा से वह बुद्धिमान होता है।”
यक्ष का अगला प्रश्न था- “ब्राह्मणों में देवत्व क्या है? उनमें सत्पुरुषों जैसा धर्म क्या है? मानुषी भाव क्या है और असत्पुरुषों का सा आचरण क्या है?”
इन प्रश्नों के उत्तर में युधिष्ठिर बोले- “वेदों का स्वाध्याय ही ब्राह्मणों में देवत्व है। उनका तप ही सत्पुरुषों जैसा धर्म है। मृत्यु मानुषी भाव है और परनिन्दा असत्पुरुषों का सा आचरण है।”
यक्ष ने फिर पूछा- “कौन एक वस्तु यज्ञीय साम है? कौन एक वस्तु यज्ञीय यजुः है? कौन एक वस्तु यज्ञ का वरण करती है और किस एक का यज्ञ अतिक्रमण नहीं करता?”
युधिष्ठिर बोले- “प्राण एक वस्तु यज्ञीय साम है। मन एक वस्तु यज्ञीय यजुः है। एक मात्र ऋक् ही यज्ञ का वरण करती है और एक मात्र ऋक् का ही यज्ञ अतिक्रमण नहीं करता।”
यक्ष प्रश्न : कौन हूं मैं?
युधिष्ठिर उत्तर : तुम न यह शरीर हो, न इन्द्रियां, न मन, न बुद्धि। तुम शुद्ध चेतना हो, वह चेतना जो सर्वसाक्षी है।
यक्ष प्रश्न: जीवन का उद्देश्य क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: जीवन का उद्देश्य उसी चेतना को जानना है जो जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है। उसे जानना ही मोक्ष है।
यक्ष प्रश्न: जन्म का कारण क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: अतृप्त वासनाएं, कामनाएं और कर्मफल ये ही जन्म का कारण हैं।
यक्ष प्रश्न: जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त कौन है?
युधिष्ठिर उत्तर: जिसने स्वयं को, उस आत्मा को जान लिया वह जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है।
यक्ष प्रश्न:- वासना और जन्म का सम्बन्ध क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर:- जैसी वासनाएं वैसा जन्म। यदि वासनाएं पशु जैसी तो पशु योनि में जन्म। यदि वासनाएं मनुष्य जैसी तो मनुष्य योनि में जन्म।
यक्ष प्रश्न: संसार में दुःख क्यों है?
युधिष्ठिर उत्तर: संसार के दुःख का कारण लालच, स्वार्थ और भय हैं।
यक्ष प्रश्न: तो फिर ईश्वर ने दुःख की रचना क्यों की?
युधिष्ठिर उत्तर: ईश्वर ने संसार की रचना की और मनुष्य ने अपने विचार और कर्मों से दुःख और सुख की रचना की।
यक्ष प्रश्न: क्या ईश्वर है? कौन है वह? क्या वह स्त्री है या पुरुष?
युधिष्ठिर उत्तर: कारण के बिना कार्य नहीं। यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है। तुम हो इसलिए वह भी है उस महान कारण को ही आध्यात्म में ईश्वर कहा गया है। वह न स्त्री है न पुरुष।
यक्ष प्रश्न: उसका (ईश्वर) स्वरूप क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: वह सत्-चित्-आनन्द है, वह निराकार ही सभी रूपों में अपने आप को स्वयं को व्यक्त करता है।
यक्ष प्रश्न: वह अनाकार (निराकार) स्वयं करता क्या है?
युधिष्ठिर: वह ईश्वर संसार की रचना, पालन और संहार करता है।
यक्ष प्रश्न: यदि ईश्वर ने संसार की रचना की तो फिर ईश्वर की रचना किसने की?
युधिष्ठिर उत्तर: वह अजन्मा अमृत और अकारण है।
यक्ष प्रश्न: भाग्य क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: हर क्रिया, हर कार्य का एक परिणाम है। परिणाम अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। यह परिणाम ही भाग्य है। आज का प्रयत्न कल का भाग्य है।
यक्ष प्रश्न: सुख और शान्ति का रहस्य क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: सत्य, सदाचार, प्रेम और क्षमा सुख का कारण हैं। असत्य, अनाचार, घृणा और क्रोध का त्याग शान्ति का मार्ग है।
यक्ष प्रश्न: चित्त पर नियंत्रण कैसे संभव है?
युधिष्ठिर उत्तर: इच्छाएं, कामनाएं चित्त में उद्वेग उत्पन्न करती हैं। इच्छाओं पर विजय चित्त पर विजय है।
यक्ष प्रश्न: सच्चा प्रेम क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: स्वयं को सभी में देखना सच्चा प्रेम है। स्वयं को सर्वव्याप्त देखना सच्चा प्रेम है। स्वयं को सभी के साथ एक देखना सच्चा प्रेम है।
यक्ष प्रश्न: तो फिर मनुष्य सभी से प्रेम क्यों नहीं करता?
युधिष्ठिर उत्तर:. जो स्वयं को सभी में नहीं देख सकता वह सभी से प्रेम नहीं कर सकता।
यक्ष प्रश्न: आसक्ति क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: प्रेम में मांग, अपेक्षा, अधिकार आसक्ति है।
यक्ष प्रश्न: नशा क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: आसक्ति।
यक्ष प्रश्न: मुक्ति क्या है?
युधिष्ठिर – अनासक्ति (आसक्ति के विपरित) ही मुक्ति है।
यक्ष प्रश्न: बुद्धिमान कौन है?
युधिष्ठिर उत्तर: जिसके पास विवेक है।
यक्ष प्रश्न: चोर कौन है?
युधिष्ठिर उत्तर: इन्द्रियों के आकर्षण, जो इन्द्रियों को हर लेते हैं चोर हैं।
यक्ष प्रश्न: नरक क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: इन्द्रियों की दासता नरक है।
यक्ष प्रश्न: जागते हुए भी कौन सोया हुआ है?
युधिष्ठिर उत्तर: जो आत्मा को नहीं जानता वह जागते हुए भी सोया है।
यक्ष प्रश्न: कमल के पत्ते में पड़े जल की तरह अस्थायी क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: यौवन, धन और जीवन।
यक्ष प्रश्न: दुर्भाग्य का कारण क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: मद और अहंकार।
यक्ष प्रश्न: सौभाग्य का कारण क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: सत्संग और सबके प्रति मैत्री भाव।
यक्ष प्रश्न: सारे दुःखों का नाश कौन कर सकता है?
युधिष्ठिर उत्तर: जो सब छोड़ने को तैयार हो।
यक्ष प्रश्न: मृत्यु पर्यंत यातना कौन देता है?
युधिष्ठिर उत्तर: गुप्त रूप से किया गया अपराध।
यक्ष प्रश्न: दिन-रात किस बात का विचार करना चाहिए?
युधिष्ठिर उत्तर: सांसारिक सुखों की क्षण-भंगुरता का।
यक्ष प्रश्न: संसार को कौन जीतता है?
युधिष्ठिर उत्तर: जिसमें सत्य और श्रद्धा है।
यक्ष प्रश्न: भय से मुक्ति कैसे संभव है?
युधिष्ठिर उत्तर: वैराग्य से।
यक्ष प्रश्न: मुक्त कौन है?
युधिष्ठिर उत्तर: जो अज्ञान से परे है।
यक्ष प्रश्न: अज्ञान क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: आत्मज्ञान का अभाव अज्ञान है।
यक्ष प्रश्न: दुःखों से मुक्त कौन है?
युधिष्ठिर उत्तर: जो कभी क्रोध नहीं करता।
यक्ष प्रश्न: वह क्या है जो अस्तित्व में है और नहीं भी?
युधिष्ठिर उत्तर: माया।
यक्ष प्रश्न: माया क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: नाम और रूपधारी नाशवान जगत।
यक्ष प्रश्न: परम सत्य क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: ब्रह्म।…!
यक्ष प्रश्नः सूर्य किसकी आज्ञा से उदय होता है?
युधिष्ठिर उत्तरः परमात्मा यानी ब्रह्म की आज्ञा से।
यक्ष प्रश्नः किसी का ब्राह्मण होना किस बात पर निर्भर करता है? उसके जन्म पर या शील स्वभाव पर?
युधिष्ठिर उत्तरः कुल या विद्या के कारण ब्राह्मणत्व प्राप्त नहीं हो जाता। ब्राह्मणत्व शील और स्वभाव पर ही निर्भर है। जिसमें शील न हो ब्राह्मण नहीं हो सकता। जिसमें बुरे व्यसन हों वह चाहे कितना ही पढ़ा लिखा क्यों न हो, ब्राह्मण नहीं होता।
यक्ष प्रश्नः मनुष्य का साथ कौन देता है?
युधिष्ठिर उत्तरः धैर्य ही मनुष्य का साथी होता है।
यक्ष प्रश्न: यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि स्थायित्व किसे कहते हैं? धैर्य क्या है? स्नान किसे कहते हैं? और दान का वास्तविक अर्थ क्या है?
युधिष्ठिर उत्तर: ‘अपने धर्म में स्थिर रहना ही स्थायित्व है। अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना ही धैर्य है। मनोमालिन्य का त्याग करना ही स्नान है और प्राणीमात्र की रक्षा का भाव ही वास्तव में दान है।’
यक्ष प्रश्नः कौन सा शास्त्र है, जिसका अध्ययन करके मनुष्य बुद्धिमान बनता है?
युधिष्ठिर उत्तरः कोई भी ऐसा शास्त्र नहीं है। महान लोगों की संगति से ही मनुष्य बुद्धिमान बनता है।
यक्ष प्रश्नः भूमि से भारी चीज क्या है?
युधिष्ठिर उत्तरः संतान को कोख़ में धरने वाली मां, भूमि से भी भारी होती है।
यक्ष प्रश्नः आकाश से भी ऊंचा कौन है?
युधिष्ठिर उत्तरः पिता।
यक्ष प्रश्नः हवा से भी तेज चलने वाला कौन है?
युधिष्ठिर उत्तरः मन।
यक्ष प्रश्नः घास से भी तुच्छ चीज क्या है?
युधिष्ठिर उत्तरः चिंता।
यक्ष प्रश्न : विदेश जाने वाले का साथी कौन होता है?
युधिष्ठिर उत्तरः विद्या।
यक्ष प्रश्न : घर में रहने वाले का साथी कौन होता है?
युधिष्ठिर उत्तरः पत्नी।
यक्ष प्रश्न : मरणासन्न वृद्ध का मित्र कौन होता है?
युधिष्ठिर उत्तरः दान, क्योंकि वही मृत्यु के बाद अकेले चलने वाले जीव के साथ-साथ चलता है।
यक्ष प्रश्न : बर्तनों में सबसे बड़ा कौन-सा है?
युधिष्ठिर उत्तरः भूमि ही सबसे बड़ा बर्तन है जिसमें सब कुछ समा सकता है।
यक्ष प्रश्न : सुख क्या है?
युधिष्ठिर उत्तरः सुख वह चीज है जो शील और सच्चरित्रता पर आधारित है।
यक्ष प्रश्न : किसके छूट जाने पर मनुष्य सर्वप्रिय बनता है ?
युधिष्ठिर युधिष्ठिर उत्तरः अहंभाव के छूट जाने पर मनुष्य सर्वप्रिय बनता है।
यक्ष प्रश्न : किस चीज के खो जाने पर दुःख होता है ?
युधिष्ठिर उत्तरः क्रोध।
यक्ष प्रश्न : किस चीज को गंवाकर मनुष्य धनी बनता है?
युधिष्ठिर उत्तरः लालच को खोकर।
यक्ष प्रश्न : संसार में सबसे बड़े आश्चर्य की बात क्या है?
युधिष्ठिर उत्तरः हर रोज आंखों के सामने कितने ही प्राणियों की मृत्यु हो जाती है यह देखते हुए भी इंसान अमरता के सपने देखता है। यही महान आश्चर्य है।
यक्ष प्रश्न : कौन व्यक्ति आनंदित या सुखी है?
युधिष्ठिर उत्तरः हे जलचर (जलाशय में निवास करने वाले यक्ष), जो व्यक्ति पांचवें-छठे दिन ही सही, अपने घर में शाक (सब्जी) पकाकर खाता है, जिस पर किसी का ऋण नहीं है और जिसे परदेस में नहीं रहना पड़ता है, वही मुदित-सुखी है । यदि युधिष्ठिर के शाब्दिक उत्तर को महत्त्व न देकर उसके भावार्थ पर ध्यान दें, तो इस कथन का तात्पर्य यही है जो सीमित संसाधनों के साथ अपने परिवार के बीच रहते हुए संतोष कर पाता हो वही वास्तव में सुखी है ।
यक्ष प्रश्न : इस सृष्टि का आश्चर्य क्या है?
युधिष्ठिर उत्तरः यहां इस लोक से जीवधारी प्रतिदिन यमलोक को प्रस्थान करते हैं, यानी एक-एक कर सभी की मृत्यु देखी जाती है । फिर भी जो यहां बचे रह जाते हैं वे सदा के लिए यहीं टिके रहने की आशा करते हैं । इससे बड़ा आश्चर्य भला क्या हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है और उस मृत्यु के साक्षात्कार के लिए सभी को प्रस्तुत रहना चाहिए । किंतु हर व्यक्ति इस प्रकार जीवन-व्यापार में खोया रहता है जैसे कि उसे मृत्यु अपना ग्रास नहीं बनाएगी ।
यक्ष प्रश्न : जीवन जीने का सही मार्ग कौन-सा है?
युधिष्ठिर उत्तरः जीवन जीने के असली मार्ग के निर्धारण के लिए कोई सुस्थापित तर्क नहीं है, श्रुतियां (शास्त्रों तथा अन्य स्रोत) भी भांति-भांति की बातें करती हैं, ऐसा कोई ऋषि/चिंतक/विचारक नहीं है जिसके वचन प्रमाण कहे जा सकें । वास्तव में धर्म का मर्म तो गुहा (गुफा) में छिपा है, यानी बहुत गूढ़ है । ऐसे में समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है वही अनुकरणीय है । ‘बड़े’ लोगों के बताये रास्ते पर चलने की बातें अक्सर की जाती हैं । यहां प्रतिष्ठित या बड़े व्यक्ति से मतलब उससे नहीं है जिसने धन-संपदा अर्जित की हो, या जो व्यावसायिक रूप से काफी आगे बढ़ चुका हो, या जो प्रशासनिक अथवा अन्य अधिकारों से संपन्न हो, इत्यादि । प्रतिष्ठित वह है जो चरित्रवान् हो, कर्तव्यों की अवहेलना न करता हो, दूसरों के प्रति संवेदनशील हो, समाज के हितों के प्रति समर्पित हो, आदि-आदि ।
यक्ष प्रश्न : रोचक वार्ता क्या है?
युधिष्ठिर उत्तरः काल (यानी निरंतर प्रवाहशील समय) सूर्य रूपी अग्नि और रात्रि-दिन रूपी इंधन से तपाये जा रहे भवसागर रूपी महा मोहयुक्त कढ़ाई में महीने तथा ऋतुओं के कलछे से उलटते-पलटते हुए जीवधारियों को पका रहा है । यही प्रमुख वार्ता (खबर) है । इस कथन में जीवन के गंभीर दर्शन का उल्लेख दिखता है । रात-दिन तथा मास-ऋतुओं के साथ प्राणीवृंद के जीवन में उथल-पुथल का दौर निरंतर चलता रहता है । प्राणीगण काल के हाथ उसके द्वारा पकाये जा रहे भोजन की भांति हैं, जिन्हें एक न एक दिन काल के गाल में समा जाना है । यही हर दिन का ताजा समाचार है ।
इस प्रकार यक्ष ने युधिष्ठिर से और भी अनेक प्रश्न किए और युधिष्ठिर ने उस सभी प्रश्नों के उचित उत्तर दिए।
इससे प्रसन्न होकर यक्ष बोले- “हे युधिष्ठिर! तुम धर्म के सभी मर्मों के ज्ञाता हो। मैं तुम्हारे उत्तरों से सन्तुष्ट हूँ। अतः मैं तुम्हारे एक भाई को जीवनदान देता हूँ। बोलो तुम्हारे किस भाई को मैं जीवित करूँ?”
युधिष्ठिर ने कहा- “आप नकुल को जीवित कर दीजिये।”
इस पर यक्ष बोले- “युधिष्ठिर! तुमने महाबली भीम या त्रिलोक विजयी अर्जुन का जीवनदान न माँगकर नकुल को ही जीवित करने के लिये क्यों कहा?”
युधिष्ठिर ने यक्ष के इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया- “हे यक्ष! धर्मात्मा पाण्डु की दो रानियाँ थीं- कुन्ती और माद्री। मेरी, भीम और अर्जुन की माता कुन्ती थीं तथा नकुल और सहदेव की माद्री। इसलिए जहाँ माता कुन्ती का एक पुत्र मैं जीवित हूँ, वहीं माता माद्री के भी एक पुत्र नकुल को ही जीवित रहना चाहिये। इसीलिये मैंने नकुल का जीवनदान माँगा है।”
युधिष्ठिर के वचन सुनकर यक्ष ने प्रसन्न होते हुए कहा- “हे वत्स! मैं तुम्हारे विचारों से अत्यन्त ही प्रसन्न हुआ हूँ, इसलिये मैं तुम्हारे सभी भाइयों को जीवित करता हूँ। वास्तव में मैं तुम्हारा पिता धर्म हूँ और तुम्हारी परीक्षा लेने के लिये यहाँ आया था।”
धर्म के इतना कहते ही सब पाण्डव ऐसे उठ खड़े हुए जैसे कि गहरी नींद से जागे हों। युधिष्ठिर ने अपने पिता धर्म के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लिया।
फिर धर्म ने कहा- “वत्स मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम मुझसे अपनी इच्छानुसार वर माँग लो।” युधिष्ठिर बोले- “हे तात! हमारा बारह वर्षों का वनवास पूर्ण हो रहा है और अब हम एक वर्ष के अज्ञातवास में जाने वाले हैं। अतः आप यह वर दीजिए कि उस अज्ञातवास में कोई भी हमें न पहचान सके। साथ ही मुझे यह वर दीजिए कि मेरी वृति सदा आप अर्थात धर्म में ही लगी रहे।” धर्म युधिष्ठिर को उनके माँगे हुए दोनों वर देकर वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गए।
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