Tailang Swami Jayanti

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महात्मा, योगी, तपस्वी तैलंग स्वामी जयंती (lord, Yogi ,Ascetic Tailang Swami Jayanti)
त्रैलंग स्वामी (जिन्हें तैलंग स्वामी भी कहते हैं) बहुत बड़े सिद्ध पुरुष, हिन्दू योगी और तपस्वी थे. जो अपने आध्यात्मिक शक्तियों के लिये प्रसिद्ध हुए. इसमें एक ऐसी अदभुत शक्ति थी. जिससे ये अपने सामने बैठे हुए व्यक्ति के अंतर्मन में क्या चल रहा हैं यह जान लेते थे. ये जीवन के उत्तरार्द्ध में वाराणसी में निवास करते थे. इनकी बंगाल में भी बड़ी मान्यता है, जहाँ ये अपनी यौगिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों एवं लम्बी आयु के लिये प्रसिद्ध रहे हैं. कुछ ज्ञात तथ्यों के अनुसार त्रैलंग स्वामी की आयु लगभग 300 वर्ष रही थी, जिसमें ये वाराणसी में 1737-1887 तक (लगभग 150 वर्ष) रहे. त्रैलंग स्वामी को भगवान शिव का अवतार माना जाता है. साथ ही इन्हें वाराणसी के ‘सचल विश्वनाथ’ (चलते फिरते शिव) की उपाधि भी दी गयी है. तैलंग स्वामी बहुत ही नम्र स्वभाव के संत थे. इसलिए इनकी याद में प्रतिवर्ष माघ महीने में इनकी जयंती मनाई जाती हैं.

जन्म स्थान, तिथि और जीवन (Place, Date of Birth and life Story)

तैलंग स्वामी का जन्म आंध्र प्रदेश के विजियाना नामक जनपद के होलिया नामक एक गाँव में हुआ था. इनके पिता का नाम नृसिंह राव और माता का नाम विद्यावती था. इनका जन्म पन्द्रहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में हुआ था. इनकी निश्चित जन्म-तिथि ज्ञात नहीं है. कहीं इन्हें 1529 में तो कहीं 1607 ई॰ में उत्पन्न माना जाता है. इनकी माता भगवान शिव की उपासिका थी. भगवान शिव के कृपा-स्वरूप इनका जन्म मानने के कारण उन्होंने इनका नाम शिवराम रखा था. बचपन से ही तैलंग स्वामी को संतों, योगियों तथा महापुरुषों की सेवा करना पसंद था तथा इन्होने अपना पूरा बचपन संतों की शरण में रहकर ही व्यतीत किया था. तैलंग स्वामी का स्वाभाव बचपन से ही सहज वैराग्य एवं विषय-विरक्ति का था, जिसे इनकी माता भी समझती थी. अपने इसी स्वभाव के कारण ये अविवाहित रहे और वैराग्य के पथ का चुनाव किया. इनके जन्म के कुछ वर्षों के बाद ही इनके माता – पिता का स्वर्गवास हो गया.

तैलंग स्वामी का वैराग्य जीवन और प्रसिद्धि की शुरुआत (Victory And Fame Begane of Tailang Swami)

ऐसा कहा जाता हैं कि जिस श्मशान घाट पर इनके माता – पिता को अग्नि को समर्पित कर दिया गया था. उसी श्मशान घाट पर इन्होने 20 साल तक निवास किया था और इसी स्थान पर इन्होने अपनी तपस्या पूर्ण की थी. फिर इन्हें संयोगवश ही पंजाब से आए स्वामी भागीरथानंद सरस्वती से भेंट हुई और उनके साथ इन्होंने सदा के लिए होलिया गाँव का परित्याग कर दिया. अनेक प्रदेशों का पर्यटन करते हुए ये दोनों प्रसिद्ध पुरुष पुष्कर तीर्थ पहुँचे. वहीं लगभग 78 वर्ष की अवस्था में शिवराम ने भगीरथ स्वामी से संन्यास की दीक्षा ली. उनका नया नामकरण हुआ- ‘गणपति सरस्वती’. दीक्षा ग्रहण करने के बाद ये गंभीर साधना में निमग्न हो गये. भगीरथ स्वामी का पुष्कर तीर्थ में ही देहांत हो गया. इस पवित्र क्षेत्र में लगभग दस वर्षों तक कठोर साधना करने के बाद ये भारत के प्रसिद्ध तीर्थों की परिक्रमा के लिए निकले. तब उनकी आयु लगभग 88 वर्ष की थी. इस उम्र में भी उनका शरीर पूरी तरह सुगठित था और बुढ़ापा का कोई चिह्न नहीं था. इसके बाद नेपाल, तिब्बत, गंगोत्री, यमुनोत्री, मानसरोवर आदि क्षेत्रों में कठोर साधना करके इन्होंने अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कीं. फिर नर्मदाघाटी, प्रयागराज आदि अनेक तीर्थस्थानों में निवास एवं साधना करते हुए अंततः ये काशी पहुँचे. आंध्र प्रदेश के तैलंग क्षेत्र से आने के कारण काशी के लोग इन्हें ‘तैलंग स्वामी’ के नाम से पुकारने लगे और इस प्रकार इनका नाम ‘तैलंग स्वामी’ प्रसिद्ध हो गया. वहाँ ये लगभग 150 वर्ष रहे. विक्रम संवत् 1944 (फसली साल 1294) में पौष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि (सन् 1887) को इन्होंने नश्वर शरीर छोड़ा.

वाराणसी-निवास
वाराणसी में तैलंग स्वामी के दर्शन के लिए स्वयं रामकृष्ण परमहंस भी कई बार गये थे. स्वामी जी उन दिनों मणिकर्णिका घाट पर मौनव्रत धारण करके रहते थे. जब पहली बार परमहंस जी मिलने गये तभी स्वामी जी ने अपनी सुँघनी की डिब्बी श्री रामकृष्ण परमहंस के आगे रखकर उनका स्वागत किया था. परमहंस जी ने स्वामी जी के शरीर के सभी लक्षणों को बारीकी से देखकर लौटते समय अपने अनुयायी हृदय से कहा था इनमें यथार्थ परमहंस के सभी लक्षण दिखाई देते हैं, ये साक्षात् विश्वेश्वर हैं. तैलंग स्वामी लाहिड़ी महाशय के परम मित्र थे. उनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे 300 वर्ष से भी अधिक आयु तक जीवित रहे. उनका वजन 300 पौंड था. दोनों योगी प्रायः एक साथ ध्यान में बैठा करते थे. त्रैलंग स्वामी के चमत्कारों के सम्बन्ध में अनेक बाते कही जाती हैं. अनेक बार घातक विष का पान करने के बाद भी वे जीवित रहे. अनेक लोगो ने उन्हे गंगा के जल में उतरते देखा था. कई दिनो तक वे गंगा में जल के ऊपर बैठे रहते थे अथवा लम्बे समय तक जल के नीचे छिपे रहते थे. वे गर्मी के दिनो भी मध्यान्त समय मणिकर्णिका घाट के धूप से गर्म शिलाओं पर निश्चल बैठे रहते थे. इन चमत्कारो के द्वारा वे यह सिद्ध करना चाहते थे कि मनुष्य ईश्वर-चैतन्य के द्वारा ही जीवित रहता है. मृत्यु उनका स्पर्श नहीं कर सकती थी. आध्यात्मिक क्षेत्र में तो त्रैलंग स्वामी तीव्रगति वाले थे ही उनका शरीर भी बहुत विशाल था किन्तु वे भोजन यदा कदा ही करते थे. वे माया विनिमुक्ति हो चुके थे और उन्होने इस विश्व को ईश्वर के मन की एक परिकल्पना के रूप में अनुभव कर लिया था. वे यह जानते थे कि यह शरीर धनीभूत शक्ति के कार्य साधक आकार अतिरिक्त कुछ नहीं है. अत: वे जिस रूप में चाहते, शरीर का उपयोग कर लेते थे.

मस्त स्वभाव
त्रैलंग स्वामी सदा नग्न रहा करते थे किन्तु उन्हे अपनी नग्नावस्था का तनिक भी भान नहीं होता था. उनकी नग्नावस्था के बारे में पुलिस सतर्क थी. अत: उन्हे पकड़कर पुलिस ने जेल में डाल दिया. इतने में त्रैलंग स्वामी जेल की छत पर दिखाई पड़े. जिस कोठरी में पुलिस ने त्रैलंग स्वामी को बन्द कर ताला लगा दिया था, उस कोठरी का ताला ज्यों का त्यों था और त्रैलंग स्वामी जेल की छत पर कैसे आ गये यह आश्चर्य का विषय था. हताश होकर पुलिस अधिकारियों ने पुन: उन्हे जेल की कोठरी में बन्द कर ताला लगा दिया और कोठरी के सामने पुलिस का पहरा भी बैठा दिया किन्तु इस बार भी महान योगी शीघ्र छत पर टहलते दिखाई दिये.

त्रैलंग स्वामी सदा मौन धारण किये रहते थे. निराहार रहने के बाद भक्त यदि कोई पेय पदार्थ लाते तो उसे ही गृहण कर अपना उपवास तोड़ते थे. एक बार एक नास्तिक ने एक बाल्टी चूना घोलकर स्वामी जी के सामने रख दिया और उसे गाढ़ा दही बताया. स्वामी जी ने तो उसे पी लिया किन्तु कुछ ही देर बाद नास्तिक व्यक्ति पीड़ा ने छटपटाने लगा और स्वामी जी से अपने प्राणो की रक्षा की भीख मांगने लगा. त्रैलंग स्वामी ने अपना मौन भंग करते हुए कहा कि तुमने मुझे विष पीने के लिये दिया, तब तुमने नहीं जाना कि तुम्हारा जीवन मेरे जीवन के साथ एकाकार है. यदि मैं यह नहीं जानता होता कि मेरे पेट में उसी तरह ईश्वर विराजमान है जिस तरह वह विश्व के अणु-परमाणु में है तब तो चूने के घोल ने मुझे मार ही डाला होता. अब तो तुमने कर्म का देवी अर्थ समझ लिया है, अत: फिर कभी किसी के साथ चालाकी करने की कोशिश मत करना. त्रैलंग स्वामी के इन शब्दो के साथ ही वह नास्तिक कष्ट मुक्त हो गया.

आध्यात्मिक शक्ति- त्रैलंग स्वामी की प्रबल आध्यात्मिक शक्ति के अनेक उदाहरण मिलते है.

  • एक बार परमहंस योगानन्द के मामा ने उन्हे बनारस के घाट पर भक्तो की भीड़ के बीच बैठे देखा. वे किसी प्रकार मार्ग बनाकर स्वामी जी के निकट पहुंच गये और भक्तिपूर्ण उनका चरण स्पर्श किया. उन्हे यह जानकर महान आश्चर्य हुआ कि स्वामी जी का चरण स्पर्श करने मात्र से वे अत्यन्त कष्टदायक जीर्ण रोग से मुक्ति पा गये.
  • काशी में त्रैलंग स्वामी एक बार लाहिड़ी महाशय का सार्वजनिक अभिनन्दन करना चाहते थे जिसके लिये उन्हे अपना मौन तोड़ना पड़ा. जब त्रैलंग स्वामी के एक शिष्य ने कहा कि आप एक त्यागी संन्यासी है. अत: एक ग्रहस्थ के प्रति इतना आदर क्यों व्यक्त करना चाहते है? उनर रूप में त्रैलंग स्वामी ने कहा था मेरे बच्चे लाहिड़ी महाशय जगत जननी के दिव्य बालक है. मां उन्हे जहां रख देती है, वही वे रहते है. सांसारिक मनुष्य के रूप में कर्तव्य का पालन करते हुए भी उन्होने मनुष्य के रूप में वह पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है जिसे प्राप्त करने के लिये मुझे सब कुछ का परित्याग कर देना पड़ा. यहां तक कि लंगोटी का भी.

भगवान की प्राप्ति के लिए महात्मा तैलंग स्वामी की मान्यताएं

  1. सिद्ध पुरुष योगी तथा संत तैलंग स्वामी का मानना था कि भगवान मनुष्य शरीर में ही विराजते हैं.
  2. उनका कहना यह भी था कि जितना परिश्रम मनुष्य सांसारिक जीवन को जीने के लिए करता हैं यदि उसका एक अंश भी परिश्रम मनुष्य भगवान को पाने के लिए करें. तो वह अवश्य ही भगवान को पाने में समर्थ हो जाएगा तथा जब मनुष्य भगवान को प्राप्त कर लेगा तो उसके लिए किसी भी वस्तु को पाना असम्भव नहीं होगा.
  3. उनकी मान्यता यह भी थी कि भगवान की प्राप्ति करने का सबसे सरल मार्ग केवल साधना ही हैं. इसलिए यदि कोई मनुष्य भगवान को सच्चे मन से प्राप्त करना चाहता हैं तो उसे भगवान की भक्ति करनी चाहिए तथा अपने गुरु के द्वारा दिखाए गये मार्ग पर ही चलने का प्रयास करना चाहिए.
  4. तैलंग स्वामी एक हठ योगी, लय योगी तथा ज्ञान योगी थे तथा ये अपना पूरा जीवन लोगों का कल्याण करने के लिए समर्पित कर चुके थे. तैलंग स्वामी संसार के मोह – माया के बंधन से भी दूर हो गये थे. उनका मानना था कि यदि कोई व्यक्ति भगवान को जानने के लिए जिज्ञासित हैं तो उसे पहले अपने आपको अच्छी तरह से जानने का प्रयास करना चाहिए. क्योंकि जब तक हम अपने आप को भली – भांति नहीं जान लेते. तब तक हम भगवान को भी नहीं जान सकते.
  5. महात्मा तैलंग स्वामी भगवान से साक्षात्कार करने का सबसे सरल और उत्तम मार्ग साधना को तथा उनकी उपासना को मानते थे. स्वामी जी सदैव इन पर ही अधिक बल भी देते थे तथा कहते थे कि जो मनुष्य ईश्वर को जानना चाहता हैं या उन्हें पाने की इच्छा रखता हैं उसे इनकी उपासना आवश्यक रूप से करनी चाहिए.

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