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रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी
आज हम इस लेख में आपको एक ऐसा वीरांगना से अवगत कराने जा रहें है जिन्होंने महज 23 वर्ष की आयु में अंग्रेजों को धूल चटा दी थी. उनका राम है रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी थीं और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध बिगुल बजाने वाले वीरों में से एक थीं. वे ऐसी वीरांगना थीं जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से मोर्चा लिया और रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हो गयीं परन्तु जीते जी अंग्रेजों को अपने राज्य झाँसी पर कब्जा नहीं करने दिया.

पूरा नाम: – झाँसी की रानी
जन्म स्थान: – वाराणसी, उत्तर प्रदेश
जन्म: – 19 नवम्बर 1828
मृत्यु: – 18 जून 1858
मृत्यु स्थान: – कोटा की सराय, ग्वालियर
पद/कार्य: – झाँसी की रानी, 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना

रानी लक्ष्मीबाई का प्रारंभिक जीवन
बता दें कि लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले में 19 नवम्बर 1828 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उसके बचपन का नाम मणिकर्णिका था पर परिवार वाले उन्हें स्नेह से मनु पुकारते थे. उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथी सप्रे. उनके माता-पिता महाराष्ट्र से सम्बन्ध रखते थे. जब लक्ष्मीबाई मात्र चार साल की थीं तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया. उनके पिता मराठा बाजीराव की सेवा में थे. माँ के निधन के बाद घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये. वहां मनु के स्वभाव ने सबका मन मोह लिया और लोग उसे प्यार से छबीली कहने लगे. शास्त्रों की शिक्षा के साथ-साथ मनु को शस्त्रों की शिक्षा भी दी गयी. सन 1842 में मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और इस प्रकार वे झाँसी की रानी बन गयीं और उनका नाम बदलकर लक्ष्मीबाई कर दिया गया. सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई और गंगाधर राव को पुत्र रत्न की पारपत हुई पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी. उधर गंगाधर राव का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था. स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी. उन्होंने वैसा ही किया और पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को गंगाधर राव परलोक सिधार गए. उनके दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया.

अंग्रजों की राज्य हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स) और झाँसी
आपको बता दें कि ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत अंग्रेजों ने बालक दामोदर राव को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स नीति के तहत झाँसी राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया. हालाँकि रानी लक्ष्मीबाई ने अँगरेज़ वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कोई फैसला हो ही नहीं सकता था इसलिए बहुत बहस के बाद इसे खारिज कर दिया गया. अंग्रेजों ने झाँसी राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगादाहर राव के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काटने का हुक्म दे दिया. अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को झाँसी का किला छोड़ने को कहा जिसके बाद उन्हें रानीमहल में जाना पड़ा. 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार कर लिया. रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और हर हाल में झाँसी की रक्षा करने का निश्चय किया.

रानी लक्ष्मीबाई का अंग्रेजी हुकुमत से संघर्ष
अंग्रेजी हुकुमत से संघर्ष के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया. इस सेना में महिलाओं की भी भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया. झाँसी की आम जनता ने भी इस संग्राम में रानी का साथ दिया. लक्ष्मीबाई की हमशक्ल झलकारी बाई को सेना में प्रमुख स्थान दिया गया.

अंग्रेजों के खिलाफ रानी लक्ष्मीबाई की जंग में कई और अपदस्त और अंग्रेजी हड़प नीति के शिकार राजाओं जैसे बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे.

सन 1858 के जनवरी महीने में अंग्रेजी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च में शहर को घेर लिया. लगभग दो हफ़्तों के संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने शहर पर कब्जा कर लिया पर रानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र दामोदर राव के साथ अंग्रेजी सेना से बच कर भाग निकली. झाँसी से भागकर रानी लक्ष्मीबाई कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिलीं.

तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई की संयुक्त सेना ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया. रानी लक्ष्मीबाई ने जी-जान से अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया पर 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गयीं.

रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु
रानी के क़िले की प्राचीर पर जो तोपें थीं उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं. रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श. रानी ने क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की. रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया. अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया.

अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे परन्तु क़िला न जीत सके. रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे. अंग्रेज़ सेनापति ह्यूरोज़ ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है. अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया. फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया. घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं.

झांसी 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख केन्द्र बन गया था. रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया. इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया. साधारण जनता ने भी इस विद्रोह में सहयोग दिया. 1857 में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झांसी पर आक्रमण कर दिया. रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया. 1858 के मार्च माह में ब्रितानी सेना ने झांसी शहर को घेर लिया. दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया. परन्तु रानी, अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव के साथ अंग्रेज़ो से बच कर भागने में सफल हो गयी. रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली. 18 जून, 1858 को रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की.

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