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अरविन्द घोष की जीवनी
आज हम इस लेख में जिनके बारें में बताने जा रहे है वो एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे, और वो साथ ही साथ स्वतंत्रता सेनानी, कवि, प्रकांड विद्वान, योगी और महान दार्शनिक थे. हम बात करें है भारत के एक महान योगी अरविंद घोष के बारें में. बता दें कि उन्होंने अपना जीवन भारत को आजादी दिलाने और पृथ्वी पर जीवन के विकास की दिशा में समर्पित कर दिया.
पूरा नाम: – अरविन्द घोष
जन्म: – 15 अगस्त 1872
जन्म स्थान: – कोलकता (पं. बंगाल)
मृत्यु: – 5 दिसंबर 1950
मृत्यु स्थान: – पांडिचेरी
पद/कार्य: – स्वतंत्रता सेनानी, कवि, प्रकांड विद्वान, योगी और महान दार्शनिक
अरविन्द घोष का प्रारंभिक जीवन
अरविंद के पिता का नाम केडी घोष और माता का नाम स्वमलता था. अरविन्द घोष एक प्रभावशाली वंश से सम्बन्ध रखते थे. राज नारायण बोस, बंगाली साहित्य के एक जाने माने नेता, श्री अरविंद के नाना थे. अरविंद घोष ना केवल आध्यात्मिक प्रकृति के धनी थे बल्कि उनकी उच्च साहित्यिक क्षमता उनकी माँ की शैली की थी. उनके पिता एक डॉक्टर थे.
बता दें कि जब अरविन्द घोष पांच साल के थे उन्हें दार्जिलिंग के लोरेटो कान्वेंट स्कूल में भेज दिया गया. दो साल के बाद 1879 में अरविन्द घोष को उनके भाई के साथ उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया. अरविन्द ने अपनी पढाई लंदन के सेंट पॉल से पूरी की. वर्ष 1890 में 18 साल की उम्र में अरविन्द को कैंब्रिज में प्रवेश मिल गया. यहाँ पर उन्होंने स्वयं को यूरोपीय क्लासिक्स के एक छात्र के रूप में प्रतिष्ठित किया. अपने पिता की इच्छा का पालन करने के लिए, उन्होंने कैम्ब्रिज में रहते हुए आईसीएस के लिए आवेदन भी दिया. उन्होंने 1890 में पूरे विश्वास के साथ भारतीय सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण की. हांलांकि वह घुड़सवारी के एक आवश्यक इम्तेहान में खरे उतरने में विफल रहे और इसलिए उन्हें भारत सरकार की सिविल सेवा में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली.
अरविन्द घोष का करियर
वर्ष 1893 में अरविन्द घोष भारत वापस लौट आये और बड़ौदा के एक राजकीय विद्यालय में उपप्रधानाचार्य बन गए. उन्हें 750 रुपये वेतन दिया गया. उन्हें बड़ौदा के महाराजा द्वारा बहुत सम्मान मिला. अरविन्द घोष को ग्रीक और लैटिन भाषाओ में निपुणता प्राप्त थी. 1893 से 1906 तक उन्होंने संस्कृत, बंगाली साहित्य, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान का विस्तृत रूप से अध्यन किया.
1906 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और 150 रूपए के वेतन पर बंगाल नेशनल कॉलेज में शामिल हो गए. इसके बाद वो क्रांतिकारी आंदोलन में तेज़ी से सक्रीय हो गए. अरविन्द घोष ने 1908 से भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक प्रमुख भूमिका निभाई. अरविंद घोष भारत की राजनीति को जागृति करने वाले मार्गदर्शकों में से एक थे. उन्होंने अंग्रेजी दैनिक वन्दे मातरम पत्रिका का प्रकाशन किया और निर्भीक होकर तीक्ष्ण सम्पादकीय लेख लिखे. उन्होंने ब्रिटिश सामान, ब्रिटिश न्यायलय और सभी ब्रिटिश चीजों के बहिष्कार का खुला समर्थन किया . उन्होंने लोगों से सत्याग्रह के लिए तैयार रहने के लिए कहा .
प्रसिद्ध अलीपुर बम केस अरविंद घोष के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ. एक वर्ष के लिए अरविन्द अलीपुर सेंट्रल जेल के एकान्त कारावास में एक विचाराधीन कैदी रहे. वह अलीपुर जेल की एक गंदे सेल में थे जब उन्होंने अपने भविष्य के जीवन का सपना देखा जहाँ भगवान ने उन्हें एक दिव्य मिशन पर जाने का आदेश दिया. उन्होंने क़ैद की इस अवधि का उपयोग गीता की शिक्षाओं का गहन अध्ययन और अभ्यास के लिए किया. चित्तरंजन दास ने श्री अरविन्द का बचाव किया और एक यादगार सुनवाई के बाद उन्हें बरी कर दिया गया.
अपने कारावास के दौरान अरविंद घोष ने योग और ध्यान में अपनी रुचि को विकसित किया. अपनी रिहाई के बाद उन्होंने प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास शुरू कर दिया 1910 में श्री अरविंद घोष कलकत्ता छोड़ पांडिचेरी में बस गए. पांडिचेरी में वह अपने एक दोस्त के घर पर रुके. शुरुआत में वह अपने चार से पांच साथियों के साथ रहे. फिर धीरे धीरे सदस्यों की संख्या में वृद्धि हुई और एक आश्रम की स्थापना हुई .
पांडिचेरी में चार साल तक योग पर अपना ध्यान केंद्रित करने के बाद वर्ष 1914 में श्री अरविन्द ने आर्य नामक दार्शनिक मासिक पत्रिका का शुभारम्भ किया. अगले साढ़े 6 सालों तक यह उनकी सबसे महत्वपूर्ण रचनाओं में से ज्यादातर के लिए एक माध्यम बन गया जो कि एक धारावाहिक के रूप में आयीं. इनमे गीता का वर्णन, वेदों का रहस्य, उपनिषद, द रेनेसां इन इंडिया, वार एंड सेल्फ डिटरमिनेसन, द ह्यूमन साइकिल, द आइडियल ऑफ़ ह्यूमन यूनिटी और द फ्यूचर पोएट्री शामिल थीं. 1926 में श्री अरविन्द सार्वजनिक जीवन से सेवानिवृत्त हो गए.
श्री अरविंद के दर्शनशास्त्र तथ्य, अनुभव, व्यक्तिगत आभाष और एकद्रष्टाया ऋषि की दृष्टि होने पर आधारित है. अरबिंदो की आध्यात्मिकता अभिन्नताओं के कारण एक जुट थी. श्री अरविंद का लक्ष्य केवल किसी व्यक्ति को उन बेड़ियों से जो उन्हें जकड़े हुए थीं और इस के एहसास से मुक्त करना नहीं था बल्कि दुनिया में परमात्मा की इच्छा को सम्पन्न करना, एक आध्यात्मिक परिवर्तन लागू करना और मानसिक, मार्मिक, भौतिक जगत और मानव जीवन में दिव्यशक्ति और दिव्य आत्मा को लाना था.
अरविन्द घोष की मृत्यु
श्री अरविन्द का देहांत 5 दिसंबर 1950 को पांडिचेरी में 78 वर्ष की आयु में हो गया.
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