Biography of Madhavacharya

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मध्वाचार्य की जीवनी
भारत में भक्ति आंदोलन के महत्वपूर्ण दार्शनिक और आध्यात्मिक चेतना की जागृति लाने वालो में से एक थे सन्त मध्वाचार्य जी, जिन्होंने कर्म को मानव जीवन का मूलभूत अंग तथा सिद्धान्त माना है . कर्म की श्रेष्ठता से मानव पुनर्जन्म के कष्टों से मुक्ति पा सकता है, उनका यह कहना था . वे अद्वैतवाद के विरोधी और द्वैतवाद के समर्थक थे. मध्वाचार्य तत्त्ववाद के प्रवर्तक थे, जिसे द्वैतवाद के नाम से भी जाना जाता है. द्वैतवाद, वेदान्त की तीन प्रमुख दर्शनों में से एक है. मध्वाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है.

पूरा नाम: – मध्वाचार्य
जन्म: – विक्रम संवत 1295 को माघ शुक्‍ला सप्‍तमी
जन्म स्थान: – उडूपी, मंगलूर ज़िला, मद्रास प्रान्‍त (वर्तमान चैन्नई)
मृत्यु: – 1317 ई
मृत्यु स्थान: – सरिदन्‍तर
पद/कार्य: – संत, दार्शनिक

मध्वाचार्य का जीवन परिचय
श्रीमध्वाचार्य का जन्म दक्षिण भारत में उडुपी के निकट तुलुव क्षेत्र के वेलीग्राम नामक स्थान पर विजया दशमी विक्रम संवत 1256 (1199 ई.) को हुआ था. इनके पिता जी का नाम श्रीनारायण भट्ट और इनकी माता जी का नाम श्रीमती वेदवती था. इनका बाल्यावस्था का नाम वासुदेव था. 11 वर्ष की आयु में ही इन्होंने अद्वैत मत के संन्यासी सनककुलोद्भव आचार्य शुद्धानन्द अच्युतपक्षा से दीक्षा ले ली. दीक्षा लेने पर इनका नाम पूर्णप्रज्ञ पड़ा. वेदांत में पारंगत हो जाने पर इन्हें आनन्दतीर्थ नाम देकर मठाधीश बना दिया गया. बाद में आनन्दतीर्थ ही मध्व नाम से प्रख्यात हुए. मध्य ने पहले शिक्षा-दीक्षा तो अद्वैत वेदांत की पायी थी, किन्तु बाद में अद्वैतवाद से संतुष्ट न होने के कारण इन्होंने द्वैतवाद का प्रवर्तन किया. ऐसा कहा जाता है कि भगवान नारायण की आज्ञा से भक्तिसिद्धान्त की रक्षा और प्रचार के लिये स्वयं श्री वायुदेव ने ही श्रीमध्वाचार्य के रूप में अवतार लिया था. अल्पकाल में ही इनको सम्पूर्ण विद्याओं का ज्ञान प्राप्त हो गया. जब इन्होंने सन्न्यास लेने की इच्छा प्रकट की, तब इनके माता-पिता ने मोहवश उसका विरोध किया.

मध्वाचार्य का सन्न्यास
श्रीमध्वाचार्य ने अपने माता-पिता के तात्कालिक मोह को अपने अलौकिक ज्ञान के द्वारा निर्मूल कर दिया. इन्होंने ग्यारह वर्ष की अवस्था में अद्वैतमत के विद्वान् संन्यासी श्रीअच्युतपक्षाचार्य से सन्न्यास की दीक्षा ग्रहण की. इनका सन्न्यास का नाम पूर्णप्रज्ञ रखा गया. सन्न्यास के बाद इन्होंने वेदान्त का गम्भीर अध्ययन किया. इनकी बुद्धि इतनी विलक्षण थी कि इनके गुरु भी इनकी अलौकिक प्रतिभा से आश्चर्यचकित रह जाते थे. थोड़े ही समय में सम्पूर्ण दक्षिण भारत में इनकी विद्वत्ता की धूम मच गयी.

माध्वमत की भूमिका
आरम्भ में अद्वैतवाद में दीक्षित होने पर भी मध्व ने शंकर द्वारा प्रवर्तित अद्वैत वेदांत पर प्रमुख रूप से दो आपत्तियाँ कीं. पहली तो यह कि अद्वैत वेदांत में सामान्य अनुभव की उपेक्षा की गई है. जीव और ब्रह्म में पार्थृक्य होने पर भी शंकर ने उनमें अद्वैत माना है. यह सामान्य अनुभव के अनुरूप नहीं हैं दूसरी आपत्ति मध्व की यह थी कि शंकराचार्य के निर्गुण ब्रह्म की संकल्पना मानव को शान्ति प्रदान करने में असमर्थ है. मध्व से पहले रामानुज की भी अद्वैतवाद में त्रुटियां दिखाई दे गई थीं, किन्तु मध्व को रामानुज का कथन भी अपर्याप्त लगा. अत: उन्होंने शंकर के अतिरिक्त रामानुज के मत को भी ग्राह्य नहीं समझा.

मध्व के मत का सार यह है कि श्री विष्णु ही सर्वोच्च तत्व हैं, जगत् सत्य है, ब्रह्म और जीव का भेद वास्तविक है, जीव ईश्वर के अधीन हैं, जीवों में तारतम्य है, आत्मा के आन्तरिक सुखों का अनुभव ही मुक्ति है. शुद्ध भक्ति ही मुक्ति का साधन है, प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन ही प्रमाण हैं और हरि का ज्ञान वेदों के द्वारा ही संभव है.

मध्वाचार्य का भक्तिपरक मत
आचार्य मध्व का भक्ति परक मत अमला भक्ति के नाम से प्रसिद्ध है. कहीं कहीं इसको ब्रह्म सम्प्रदाय के नाम से भी अभिहित किया जाता है. अन्य सम्प्रदायों में विष्णु को परम तत्व का प्रतीक माना गया है, परम तत्व नहीं, जबकि मध्व के मतानुसार विष्णु स्वयं परम तत्व हैं. मध्व का यह कथन है कि जीव अनादिकाल से बद्ध है और अज्ञानादि धर्मों का आश्रय है. जीव और ईश्वर में ऐसा ही भेद है, जैसा की नदी और समुद्र में. जीव मायामोहित है, परतंत्र है और विष्णु का दास है. जीव का मोक्ष विष्णु के अनुग्रह से ही होता है. जीव को ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए ईश्वर का स्मरण, गुण, कीर्तन, श्रवण, ध्यान आदि करना चाहिए. ईश्वर की उपासना भी अधिकारी भेद से दो प्रकार की मानी गई है
1- सतत शास्त्राभ्यासरूपा
2- ध्यानरूपा.
मध्व के मतानुसार विष्णु की भक्ति के अथवा ब्रह्मविद्या के अधिकारी भी तीन प्रकार के होते हैं
1- मन्द
2- मध्यम
3- उत्तम
मनुष्यों में जो उत्तम गुण सम्पन्न हैं, वे मन्द ऋषि, गन्धर्व-मध्यम, और देवता उत्तम अधिकारी हैं. यह भेद जातिगत है. गुणगत भेद इस प्रकार है- परमपुरुष भगवान में भक्तिभाव रखने वाला अध्ययनशील अधम, शामसंयुक्त व्यक्ति माध्यम और जिसके अन्दर समस्त वस्तुओं के प्रति वैराग्य हो गया है, जिसने एकमात्र विष्णु के पद का आश्रय ले लिया है, वह उत्तम अधिकारी है.

मध्व के अनुसार त्याग, भक्ति और ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति मुक्ति का एकमात्र साधन है. ध्यान के बिना ईश्वर साक्षात्कार नहीं होता. भगवान में भक्ति, वेदाध्यन, इन्द्रिय संयम, विलासिता का त्याग, आशा और भय से उदासीनता, सांसारिक वस्तुओं की नश्वरता का ज्ञान, सम्पूर्ण रूप से भगवान के प्रति आत्मसमर्पण, इन गुणों के बिना भगवत्साक्षात्कार होना असम्भव है.

भगवान की सेवा करना उत्तम साधन है. जैसा कि पहले भी कहा गया है, सेवा तीन प्रकार की होती है- भगवान के आयुधों की छाप शरीर पर लेना, घर में पुत्रादि का नाम भगवान के नाम पर रखना और भजन, सत्य बोलना, हित के वाक्य के बोलना, प्रिय भाषण और स्वाध्याय- ये चार प्रकार के वाचिक भजन हैं. सत्यपात्र को दान देना, विपन्न व्यक्ति का उद्धार करना और शरणागत की रक्षा करना- ये तीन शारीरिक भजन हैं. दरिद्र का दु:ख दूर करना दया है, केवल भगवान का दास बनने की इच्छा का नाम स्पृहा है और गुरु तथा शास्त्र में विश्वास करना श्रद्धा है. इन दसों प्रकार का कार्य करके नारायण को समर्पित करना भजन है.

आचार्य रामानुज के अनुसार भी ध्यान और उपासना आदि मुक्ति के साधन हैं. ज्ञान मुक्ति का साधन नहीं है. मुक्ति प्राप्ति का उपाय भक्ति है. वे कहते हैं कि ब्रह्मत्मैक्य ज्ञान से अविद्या की निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब बन्धन पारमार्थिक है, तब इस प्रकार के ज्ञान से उसकी निवृत्ति नहीं हो सकती. भक्ति से भगवान प्रसन्न होन पर मुक्ति प्रदान करते हैं.

मध्व के मतानुसार वास्तविक सुख की अनुभूति ही मुक्ति है. वास्तविक सुख वह है, जिसमें दु:ख के क्षय के साथ ही परमानन्द का उदय हो जाता है. ऐसी स्थिति सायुज्य मुक्ति में ही सम्भव है, क्योंकि भक्त भगवान में प्रवेश कर उनके शरीर से एकाकार होकर आनन्द प्राप्त करता है. ऐसी मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन अमला भक्ति है. निर्हेतुकी भक्ति को ही अमला कहा जाता है. किसी कारण से की गई भक्ति हेतुकी कहलाती है. मध्व उसको निकृष्ट मानते हैं.

मध्वाचार्य के ग्रन्थ
श्री मध्वाचार्य ने अनेक ग्रन्थों की रचना, पाखण्डवाद का खण्डन और भगवान की भक्ति का प्रचार करके लाखों लोगों को कल्याणपथ का अनुगामी बनाया.

अपने मत की अभिव्यक्ति के लिए मध्व ने लगभग 30 वर्ष ग्रन्थ लेखन में बिताए. उनके ग्रन्थों की संख्या 37 बताई जाती है, उनमें से कतिपय के नाम इस प्रकार हैं: ब्रह्मसूत्रभाष्य अनुव्याख्यान,[1] ऐतरेय, छान्दोग्य, केन, कठ, बृहदारण्यक आदि उपनिषदों का भाष्य, गीताभाष्य, भागवततात्पर्यनिरणय, महाभारततात्पर्यनिर्णय, विष्णुतत्वनिर्णय, प्रपंचमिथ्यातत्वनिर्णय, गीतातात्पर्यनिर्णय, तंत्रसारसंग्रह.

मध्वाचार्य के प्रमुख सिद्धांत
मध्व के अनुसार ब्रह्म सगुण और सविशेष है. ब्रह्म को ही विष्णु या नारायण कहा जाता है. निरपेक्ष सत् सर्वगुण संपन्न ब्रह्म ही परम तत्व है. उसी को परब्रह्म, विष्णु, नारायण, हरि, परमेश्वर, ईश्वर, वासुदेव, परमात्मा आदि नामों से भी पुकारा जाता है. वह चैतन्य स्वरूप है, पर निर्गुण नहीं, वह जगत् का निमित्त कारण है. उपादान कारण नहीं, ब्रह्म अपनी इच्छा (माया) से जगत् की सृष्टि करता है. जीवों और जगत् की प्रतीति ब्रह्म के अधीन है, अत: वह स्वतंत्र माना जाता है, जबकि जीव और जगत् अस्वतंत्र हैं. विष्णु ही उत्पत्ति, संहार नियमन, ज्ञान आवरण, बन्ध तथा मोक्ष के कर्ता हैं. विष्णु शरीरी होते हुए भी नित्य तथा सर्वतन्त्र स्वतंत्र हैं. परमात्मा की शक्ति लक्ष्मी है. लक्ष्मी भी भगवान की भांति नित्य मुक्ता है और दिव्य विग्रहधारिणी होने के कारण अक्षरा है.

मध्व के अनुसार ब्रह्म मन-वाणी के अगोचर हैं- इसका तात्पर्य यही है कि जिस तरह पर्वत को देखने पर भी उसके पूर्ण रूप से दर्शन नहीं होते, उसी प्रकार वाणी आदि द्वारा भी ब्रह्म को पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता. श्री मध्व ने शंकराचार्य के मायावाद का खंडन करते हुए कहा कि जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार एक साथ नहीं रह सकते, उसी प्रकार सच्चिदानंद ब्रह्म का अविद्या से प्रभावित होना असंगत है, यदि अविद्या सत् है तो अद्वैत सिद्धांत ग़लत है और अविद्या असत् है तो उसका कुछ भी प्रभाव कैसे पड़ सकता है.

मध्वाचार्य के अनुसार जीव ब्रह्म से भिन्न है, किन्तु अंश होने के कारण यह अंशी पर अवलम्बित है. जीव में भी सत्, चित् तथा आनन्द का निवास है.

किन्तु उसे यह सब ब्रह्म से ही प्राप्त है. ब्रह्म स्वतंत्र है, जीव परतंत्र है. संसार में प्रत्येक जीवन अपना पृथक् व्यक्तित्व बनाए रखता है. भगवान के साथ चैतन्यांश को लेकर ही उससे जीव की एकता प्रतिपादित की जाती है. किन्तु समस्त गुणों पर विचार करने पर दोनों का पृथकत्व सिद्ध हो जाता है.

जीवों में परस्पर भेद भी हैं और ऊँच-नीच का तारतम्य भी. यह भेद सांसारिक दशा के अतिरिक्त मोक्षावस्था में भी रहता है. सर्वश्रेष्ठ जीव देवता कहलाते हैं, मध्यम कोटि में मनुष्य आते हैं और अधम (नीच) जीवों में दैत्य, राक्षस, पिशाच आदि की गिनती की जाती है.

जीव ईश्वर तथा जड़ पदार्थों से नहीं, अपित अन्य जीवों से भी भिन्न है. जीव शरीर के संयोग, वियोग से जन्म मरण को प्राप्त होता है. मध्व का विचार है कि उपाधि की उत्पत्ति और सम्पर्क के कारण जीव सूक्ष्म और स्थूल शरीर धारण करता है. जीव की दो उपाधियां हैं- स्वरूपोपाधि और बाह्योपाधि. स्वरूपोपाधि जीव से अलग नहीं है, किन्तु बाह्या उपाधियां सूक्ष्म स्थूल शरीर आदि हैं. जगत् की सृष्टि ईश्वर की इच्छा से होती है, जीव की इच्छा से नहीं. जीव प्रत्येक देह में भिन्न है, वह कभी भगवान के साथ अभिन्न नहीं हो सकता. जीव अज्ञान, मोह, आदि अनेक प्रकार के दोषों से भी ग्रस्त है.

मध्व के मतानुसार मोक्ष चार प्रकार का है- कर्मक्षय, उत्क्रांति अर्चिरादि मार्ग और भोग. भोग भी सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य तथा सायुज्य भेद से चार प्रकार का होता है. मध्व के अनुसार वैकुण्ठ प्राप्ति यानी विष्णु के लोक और रूप की प्राप्ति ही मुक्ति है. मुक्त जीव भी ईश्वर का सेवक है. मुक्ति के लिए प्रपंच भेद का ज्ञान आवश्यक है. प्रपंच भेद इस प्रकार है
1- ब्रह्म जीव से पृथक् है
2- ब्रह्म जगत् से भी पृथक् है
3- एक जीव अन्य जीव से पृथक् है
4- जीव जगत् से पृथक् हैं
5- जड़ जगत् के विभक्त या कार्यरूप में परिणत होने पर उसका एक अंश अन्य अंश से पृथक् हो जाता है
6- भक्ति ही मुक्ति का साधन है, भगवान की सेवा करना उत्तम साधन है.

मध्वाचार्य के सेवा के प्रकार
सेवा तीन प्रकार की होती है
1- भगवान के आयुधों की छाप शरीर पर लगाना
2- पुत्र आदि का नाम भगवान के नाम पर रखना
3- भेजन करना.

मध्वाचार्य के भजन के प्रकार
भजन 10 प्रकार का होता है. चार प्रकार का वाचिक-
सत्य बोलना, हित के वाक्य बोलना, प्रिय भाषण और स्वाध्याय.
तीन प्रकार का शरीरिक
1- सदपात्र को दान देना
2- विपन्न व्यक्ति का उद्धार करना
3- शरणागत की रक्षा करना.
मानसिक
1- दया अर्थात् दरिद्र के दु:ख दूर करना
2- स्पृहा अर्थात् भगवान का दास बनने की इच्छा
3- श्रद्धा अर्थात् गुरु और शास्त्र में विश्वास करना.
मध्व का विचार है कि इन 10 प्रकार के कार्यों को करते हुए नारायण में समर्पित हो जाना ही भजन है.

प्रमाण मीमांसा के सम्बन्ध में भी मध्वाचार्य के विचार ध्यान देने योग्य हैं. उन्होंने प्रमाण शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया है
1- यथार्थ ज्ञान
2- यथार्थ ज्ञान का साधन.
पहला उनके अनुसार केवल प्रमाण है, और दूसरा अनुप्रमाण. किसी वस्तु का यथार्थ (ठीक-ठीक) ज्ञान प्राप्त करना कवल प्रमाण कहलाता है. और जिस साधन द्वारा वह ज्ञान प्राप्त होता है, वह अनुप्रमाण कहलाता है. मध्वाचार्य के अनुसार प्रमाण तीन हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द. मध्व ने प्रत्यक्ष के सात भेद माने हैं. अर्थ और इन्द्रियों के निर्दोष होने पर ही प्रत्यक्ष सम्भव है. अत: उन्होंने प्रत्यक्ष की परिभाषा में निर्दोष शब्द को भी जोड़ दिया है. निर्दोशार्थेन्द्रियसन्निकर्ष: प्रत्यक्षम्. निर्दोष से आशय है निश्चित अर्थ का बोध कराने वाला. पांचों इन्द्रियों पर आधारित पांच भेदों के अतिरिक्त उन्होंने मन और आत्मा पर आधारित दो अन्य भेद मानकर उनकी संख्या सात बताई है.

मध्व के अनुसार निर्दोष उपपत्ति ही अनुमान है. इसके दो भेद हैं- स्वार्थानुमान और परार्थानुमान. उनका यह भी विचार है कि परार्थानुमान तीन अवयवों से ही पूर्ण हो जाता है और उपमान का भी अनुमान में ही अंतर्भाव हो जाता है. आगम के दो भेद बताए गये हैं, पौरुषेय और अपौरुषेय.

आचार्य मध्व के अनुसार सब ज्ञान आपेक्षिक हैं. ज्ञाता और ज्ञेय के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती. मध्व निर्विकल्पक ज्ञान की सत्ता को स्वीकार नहीं करते. वे ज्ञान को सविकल्पक ही मानते हैं. मध्व को शंकर का यह विचार मान्य नहीं है कि दृश्य वस्तु वास्तविक नहीं होती, ज्ञान ही सत्य होता है. मध्व शंकर के विपरीत यह मानते हैं कि दृश्य और सत्य अभिन्न हैं. सविकल्पक ज्ञानवाद से जिसकी सत्यता सिद्ध होगी, वही सत्य है.

मध्व के अनुसार पदार्थ या तत्व दो प्रकार का है- स्वतंत्र और अस्वतंत्र. भगवान विष्णु स्वतंत्र तत्व है, जबकि जीव और जड़ जगत् अस्वतंत्र तत्व हैं. मध्व के मतानुसार पदार्थ दस हैं
1- द्रव्य (भाव वस्तु)
2- गुण
3- कर्म
4- सामान्य
5- विशेष
6- विशिष्ट
7- अंशी
8- शक्ति
9- सादृश्य
10- अभाव
यह ज्ञातव्य है कि नैयायिकों के समवाय को छोड़कर अवशिष्ट छ: तथा चार अन्य नए पदार्थों का मध्व ने परिगणन किया है. इन पदार्थों का विस्तार से निरूपण पद्मनाभ के माध्वसिद्धांतसार में उपलब्ध होता है. माध्वमत में द्रव्य के निम्नलिखित बीस भेद बताये गए हैं- परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत, आकाश, प्रकृति (गुणत्रय) महत्तत्व, अहंकारतत्व, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, तन्मात्राएं, महाभूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अंधकार, वासना, काल और प्रतिबिम्ब. मध्व के अनुसार जिसमें उपादान कारणता हो, वह द्रव्य कहलाता है. कर्म तीन प्रकार का माना गया है- विहित, निषिद्ध तथा उदासीन. उत्क्षेपण, अपक्षेपण आदि कर्मों का अंतर्भाव उदासीन कर्म में किया गया है. जाति तथा उपाधि भेद से सामान्य दो प्रकार का माना गया है. भेद का अभाव होने पर भी भेद व्यवहार के निर्वाहक पदार्थ को विशेष कहा गया है, शक्ति चार प्रकार की मानी गई है
1- अचिन्त्यशक्ति
2- आधेयशक्ति
3- सहजशक्ति
4- पदशक्ति.
अचिन्त्य शक्ति अघटित घटना पटीयसी होती है और भगवान विष्णु में ही रहती है.

मध्व ईश्वर, जीवों और जगत् की परमार्थिक सत्ता स्वीकार करते हैं. प्रकृति, जीव और ईश्वर का एक दूसरे से अंतर्भाव नहीं होता. हाँ ईश्वर (परब्रह्म) स्वतंत्र तत्व है, जबकि प्रकृति और जीव परतंत्र तत्व हैं. ब्रह्म, जीव और प्रकृति स्वरूपत: भिन्न हैं, अत: उनमें अभेद नहीं है. मध्व का यह विचार है कि तत्वमसि आदि वाक्यों द्वारा भी जीव की तात्विक स्वतंत्रता व्यक्त होती है, न कि ब्रह्म से जीव और जगत् का स्वरूप भेद. मध्व के अनुसार प्रकृति जगत् का उपादान कारण है. दूसरे शब्दों में जगत् प्रकृति का विकार या परिणाम है. उपादान कारण में दो प्रकार का परिणाम होता है- धर्म परिणाम और धर्मी परिणाम. उपादान कारण और कार्य में भेद तथा अभेद भी होता है. तन्तुरूप उपादान कारण और पट रूप कार्य में भेद भी है, और अभेद भी. इस प्रकार मध्व सत्कार्यवाद और परिणामवाद से सहमत प्रतीत होते हैं. जगत् का उपादान कारण प्रकृति है. वह पारमार्थिक तत्व है, अत: उसका विकार मिथ्या या असत् कैसे हो सकता है. ब्रह्म के ईक्षण द्वारा प्रकृति से जगत् की सृष्टि बताई गई है. अत: मध्व का मत इस संदर्भ में बहुत कुछ सांख्य से मिलता-जुलता प्रतीत होता है.

भारत भ्रमण
श्रीमध्वाचार्य ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और स्थान-स्थान पर शास्त्रार्थ करके विद्वानों में दुर्लभ ख्याति अर्जित की. इनके शास्त्रार्थ का उद्देश्य भगवद्भक्ति का प्रचार, वेदों की प्रामाणिकता की स्थापना, मायावाद का खण्डन तथा शास्त्र-मर्यादा का संरक्षण करना था. गीताभाष्य का निर्माण करने के बाद इन्होंने बदरीनारायण की यात्रा की. वहाँ इनको भगवान वेदव्यास के दर्शन हुए. अनेक राजा इनके शिष्य हुए. अनेक विद्वानों ने इनसे प्रभावित होकर इनका मत स्वीकार किया. इन्होंने अनेक प्रकार की योग-सिद्धियाँ प्राप्त कीं. बदरीनारायण में श्री व्यासजी ने इन पर प्रसन्न होकर इन्हें तीन शालिग्राम-शिलाएँ दी थीं, जिनको इन्होंने सुब्रह्मण्य, मध्यतल और उडुपी में पधराया.

एक बार किसी व्यापारी का जहाज़ द्वारका से मालावार जा रहा था. तुलुब के पास वह डूब गया. उस में गोपीचन्दन से ढकी हुई भगवान श्रीकृष्ण की एक मूर्ति थी. मध्वाचार्य को भगवान की आज्ञा प्राप्त हुई और उन्होंने जल से मूर्ति निकालकर उडुपी में उसकी स्थापना की, तभी से वह स्थान मध्वमतानुयायियों का श्रेष्ठतीर्थ हो गया. इन्होंने उडुपी में और भी आठ मन्दिरों की स्थापना की. आज भी लोग उनका दर्शन करके जीवन का वास्तविक लाभ प्राप्त करते हैं. ये अपने जीवन के अन्तिम समय में सरिदन्तर नामक स्थान में रहते थे. यहीं पर इन्होंने अपने पांचभौतिक शरीर का त्याग किया. देहत्याग के अवसर पर इन्होंने अपने शिष्य पद्मनाभतीर्थ को श्रीरामजी की मूर्ति और व्यास जी की दी हुई शालिग्राम शिला देकर अपने मत के प्रचार की आज्ञा दी. इनके शिष्यों के द्वारा अनेक मठ स्थापित हुए.

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